Sunday, 23 September 2012


महिला की कैसी आजादी

-कुलीना कुमारी

वर्षों से महिलाओं के साथ पितृ सŸाा द्वारा अपने फायदे के लिए उसकी भूमिकाओं का निरूपण किया गया, उसके कार्यों की रूपरेखा तय की गई, पुरुषों के हित में ही उसके चरित्र की भाषा गढ़ी गई। और तो और, जन्म से लेकर अंतिम समय तक महिलाओं को जीने की सही तरीके की व्याख्या की गई है। अफसोस इस बात की है कि आजादी के इतने साल बाद भी ये प्रक्रिया जारी है। इस प्रक्रिया ने महिलाओं का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। महिलाओं को भूमिकाओं में बांधने व पितृसŸाा द्वारा खींचे सीमांकन में जीने की मजबूरी ने उसके पैर जकड़ दिए हुए हैं। महिलाओं को जीने का अधिकार घर-परिवार की सुरक्षा के नाम पर ही दिया गया है। महिलाओं की आवाजें तभी तक लोग सुनते हैं जब तक वह घर-परिवार व पितृसŸाात्मक समाज की सुरक्षा के लिए उठती है।
अर्थात महिला घरेलू हो या कामकाजी, उसे घर, परिवार, परंपरा व समाज के बनाए नियम के अनुसार ही जीना है नहीं तो उसे चरित्रहीन अथवा डायन कहकर दंडित किया जाता है। जो महिलाएं अपनी इच्छा से जीवन जीना चाहती है, लड़कों के तरह बराबरी का अधिकार चाहती है या उसका प्रयास करती है, उसके साथ समाज व समाज में व्याप्त पितृसŸाात्मक समझ के प्रतिनिधि बहुत बुरा सलूक करते हैं। दंड भी ऐसा जो महिला विरोधी सोच व सामाजिक विभत्सता  का परिचय दें। अपने अधिकार की आवाज उठाने वाली महिला को  सार्वजनिक रूप से नंगा घुमाया जाता है, पिछले दिनों असम के गोहाटी शहर में सरेआम लोगों के समक्ष एक लड़की का कपड़े उतरवाना, व छŸाीसगढ़ के रायपुर शहर के नजदीक चार हथियारबंद लड़कों द्वारा एक प्रेमी युगल को पकड़ कर सरेआम लड़की को प्रेमी के सामने ही कपड़े उतरवाकर नंगा घूमाना जैसे कई उदाहरण है।
इतना ही नहीं अपनी इच्छा से जीने वाली लड़कियों के साथ  सार्वजनिक व सामूहिक रूप से बलात्कार तक किया जाता है अथवा लड़की को चरित्रहीन बताकर व उसकी गलतियां गिनाकर जला दिया जाता हैं। महिलाओं के संग सार्वजनिक रूप से किए जाने वाले इस अपराध के मात्र इतने उद्देश्य है कि समाज की कोई भी महिलाएं अपने लिए जीने का प्रयास न करें अन्यथा उसके साथ भी ऐसा ही सलूक किया जाएगा।
अगर इसका उद्देश्य इसके बजाय कुछ और होता तो समाज के द्वारा सार्वजनिक रूप से ये अपराध किए ही क्यों जाते, अगर महिला की सचमुच गलती होती तो उसे कानून के हवाले कर दिया जाता, कानून हाथ में लेने की जरूरत नहीं होती। चाहे सवाल महिला द्वारा चुने गए जीवनसाथी को लेकर हो अथवा घर-परिवार द्वारा बीछे गए अकर्मण्य व अपराधी के साथ रहने में आपŸिा, दोनों ही स्थितियों में सजा प्रायः महिलाओं को ही मिलती है। हमारे समाज में महिला को न्यूनतम व्यक्तिगत अधिकार से भी वंचित रखा जाता है। महिलाओं के प्रति किए जाने वाले अपराध को नेशनल क्रायम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी अधिक पुख्ता करती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011 में महिलाओं के साथ दुराचार के 24206, छेड़छाड़ एवं अश्लीलता के 42,968, सताने के 8570 और अगुवा करने एवं बंधक बनाने के 35565 मामले दर्ज हुए हैं।
इस लेखनी के माध्यम से हमारा उद्देश्य महिलाओं के साथ होने वाले अपराध को मात्र दिखाना नहीं है बल्कि इसके जरिए ऐसे अपराध होते क्यों है, उसके तह तक जाने का प्रयास करना है।
बात कन्या भ्रूण हत्या से शुरू करें तो पाते हैं कि माता-पिता सिर्फ इसलिए लड़के की चाह रखते हैं कि लड़की को वंश के अधिकारी होने का अधिकार धार्मिक आडम्बरों ने नहीं दे रखा है ऐसे लिखें कि संपŸिा का अधिकार व परिवार का गौरव बनने का अधिकार नहीं है। अधिकतर लोगों का जवाब हां में होगा और इन विचारों से अपनी सहमति  भी जताएंगे, लेकिन बात इतनी ही नहीं है। उपरोक्त तीनों अधिकार अगर मां-बाप बेटी को दे दे तो भी बेटी बेटे जैसे रुतबा हासिल नहीं कर पाती, वह है हर हाल में इज्जत व प्रतिष्ठा बनाए रखने का अधिकार जो कि एक लड़की के पास नहीं नहीं होने के कई पक्ष रखें गए हैं। जीवन के विभिन्न परिस्थितियों में लड़की के साथ होने वाले छेड़छाड़ व यौन प्रताड़ना लड़की की इज्जत में बट्टा लगाता है और इसी के साथ मां-बाप के इज्जत में भी बट्टा लगती है जिसकी वजह से माता-पिता लड़की को पैदा नहीं करना चाहते।
जो लड़कियां चाहे-अनचाहे इस दुनिया में आ भी जाती है उस लड़की के विकास के प्रति नहीं बल्कि उसकी शारीरिक सुरक्षा के प्रति माता-पिता हमेशा चौंचक व सशंकित बने रहते हैं। यह सोचकर कि शादी से पहले ही हमारी लड़की के संग कोई प्यार या नफरत का खेल न खेल ले, ऐसा होने पर लड़की अपवित्र हो जाएगी। इस संदर्भ में मेरा सोचना ये है कि लड़की अपनी इज्जत प्रतिष्ठा की सुरक्षा इसीलिए नहीं रख पाती उसे किसी लड़का से कम क्षमता है बल्कि उसकी इज्जत-प्रतिष्ठा इसीलिए दांव पर लगी रहती है कि समाज के ठेकेदारों ने लड़की की इज्जत का ठीका लिया रहता है जिसके अंतर्गत किसी महिला का स्पर्श/संबंध सिर्फ उसके पति के संग हो। अन्यथा महिला की सहमति या असहमति से भी दूसरों के द्वारा बनाया जाने वाला संबंध पुरुष को नहीं महिला को पतित बना देता है। इसे दुर्विति नहीं तो क्या कहा जाय कि किसी महिला के साथ जबरदस्ती यौन संबंध बनाने वाला, किसी के साथ जबरदस्ती मुंह काला करने वाले पुरुष का शरीर व जीवन अपवित्र नहीं होता बल्कि अपवित्र महिला हो जाती है यौन प्रताड़ित महिला का तन-मन व जीवन सब।
दूसरा मामला यह है कि किसी के द्वारा किसी अन्य की संपŸिा हड़प लेने पर, किसी विशेष स्थान पर दंगा-फसाद करने पर अथवा मारपीट व खून खराबा होने पर अगर सजा कानून में चोर, आतंकवादी व खूनी के लिए नियत है तो संपŸिा से वंचित रखकर महिला के जीवन सुरक्षा को प्रति असहमति के लिए भी महिला को ही क्यों जिम्मेवार माना जा रहा है। बलात्कार की स्थिति में एक तो महिला के तन-मन पर आघात पहुंचता है। दूसरा जिस तरह के सवाल पुलिस चौकी से लेकर कोर्ट  तक उसके सामने रखें जाते है वह बलात्कार से भी कठीन और मुश्किल दर्द के दौर से महिलाओं गुजारता है। होना तो चाहिए कि ऐसी स्थिति में महिला की मदद के लिए समाज आगे आए जबकि उल्टा होता है, महिलाओं को लेकर वैचारिक दुर्भाग्य यह भी है कि महिला के पक्ष में कानून बनाने वाली उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री महिलाओं की सुरक्षा में कानून बनाने के बाद होने वाले चुनाव हार जाती हैं।
अतः ऐसी परिस्थिति में लड़की के शरीर को अपवित्र घोषित कर व उसके जीवन को कलंकित बता उसे समाज से अलग-थलग कर दिया जाता है व समाज के न्यूनतम सुविधा से भी उसे वंचित कर दिया जाता है। पिछले दिनों की एक घटना में एक छात्रा के साथ बलात्कार होने पर ग्राम पंचायत द्वारा उसके स्कूल जाने/ अन्य बच्चों के साथ पढ़ाई करने पर रोक लगा दी।
जो लड़की अपनी मरजी से अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक शादी करती है, उसके साथ माता-पिता अथवा समाज बहुत ही बुरा सलूक करता है। न केवल ऐसी महिलाओं को सार्वजनिक रूप से अपमान का सामना करना पड़ता है बल्कि कभी ईट-पत्थरों से तो कभी पीट-पीट कर तो कभी गोली बंदूकों से तो कभी आग के हवाले कर दिया जाता है।
अगर महिला जान बचाकर भाग पाई तो अपने जीवन सुरक्षा हेतु उसे गांव को भूलाना पड़ता है। तरह-तरह के अत्याचार समाज द्वारा अपनी मर्जी से जीने वाली महिलाओं के लिए नियत किए गए हैं।
जो लड़कियां मां-बाप व समाज के कैटेगरी में फिट दिखती है, अर्थात आंख बंद कर पितृसŸाा को स्वीकारती है, परंपरा में विश्वास करती हुई स्वयं को पति व परिवार के लिए ही समर्पित समझती है, उसका भी हश्र अच्छा नहीं। ऐसी औरतें मां-बाप द्वारा चुने लड़को के साथ ब्याह कर जीवन बसर करती है किंतु ऐसी लड़कियों को भी समाज कहां चैन से जीने देता है। परदा प्रथा, दहेज, मारपीट, अप्राकृतिक यौन संबंध झेलना व पति तथा ससुराल वाले के हिसाब से जीने को मजबूर करना महिलाएं की रोजमर्रा में जहां-तहां देखी जा सकती है। एक आंकड़े के मुताबिक करीब 50 प्रतिशत महिलाएं विभिन्न तरह की हिंसाओं की शिकार होती है। समाज का मानक वह रूप जिसमें एक महिला के लिए पति के साथ ही यौन संबंध बनाने व साथ रहने की आजादी दी गई, महिलाओं के विकास की राह में रोड़े अटकाए हुए हैं, इस एक वजह के चलते ही महिलाएं हर हाल में पति को झेलती है चाहे पति अच्छा हो या बुरा। आजीवन पति बनाम पुरुषवादी सŸाा की गुलामी स्वीकारते हुए अपना जीवन ब्यर्थ बरबाद करती है। साथ ही पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम महिलाओं की श्रंखला चलती रहती है।
लोग कहते हैं कि महिलाएं वैज्ञानिक कम होती है, वह इसलिए कि उसे बचपन से ही दिमाग के दरवाजे बंद रखने के लिए कहा जाता है ताकि वह बुद्धिमान न बने, कुछ नया न सोचे और न करे,   उसकी प्रसिद्धि व पहचान न हो ताकि विकल्प के अभाव में वह पुरुष की गुलामी करने के लिए मजबूर हो। महिलाओं की यौनिकता का हवाला देकर उसके पैरों में बेड़िया डाली गई है ताकि वह बेहिचक समाज को खुली आंखों से देख न सके, उसे पहचान न सके और उसमें गुम होने के डर से पुरुष की गुलामी करने को आजीवन अभिशप्त रह सकें।
वैसे एक पुरुष के लिए यौनिकता का सामाजिक रूप से कितना महŸव है? इतना ही ना कि पेट की भूख की तरह शरीर की भी भूख होती है, किसी लड़की को देखकर भूख लगी, संबंध बन गया, भूख खतम, संबंध खतम। वैसे भी मनुष्य का जीवन इसी संबंध पर आधारित है और लड़के-लड़की का एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना प्राकृतिक है। (इस संदर्भ में पूछे जाने पर पत्नी भक्त कुछ पुरुषों का कहना है कि दोनों की सहमति से संबंध बनना तात्कालिक आवश्यकता कहा जा सकता है, अपराध नहीं और इससे किसी का चरित्र हनन नहीं होता।) तो इस प्राकृतिक संबंध का खामियाजा सामाजिक रूप से लड़की के नाम क्यों? फिर यौनिक संबंध को लेकर लड़के के समान ही लड़की का भी नजरिया क्यों न हो? एक ही समाज में रहते हुए लड़के और लड़की के लिए अलग नियम क्यों? क्यों न पितृसŸाा द्वारा महिलाओं के लिए गढ़ी इस इज्जत की परिभाषा को मानने से इंकार कर दिया जाय। महिला अपने शरीर पर किसी पुरुष व समाज की पहरेदारी क्यों करने दें। जिस दिन से महिलाएं महिला के लिए समाज द्वारा निर्धारित इज्जत की इस तथाकथित परिभाषाओं को नहीं मानेगी तो इसका हौआ बनाना भी कम हो जाएगा। (और कम हो सकता है यौन प्रताड़ना व बलात्कार का भय दिखाकर दबंग लोगों द्वारा महिलाओं पर दबाव बनाना)।
इस प्रक्रिया की एक महŸवपूर्ण कड़ी होगी-परदा प्रथा का विरोध। महिलाओं के लिए कितना परदा हो, इस संबंध में एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्Ÿाा का कहना है कि महिलाओं के लिए भी उतना ही परदा जरूरी है जितना कपड़े की आवश्यकता पुरुषों को है। पुरुष से अधिक महिला को भी अपने शरीर छुपाने की जरूरत क्यों हो? घूंघट व चेहरे तक को छुपाने के लिए मजबूर करना महिला के प्रति एक प्रकार का दबाव बनाम अपराध है जिसका किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता। समाज महिला को अतिरिक्त परदे में रखना उचित समझता है व उसे नंगा करना गाली। लेकिन मैं बताऊं कि किसी महिला का नंगा होना गाली नहीं हो सकता, अगर ये गाली होता तो (जीवनधारा को चलायमान रखने के लिए) कोई महिला किसी लड़का या लड़की को पैदा नहीं करती। अगर पुरुषवादी समाज सरेआम किसी महिला को नंगा करता है, तो वह उस महिला को नंगा नहीं करता, वह खुद को नंगा करता है, वह अपनी मूल/मां को बेइज्जत करता है, और अपने जड़ को काटने वाला कहां फल-फूल पाएगा। तभी तो रफ्तार बेशक धीमी हो, लेकिन इस विकृत समाज में भी महिलाएं आगे बढ़ रही है।
दूसरी जो सबसे ज्यादा महŸवपूर्ण है-वह है अपने को अभिव्यक्त करना, महिला क्या सोचती है व क्या चाहती है, इसे घर-परिवार में व्यक्त करना व अपने सपने की पूर्ति के लिए प्रयास करसंपŸिा ना। अनेकानेक प्रयास मंजिल तक पहुंचने का रास्ता सहज बना देगा।
अंततः कुछ महिलाओं ने अपने प्रयास से कदम के निशां छोड़ना शुरु कर दिया है। सचमुच नए व स्वतंत्र सोच के साथ कुछ महिलाओं ने सोचना शुरु कर दिया है, परिणाम बेशक कुछ हो, इन महिलाओं का जीवन का अंतिम लक्ष्य नए सोच व नए तरीके से जीवन जीना ही है। मुझे उम्मीद है समाज की ये गिनी-चुनी महिलाएं अन्य महिलाओं के लिए ऐसी प्रेरणा का स्रोत बनेगी जो आने वाले दिनों में नया सोच व नया राह प्रशस्त करने में सहायक होगी।

Saturday, 1 September 2012




महिलाओं के संग दोयम दर्जे सा व्यवहार

-कुलीना कुमारी

तथाकथित सरकारी महिला सशक्तिकरण के दौर में भी महिलाओं के साथ भेदभाव जारी  है। बात बेशक हो विकास की लेकिन हमारे भारतीय समाज की परिस्थिति, कानून व उसके लागू करने संबंधी प्रावधान महिलाओं के लिए उचित वातावरण नहीं बनाते। आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे की मानवीय प्राणी के रूप में देखा जाता है। जबकि पुरुष को अधिक से अधिक सक्षम बनाने के लिए सकारात्मक वातावरण उपलब्ध है।
जी-20 सातवीं अर्थव्यवस्था सम्मेलन में भी बताया गया कि भारत महिलाओं के लिए जीने लायक सबसे खराब देश है। इसमें कहा गया कि कन्या भ्रूण हत्या, कम उम्र में शादी और पराधीनता की वजह से भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय है।
सचमुच हमारे समाज में महिलाएं जन्म से पहले से ही भेदभाव की शिकार है। द लांसेट 2011 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पिछले तीन दशकों में 1.2 करोड़ कन्या भ्रूणों की हत्या हुई है। जो बच्चियां पैदा हुई है, उसके साथ भी लड़के बच्चे के समान बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता, खान-पान, शिक्षा-दीक्षा व बराबरी का प्यार देने से भी गुरेज किया जाता है।
लड़कियों को कमतर माने जाने का एक अन्य दुष्परिणाम है, बच्चियों को मानव व्यापार, जिस्मफरोशी व बंधुआ मजदूरी में धकेला जाना। यद्यपि कुछ बच्चे स्वयं घर से भागते हैं लेकिन भारत में आज भी कई ऐसा समाज है जहां लड़कियांे को कमाने व काम करने के लिए शहर भेजा जाता है जबकि लड़का घर पर मां-बाप के देखभाल के लिए रहता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2008 से 2010 के बीच एक लाख से अधिक बच्चें गायब हो गए जिसमें अधिकतर बच्चियां थी। सिर्फ कर्नाटक से इन तीन सालों के दौरान 270 लड़कियां गायब हुई हैं। सेव द चिल्ड्रेन, यू के की संस्था के हेल्थ प्रोग्राम डेवलपमेंट एडवाइजर गुलशन रहमान के भी मुताबिक भारत में लड़कियों और महिलाओं की वस्तु के रूप में बिक्री जारी है। सीबीआई रिपोर्ट के मुताबिक, अब भी देश में तीस लाख से ज्यादा यौनकर्मी मौजूद हैं, जो कि एक बड़ा सवाल है।
सोचनीय यह भी है कि जिस परिवार में लड़कियां रहती भी है, उसे अनेक बिंदु पर ये एहसास कराया जाता है कि तू लड़की है, इसीलिए सीमाओं में रहना सीख। एक ही परिवार की लड़की-लड़का के शिक्षण की गुणवŸाा में भी अंतर किया जाता है। जबकि लड़कियों को  भी प्राथमिक शिक्षा देने का क्रेज बढ़ा है, इसीलिए उसे-लड़कियों को सरकारी स्कूल में लड़का-बच्चा को नीजि स्कूलों में भेजा जाता है। इसके बावजूद पिछले कई सालों से दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परिक्षाओं के दोनों ही परिणामों में लड़कियां अव्वल आ रही है लेकिन इसके बाद भी उच्च शिक्षा मंे महिलाओं की पहुंच बहुत कम है।
शिक्षण के क्षेत्र में और व्यवसायिक शिक्षा में खासकर चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं का अनुपात बराबर अथवा बराबर से थोड़ा अधिक देखने को मिलता है। जबकि अन्य उच्चशिक्षण व प्रशिक्षण में महिलाएं बहुत पीछे है। देश भर में आईआईटी में सिर्फ 10 प्रतिशत व आईआईएम में मात्र 20 प्रतिशत लड़कियां है। शिक्षण व डॉक्टरी के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या इसीलिए ठीक है क्योंकि ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिसे परिवार चलाते हुए चलाया जा सकता है। क्योंकि ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिसमें जॉब के अलावा प्रायवेट प्रैक्टिस की गुंजाइश रहती है जो कि अन्य क्षेत्र में इतना सहज नहीं। जबकि अन्य क्षेत्रों के प्रशिक्षण के लिए अधिक पैसा खर्च करना होगा, दूर भेजना होगा, साथ ही समय भी ज्यादा लगेगा जिसे परिवार वालों को मंजूर नहीं। अतः शिक्षण व प्रशिक्षण के स्तर पर भी महिलाओं को दोयम दर्जें का मनुष्य माना जाता है।
लड़कियों को दी जा रही परवरिश का एक बुरा पहलू यह है कि बचपन से ही उसे समझाया जाता है कि तुम्हें वही करना है जो तुम्हें तुम्हारे बड़े कहे, चाहे वो गलत हो या सही, तुम्हें अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करना है और उनके अनुसार ही तुम्हें चलना हैं। बड़े से तात्पर्य विभिन्न प्रकार के रिश्तेदार है, जिसमें मां-बाप, भाई व शादी के बाद पति व सास-ससुर के लिए संबोधित किए जाते हैं। लड़कियों को विभिन्न प्रकार के व्यवहार द्वारा यह भी बताया जाता है चाहे भाई या अन्य कोई पुरुष उम्र में तुमसे छोटा ही क्यों न हो लेकिन क्योंकि वह पुरुष है, इसीलिए उसे बड़ा ही समझो। मुझे आज भी वह प्रसंग याद है जब मेरे द्वारा देवर को नाम से संबोधित करने पर मेरी सास ने कहा था, यह बहुत गलत बात है, बड़का-जेठका के संतान को नाम से संबोधित नहीं करते। अधिकतर परिवारों में लड़कियांे को हुनर के रूप में सिखाया जाता है, प्राथमिक स्कूली शिक्षा, पाक कला, घर की साफ-सफाई व येस वूमैन की भूमिका।
एक तरफ समाज में लड़की के उन कार्याें का कोई मूल्य नहीं है जिस गुण के बिना कोई लड़का लड़की से शादी करने के लिए तैयार नहीं है।
दूसरी तरफ महिलाओं में इन गुणों के होने के बावजूद शादी की परिस्थिति में दहेज देने की प्रथा कायम है क्योंकि महिलाओं के घरेलू कार्य की निपुणता घरेलू कार्य में दिया जाने वाला सहयोग उसके आर्थिक क्षेत्र में किया जाने वाला सहयोग के रूप में नहीं देखा जाता, अपने चौबीस घंटे की डयूटी करने के लिए तैयार रहने के बावजूद उसे अपने ही घर में चाहे वह मां-बाप का घर हो या पति का, उसे आश्रित के रूप में ही देखा जाता है। मां-बाप स्वयं इस बेटीनुमा बोझ को दान-दहेज के साथ उपयुक्त व्यक्ति से शादी करा दूसरे घर में पहुंचा देते है फिर कभी न वापस आने के लिए। अन्य मेहमानों के तरह समय-समय पर दो-चार दिन के लिए आ जाय तो अलग बात है। यद्यपि कानूनन दहेज गैरकानूनी है, लेकिन यह सरेआम चलता है जबकि कानून में बेटियों को भी संपŸिा देने का प्रावधान है किंतु दहेज की वजह से मां-बाप द्वारा लड़की को संपŸिा से बेदखल कर दिया जाता है।
अफसोस उन आत्मनिर्भर लड़कियों व उसके अभिभावकों के लिए भी है जिनकी लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर इतना कमाती है कि स्वयं व अपने परिवार का अच्छी तरह भरण-पोषण कर सकें, इसके बावजूद उस लड़कियों के ऊपर इतना पुरुषवादी सोच हावी रहती है कि वह अपने मां-बाप व अभिभावकों के आज्ञा के बिना अपने लिए कुछ सोच नहीं पाती या फिर उन आत्मनिर्भर लड़कियों का भी मानसिक स्तर पराधीन सोच व परवरिश की वजह से गुलाम बना रहता है। एक ताजातरीन घटना में मैंने देखा है कि एक आत्मनिर्भर लड़की का मानसिक स्तर इतना निम्न व पराधीन है कि वह बेरोजगार पति की आंख बंद कर बात इसलिए मानती है क्योंकि वह पुरुष है और पुरुष की गलत बातों का भी विरोध नहीं करना चाहिए। जिस समाज में चाहे महिला घरेलू कार्य में निपुण है या अन्य बाहरी कार्य में आर्थिक रूप से सक्षम, उसे हर हाल में पुरुष के अनुसार चलने व गुलामी करने का प्रशिक्षण दिया जाय, उस समाज में महिला का विकास कैसे संभव है।
इससे बड़ा महिलाओं के खिलाफ क्या साजिश हो सकता है कि जहां महिलाएं हर तरह से सक्षम भी है वहां भी वह खुशी से पुरुषों की गलत मानने व उसकी गुलामी के लिए तैयार है। तभी तो जब-तब खबर आती है कि ससुराल वालों ने दहेज की मांग की है और मायके वाले ने उसे हर संभव देने का प्रयास किया है, जहां दहेज की मांग पूरा नहीं हो पाती वहां दुल्हन को मार दी जाती है।
राष्ट्रीय अपराध संाख्यिकी ब्यूरो-2010 के मुताबिक प्रति एक घ्ंाटे में दहेज के कारण एक दुल्हन की मौत हो जाती है। बात सिर्फ मौत की नहीं, घर-परिवार में रहने वाली जिंदा महिलाओं की स्थिति भी अच्छी नहीं है। बात चाहे पिता के घर की हो या पति के घर की, जो महिलाएं जरा सा भी अपने परिवार में मरजी चलाना चाहती है, उसके साथ बहुत दुर्व्यव्यवहार किया जाता है, उसे मारा-पीटा जाता है, घर से निकालने की धमकी दी जाती है या फिर घर से निकाल दिया जाता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा योजना आयोग द्वारा दो अलग-अलग अध्ययनों से खुलासा होता है कि 40 फीसदी से 80 फीसदी के बीच महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार है।
समाज के नीचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले परिवारों में भी लड़कियों की स्थिति अच्छी नहीं है, इस समुदाय में बेशक दहेज हत्याएं कम है लेकिन कच्ची उमर में शादी व कम उमर में मां बनना जैसी समस्याओं से महिलाओं को गुजरना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 50 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले कर दी जाती है। इससे महिला का पूर्ण विकास नहीं हो पाता, व कम उमर में अधिक जिम्मेदारी उठाने व मां बनने से कई स्वास्थ्य संबंधी समस्या की शिकार भी हो जाती है। ऐसी महिलाओं को जागरूक करने के बजाय  उसके स्वास्थ्य व जीवन को प्रभावित करने में सहायक है, समाज में घूम रहे यत्र-तत्र घूम रहे बिचौलिया। गरीब बीपीएल परिवार की महिलाओं के संग स्वास्थ्य लाभ के नाम पर उसके शरीर व जीवन से खेला जाता है उसका एक बड़ा उदाहरण है बिहार की 16 हजार से अधिक महिलाएं। मामला यह है कि बिचौलियों द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा राशि हड़पने के लिए ढाई वषों में 16 हजार से अधिक गरीब महिलाओं के गर्भाशय निकलवा दिए गए। सूबे में चल रही राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत बीपीएल परिवार के पांच सदस्यों के लिए अधिकतम तीस हजार रुपये की मुत इलाज की व्यवस्था है। गरीब परिवारों के इलाज के लिए सूबे में 829 निजी अस्पताल सूचीबद्ध है और यही से खेल शुरु हुआ। जिन सभी महिलाओं के गर्भाशय निकाला गया, उनकी उम्र 20 से 30 वर्ष है। अब ऐसी महिलाएं कभी भी मां नहीं बन पाएंगी।
मेरे ख्याल से स्वास्थ्य लाभ योजना का शिकार भी महिलाएं इसीलिए हुई क्योंकि इसके लिए उसे बिचौलियों से पहले उसके अपने परिवार वालों ने ही तैयार किया होगा। किसी भी पति के लिए जब उसकी पत्नी मां नहीं बनेगी तो किसी भी पुरुष के लिए ऐसी महिला को बांझ कहकर छोड़ देना अथवा दूसरी शादी करना बड़ी बात नहीं। फिर दूसरी महिला से किसी भी हद तक लाभ उठाना पुनः प्रारंभ हो जाता है।
यह महिलाओं के खिलाफ बनता वातावरण का ही दुष्परिणाम है कि जो पुरुष किसी महिला के पेट से पैदा हुआ है, और जिसका जीवन किसी महिला के साथ जीने से ही सफल है व दुनिया का अस्तित्व भी, वही पुरुष अगर महिला जाति के अस्तित्व, अस्मिता व उसके महŸव को नकारे और उसे अपने से कमतर कहते हुए शरमाए नहीं। उससे बड़ा निर्लज्ज और कौन हो सकता हैं।
अतः ये कहना अतिश्योक्ति नहीं कि परिवार, समाज व सरकारी कानून सभी महिला विरोधी है, एक और महिलाविरोधी अभियान जो कि महिला के खिलाफ जारी है, वह साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसी महिलाओं का ही महिमा मंडन करना जो पारंपरिकता में विश्वास करती है, जो महिलाएं अपने दम पर खुद को खड़ा नहीं करती बल्कि वैचारिक व व्यावहारिक स्तर पर भी अपनी मरजी से जीती है या जीने की कोशिश करती है, उन्हें चरित्रहीन, डायन व बुरा घोषित कर किसी न किसी रूप से उसका नुकसान पहंुचाने की कोशिश करना।
महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए सभी जागरूक महिलाओं व लेखिकाओं का एक पुनीत कर्Ÿाव्य है कि उन्हें जिस भी रूप में हो, महिलाओं को दोयम दर्जें के रूप में मानने से इंकार करें, खुद को सबल बनाने के साथ-साथ दूसरी महिलाओं को भी अपनी क्षमताओं के हिसाब से उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास करें।








नारी नारी का दुश्मन नहीं, पुरुशवाद का मोहरा है

समय-समय पर नारी के विकास और उसके राहों में आने वाली रुकावटों के बारे में जब भी बात की जाती है, प्रायः दबे जुबान से यह कहा जाता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है। लेकिन जब ऐसी ही बात अपने पुरूष संस्कारों से लैश होकर संसद जैसे सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थान में एक पूर्व मंत्री और सांसद डॉ. कर्ण सिंह जिन्हें यह भी जरूर पढ़ा होगा ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवताः’ इस देवता शब्द की अवधारणा अच्छाई की समझ से है-खुलेआम कहता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है और यह बात सुनकर भी जब अन्य पुरुषोचित समझ के साथ बैठी नारियां (सांसद व मंत्री) भी हंसती रही अथवा समर्थन में चुप रही तो महिला अधिकार के संदर्भ में विचारणीय लगता है कि ऐसा आरोप क्यों मढ़ा जाता है। ऐसा कहने वालों की समझदारी से ज्यादा सुनने पर चुप्पी साधने की मंशा क्या है?
ऐसा कहने वाले या स्वीकार करने वाले वो लोग हो सकते हैं जो स्त्री-पुरुष के संबंध व स्त्री-स्त्री के संबंध को सिर्फ ऊपरी तौर पर देखते हो। किसी भी बयान को जारी करने से पहले कारणों की पड़ताल और कारण के मूल में जाना जरूरी है।
हां ये सच है कि लड़कियों के साथ अथवा बहुओं के साथ होने वाले भेदभाव में महिलाएं (मां-सास) पीछे नहीं आगे रहती है, घटते लिंगानुपात का महŸवपूर्ण कारण मां द्वारा कन्या शिशु को दुनिया में नहीं लाने की अनिच्छा भी शामिल है। लगभग केरल और पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर भारत वर्ष में स्त्रियों को सामाजिक-आर्थिक भागीदार के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता और सांसारिक बोझ मानने के स्वरूप स्त्री भू्रण हत्या की जाती है। लेकिन जब से विभिन्न राज्य सरकारों ने स्त्री-बच्ची को जन्म देने पर एक राशि का ईनाम देना शुरू किया है तब से स्त्री भ्रूण हत्या की दर में घटौती आई है।
वैसे पुरूषवाद की विडंबना है कि उस नये रास्तों से लड़ने के रास्ते भी निकाल लिए जाते है जो विकास के लिए अवरोधक तत्त्व विकसित करता है। संभवतः विकास के बीचाक्षर ‘क’ को ‘न‘ में बदलने की भूमिका अहम हो जाती है। राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार जबसे बनी है, तब से गर्भपात की संख्या घटी है, लेकिन गर्भ में कन्या शिशु हत्या के बजाय जन्म देकर बच्ची के जन्म से जुड़े प्रोत्साहन राशि लेकर मारने की प्रथा चली है और ग्राम पंचायत भी इसमें सहयोगी बना हुआ है, जहां महिला आरक्षण है।
कई बार जबरदस्ती लेकिन कन्या भ्रूण हत्या उसकी मां की जानकारी में की जाती है।  ऐसी महिलाएं समाज में आसानी से व खुलेआम कहती हुई मिल जाती है कि अगर उनकी एक या दो बेटियां है तो दूसरी या तीसरी संतान लड़का ही चाहिए। इसके अलावा दुनिया में आए बेटा-बेटी के खान-पान, शिक्षा-दीक्षा व संस्कार में भी परिवर्तन किए जाते हैं और उस कार्य में पूरी भागीदार महिला दिखाई देती है। अर्थात लड़का-लड़की दोनों के लिए जो समाज ने अलग-अलग पैमाना निर्धारित किया है, उसको उसी रूप में चलाने के लिए महिलाएं ही आगे दिखाई पड़ती है। ये तो महिलाओं के द्वारा महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण का बाहरी पक्ष हुआ।
इसका आंतरिक पक्ष बिल्कुल उलट है। एक लड़की को पुरुषवादी व्यवस्था में जन्म से पहले ही लड़की होने के प्रति सामाजिक व पारिवारिक दुर्भावना का सामना करना पड़ता है, जैसा कि माना जाता है कि घटते लिंगानुपात इसी दुर्भावना का परिणाम है। इसका जो दूसरा विद्रुप परिणाम दिखता है, वो है महिला को पुरुष के गुलाम के रूप में तैयार करना क्योंकि पुरुषवादी व्यवस्था तभी कायम रह सकती है जब महिला खुद को कमतर और पुरुष को महान समझे।
इस गुलामी की प्रक्रिया के अंतर्गत एक परंपरा सी बनी हुई है या व्यावहारिक रूप में ये ग्रहण कर चुकी है कि महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी, घर व बच्चों की देखभाल और बच्चों को जीने का तरीका बनाम संस्कार देने की जिम्मेदारी मां की है। इसकी एक वजह ये हो सकती है कि विवाह के बाद दूसरे परिवेश से आई लड़की भी ऐसा कार्य करते हुए अपने घर-परिवार के लोगों को देखा होगा तो यह कार्य करना उसके लिए नया नहीं आसान होगा, ऐसा माना जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि शादी किसी भी महिला के लिए बंधन मानी जाती है जिसमें उसका घरेलू देखभाल, पति व बच्चें शामिल होते हैं। इस संबंध में तीसरा महŸवपूर्ण पहलू है कि स्त्री में ‘‘ऑबजर्वेशन’’ की क्षमता, कार्य के प्रति निष्ठा व सहनशीलता अधिक होती है। फिर बच्चे सबसे अधिक मां से प्रभावित होते हैं और बच्चों को शुरुआती उमर में अच्छे देखभाल की आवश्यकता होती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि घर व बच्चंे की देखभाल की जिम्मेदारी पूरे चौबीसों घंटे की होती है जो कि पुरुष नहीं कर सकता या नहीं करना चाहता, ऐसे में इन कार्यों के लिए महिला  से बढ़िया कोई और विकल्प नहीं होता।
महिला को बार-बार यह बताने की कि घर में स्त्री की क्या औकात होनी चाहिए। पुरुष वर्चस्व में दबी महिलाओं के संबंध में एक बात साफ है कि वह पति पत्नी को सामाजिक सच की जानकारी देता है। वह पत्नी या घर में स्थित महिलाओं को इसी हिसाब से जीने का आदेश देता है। जो भी इस आदेश बनाम सीमा को लांघने का प्रयास करती है। उसे सामाजिक सरोकारों से वंचित कर गैर सामाजिक प्राणी बताने के मुहिम चलाए जाते है।
महिला बचपन से ही जुल्म सहतेे-सहते थक हार कर कब जुल्म सहने की अभ्यस्त हो जाती है, यह कब उसके जीवन जीने के तरीके में कब शामिल हो जाता है, उसे पता नहीं चलता। इस पारिवारिक व सामाजिक महिला विरोधी आग में घी डालने का काम करता है हमारा महिला विरोधी कानून व उस कानून को पालने की लंबी व ऊबाई प्रक्रिया।
पैतृक संपŸिा में पुरुष का हिस्सा सामान्य व आधिकारिक रूप से प्रयोग में है लेकिन संपŸिा में कानूनन लड़की का हिस्सा सर्वोच्च न्यायालय ने नियत कर दिया है लेकिन अभी तक प्रचलन में नहीं आया है। इसीलिए पैतृक संपŸिा में बेटी को हिस्सा नहीं मिलता, जहां एक-आध लड़कियां पैतृक संपŸिा में हिस्सा के लिए पहल भी करती है वा करना चाहती है, वहां कानूनी प्रक्रिया इतनी कठिन व लंबी है कि नाममात्र लड़कियां ही ये अधिकार प्राप्त कर पाती है। उपयुक्त तो ये होता कि कानून की अनुपालन की प्रक्रिया हेतु तेजी लाई जाती जबकि विधायी तौर पर इसके उलट महिला को बोझ बनाए जाने की प्रक्रिया में ही तेजी की योजना है।
पिछले दिनों ये खबर आई थी कि पति-पत्नी के बीच तलाक या अलगाव के दौरान दहेज की लिस्ट बनाना व उसे प्रमाणित करना मुश्किल होता है, अतः शादी के समय ही उसका पंजीकरण कर दी जाय। पंजीकरण इस लिहाज से अच्छा है कि दहेज की लिस्टिंग को लेकर जो कानूनी प्रक्रिया लंबी खिंचती है, वह अवधि कम हो जाएगी। लेकिन कानूनन दहेज को लेकर पंजीबद्ध संबंधी प्रयास यह बताता है कि दहेज जायज है व शादी में दहेज दी जानी चाहिए।
जब दहेज के लिए ये कहा जाता है कि दहेज देना व लेना दोनों अपराध है तो इस संबंध में क्यों पहल किया जा रहा है। दहेज से महिलाओं को कोई मजबूती नहीं मिलती, तलाक के समय बेशक इस दहेज की लिस्टिंग के आधार पर एक छोटे-बड़े अमांउंट पति के तरफ से मिल जाय लेकिन पति के साथ रहते हुए वह इसकी हिस्सेदार ना के बराबर होती है। दहेज के रूप में कैश, ज्वैलरी व कुछ दैनिक उपयोग के सामान दिए जाते हैं, कैश लड़की को नहीं लड़का को दिया जाता है और बाकी लड़की को दिए जाने वाले ज्वैलरी पर भी उसके पति व ससुराल वाले का ही हक होता है, बचा दैनिक उपयोग के सामान जिसका पूराना होने पर मूल्य नहीं के बराबर है।
ऐसे में उचित ये है कि पहल महिला के हक व मजबूती के लिए किया जाना चाहिए। वो इस तरह कि पैतृक संपŸिा में लड़की के लिए जो कानूनन हिस्सा तय किया गया है व शादी के समय या इससे पहले ही लड़की के नाम कर दिया जाय व इसका पंजीकरण कराना माता-पिता के द्वारा अनिवार्य कर  दिया जाय। ऐसा होने से दो फायदा होगा, दहेज का चक्कर खतम हो जाएगा, जैसे अभी लड़के की औकात उसके माता-पिता की संपŸिा से आंकी जाती है व इसीलिए उससे दहेज नहीं मांगा जाता बल्कि उसके संपŸिा व नौकरी के आधार पर ही लड़की के अभिभावक द्वारा दहेज ऑफर किए जाते हैं, जैसे ही लड़के के तरह ही लड़की संपŸिा की अधिकारी होगी, दहेज का तांडव बंद हो जाएगा, व इसी के साथ बंद हो जाएगी दहेज से होने वाली हिंसाएं व हत्याएं।
दूसरा बेटा को लेकर वंश परंपरा चली आ रही है जिसकी वजह से भी लड़की के साथ भेदभाव किया जाता है, कन्या भ्रूण हत्या जारी है व जो जिंदा भी है, उसे गुलाम बनाने की प्रक्रिया जारी है। लड़की को भी बराबर का अधिकारी बनाने से महिला संबंधी होने वाले कई अपराध जिसमें शिशु हत्या, भेदभाव, गुलामी व दहेज समस्याएं शामिल है, इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है। यह शंका कि पिता द्वारा लड़की के नाम संपŸिा दे दिए जाने के बाद भी क्या ये संभावना नहीं होगी कि फिर भी लड़के वाले दहेज मांगे। इसका यह जवाब हो सकता है कि जो भी लड़की के हिस्से में आता था, सब दे दिया, अब कोई और हिस्सा क्यों देगा। फिर शायद ही किसी ने सुना हो कि लड़की वाले ने लड़का से दहेज मांगा हो, इसकी यही वजह है कि लड़का का पैतृक संपŸिा में हिस्सा जो भी है उसे आधिकारिक रूप से उसके नाम है, नाम होना है, इसीलिए उनसे दहेज मांगी नहीं जाती, लड़की को भी आधिकारिक रूप से हिस्सा देने से लड़की भी पति व ससुराल वाले के कहने पर दहेज नहीं मांगेगी। अभी के परिस्थिति में लड़की को संपŸिा के बजाय दहेज दिए जाने से लड़का व ससुराल वालों को दहेजनुमा लालचीपना पिशाच होंठों पर लग जाता है जो कि जब-तब उभरकर सामने आता-रहता है। शादी के बाद शुरुआत में दहेज की मांग पर दहेज कम-ज्यादा मात्रा में प्रदान की जाती रहती है और यह पिशाच आगे ही बढ़ता जाता है, समय-समय पर इसकी पूर्ति नहीं किए जाने से यह या तो लड़की का जीना मुश्किल कर देता है या फिर कभी-कभी निगल भी लेता है।  संपŸिा में हिस्सा दिए जाने से ये परेशानी बच सकती हैं, फिर आर्थिक सŸाा प्राप्त कर महिला हीन भावना से भी ग्रस्त होने से बच सकती है व आर्थिक बल पर वह निर्णायक व मजबूत भूमिका परिवार व समाज में निभा सकती है। अर्थात मायके में भी महिला का घर होने से ससुराल में विकट परिस्थिति का अनुभव करने पर या वहां से निकाले जाने पर आत्महत्या करने या मरने-मारने का रास्ता चुनने के बजाय उसे अपना पहला घर मायका वापस आने का रास्ता भी रहेगा व उसके नाम से घर रहेगा तो उसका अधिकार भी रहेगा।
अभी के परिस्थिति में शादी के बाद लड़कियों को यही बताया जाता है कि अब मायका में तेरा कुछ भी नहीं, तू जो भी करना व जैसे भी रहना, ससुराल में रहना। मायका उसके पास विकल्प नहीं होता और ससुराल में भी पति के हिसाब से चलना होता है चाहे वह सही वा गलत हो उसका पालन करना उसकी जिम्मेदारी बनाम मजबूरी होती है। ऐसा ही ससुराल की संपŸिा पर भी लागू होता है, यहां भी पति के साथ रहते हुए भी उसका पति के संपŸिा में जो कि शादी के बाद भी अर्जित हो, हिस्सा नहीं होता। यद्यपि मनमोहन सिंह सरकार की कैबिनेट ने हिंदू विवाह कानून में संपŸिा संबंधी इस संशोधन को मंजूरी दी है कि तलाक के समय शादी के बाद अर्जित पति के नाम की संपŸिा में से कुछ हिस्सा पत्नी को मिलेगा। हिस्सा कितना प्रतिशत मिलेगा, ये तय नहीं है, इसे न्यायालय के ऊपर छोड़ दिया गया है। यह विधेयक विभिन्न गठबंधनों वाली कमजोर सरकार के तरह ही लचर दिखती है, व निर्णायक नहीं लगती है, इसकी एक वजह यह है कि संपŸिा में कितना हिस्सा मिलना चाहिए, यह तय नहीं है, जिससे तलाक संबंधी कानूनी प्रक्रिया के दौरान संपŸिा में हिस्से को लेकर विवाद बना रह सकता है। दूसरी ये उलझन है कि अगर लड़का शादी के बाद अपने माता-पिता के नाम से संपŸिा अर्जित करता है तो महिला को उसमें से हिस्सा मिलेगा कैसे और क्या सास-ससुर आसानी से उसे अपने नाम की संपŸिा में से हिस्सा देंगे। तीसरी यह कि वैवाहिक जीवन की सफलता पति-पत्नी दोनों के मिलने से बनती है, इसलिए गोवा के तरह विवाह के बाद से पति-पत्नी द्वारा अर्जित तमाम संपŸिा में दोनों का बराबर हिस्सा होना चाहिए।  ऐसे कई प्रश्न है जो इस संशोधन विधेयक पर पुनर्विचार के लिए बल देता है।
क्या यह प्रश्न विचारणीय नहीं है कि क्यों हमारी विधायी व कानूनी व्यवस्था महिला के दोनों घर मायका व ससुराल दोनों ही जगह आर्थिक सŸाा की लिहाज से पंगु बनाकर रखता है, या रखना चाहता है। मायके की संपŸिा में हिस्सा नियत किए जाने के बावजूद शादी के बाद लड़की को पारिवारिक रूप से इस अधिकार से वंचित किया जाता है और कानून में इस अधिकार को व्यावहारिक रूप से लागू करने की इच्छा नहीं है, जबकि दहेज को पंजीवद्ध की योजना है, अभिभावक ने लड़की को हिस्सा दिया कि नहीं, इस संबंध को लेकर कोई योजना नहीं है। बालविवाह अपराध है, समझते हुए भी जब अभिभावक द्वारा लड़की का बालविवाह कराया जाता है, तो उचित ये था कि इसकी सजा अभिभावक को दिया जाना चाहिए जबकि ये सजा नबालिग लड़की जो कि उस समय निर्णायक स्थिति में नहीं होती, उसे विभिन्न सरकारी नौकरियों की सुविधाओं से वंचित कराकर लड़की को आजीवन झेलने के लिए मजबूर की जाती है। इसी तरह ससुराल के वैवाहिक जीवन में भी महिला हीन, पंगु व गुलाम बनकर जीए, इसीलिए कानूनन उसे ससुराल की संपŸिा से भी वंचित रखने का प्रयास किया जाता है।
अतः जब तक महिला को भी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व कानूनी समर्थन हर वातावरण में अभिव्यक्ति व आजादी के साथ जीने के लिए नहीं मिलेगा, वह पुरुष की गुलाम बनी रहेगी। क्योंकि यह बातावरण ऐसा है जहां महिला को जीने के लिए पुरुषवादी सŸाा स्वीकार करके रहना व हरसंभव उसके हिसाब से जीने के तौर-तरीका सीखना जरूरी है, इसीलिए हो सकता है, वह अपनी पैदा हुई बेटियों व बहुओं को भी पुरुष गुलामी के तौर-तरीके सीखाए।
यद्यपि कई परिवारों में महिलाओं ने बेटा-बेटी में विभेद करना छोड़ दिया है व लड़के के तरह ही लड़की को भी उचित शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान कर रही है। जहां ये संभव नहीं है, वहां भी कई महिलाएं आगे बढ़कर लड़कियों की मदद करना चाहती है। इस संदर्भ में मेरी एक परिचित का कहना था कि उसके पति ने बेटा को तो निजी स्कूल में डाल दिया है और उसके टयूशन के लिए भी पैसा देते हैं लेकिन मेरी बेटी  सरकारी स्कूल में पढ़ती है और उसके टयूशन के लिए भी पैसे नहीं देते। मैं घर के खर्चों से पैसे बचाकर बेटी को टयूशन भेजती हूं ताकि उसे पढ़ाई में दिक्कत नहीं हो। ऐसी कई जागरूक महिलाएं अपनी बेटी, बहन या फिर सहेलियों की सार्वजनिक रूप से या छुप कर मदद करती है।
यद्यपि बाकी महिलाओं का भी पुरुषवादी व्यवहार इस बात का प्रतीक नहीं है कि नारी-नारी की दुश्मन होती है बल्कि इस बात का प्रतीक है कि पुरुषवादी सŸाा के अनुसार चलते-चलते वह पुरुष का मोहरा बन चुकी है, जिनका उद्देश्य पुरुषवादी सŸाा को फैलाना है। ऐसा करने के लिए या तो महिलाएं मजबूर है या फिर पुरुषवादी सŸाा के जुल्म का विरोध करने पर उसे इतनी व ऐसी निर्मम सजा मिल चुकी है कि अब उसमें सही बातों का भी समर्थन करने की हिम्मत नहीं है।
जब तक महिलाओं को जीने के लिए हर स्तर पर सकारात्मक वातावरण नहीं मिलेगा और उसे ये एहसास न होगा कि उसके सर पर भी बड़ों व अपनों का हाथ है, खाली हाथ नहीं बल्कि साधिकार है तब तक शायद महिलाओं को गुलाम बनाने की प्रथा चलती रहेगी और वह पुरुषवादी सŸाा की मोहरा बनती रहेगी, बात यही पर खतम नहीं है, शोषक पुरुषवादी समाज है जबकि दोष महिलाओं पर डाला जाए, सजा ये भी तो कम नहीं।

Thursday, 12 April 2012

प्रेमसंबंध और सशक्तिकरण -कुलीना कुमारी




प्रेम संबंध और सशक्तिकरण महिलाओं के संदर्भ में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इतिहास ही नहीं वर्तमान के भी कुछ प्रसंग हमें बताते हैं कि प्यार का रिश्ता मनुष्य के जीवन को किस तरह प्रभावित करता है, प्यार का सकारात्मक व स्वस्थ रिश्ता शारीरिक व मानसिक रूप से भी मजबूती की ओर ले जा सकता है। प्यार की इस क्षमता को पहचान कर व महसूस कर कितने ही लोग मुश्किल से मुश्किल कठिनाइयों को भी पार करने के लिए सहर्ष तैयार खड़े रहते हैं। ऐसे ही प्रेम में पड़कर जीवन साथी का चुनाव करना और इसके लिए परिवार व समाज से बगावत के लिए भी तैयार रहना वर्तमान संदर्भ के कई महŸवपूर्ण उदाहरण है।
संयोगवश वैलेंटाइन डे के बाद महिला दिवस आता है, अतः प्रेम और महिला सशक्तिकरण के बीच संबंध पर चर्चा प्रासंगिक है। सेंट वैलेंटाइन डे के इतिहास के संबंध में कैथोलिक चर्च ने एक से अधिक वैलेंटाइन की पहचान की है जिनके नाम वैलेंटाइन या वैलेंटिनस था। प्रथम संदर्भ के अंतर्गत सेंट वैलेंटाइन के योगदान को इस रूप में याद किया जाता है जब तीसरी शताब्दी के दौरान रोम के क्लैडियस द्वितीय शासन के समय ये घोषित किया गया कि अविवाहित सैनिक अच्छा योद्धा साबित होगा, इसीलिए उसे शादी की इजाजत नहीं होगी, सेंट वैलेंटाइन ने इस फैसलों को गलत समझा और सैनिक प्रेमी जोड़े को छुपकर शादी कराने लगा, जब क्लैडियस द्वितीय को इसकी जानकारी मिली, तो उसके आदेश से सेंट वैलेंटाइन को मार दिया गया।
वैलेंटाइन के संबंध में दूसरा संदर्भ ये है कि एक वेलेंटाइन ने रोम शासन के समय जेल में उत्पीड़न किया जा रहा कुछ क्रिश्चियन को बचाने में मदद की। इसी दौरान उसको जेलर की बेटी से प्यार हो गया, उसके प्यार में आकर उसने जेलर की बेटी को तुम्हारा वैलेंटाइन कहते हुए कई रोमांटिक पत्र लिखे व प्रेम से संबंधित कई गिफट भी भेजे जिसके लिए उसे मौत के घाट उतार दिया गया। वैलेंटाइन के प्रेम और इसकी वजह से हुए बलिदान को समाज ने बाद के वर्षों में स्वीकार किया और इसे बड़े पैमाने पर 15वीं शताब्दी के बाद से वैलेंटाइन डे के रूप में मनाया जा रहा है।
महिलाओं के द्वारा महिलाओं के लिए प्रेमसंबंध के अधिकार का प्रथम प्रयास साहित्य के माध्यम से 18वीं शताब्दी के अंत में मैरी वोल्फस्टोन क्राट के द्वारा किया गया। इन्होंने लेखनी के माध्यम से बंधनयुक्त विवाह का विरोध किया और उन्मुक्त प्रेम संबंध की वकालत की। 1788 में अपने उपन्यास मैरी: ए फिक्शन में उन्होंने महिला को बच्चा पैदा करने वाली मशीन मानने से भी इंकार किया। धीरे-धीरे जागरूकता आती गई। सन 1855 में मैरी गोव निकोलस ने उन्मुक्त प्रेम संबंध की वकालत की व विवाह संस्था का विरोध यह कहते हुए किया कि पत्नी ससुराल में पुरुष की संपŸिा के रूप में देखी जाती है व वह पूरी तरह पुरुष द्वारा नियंत्रित की जाती है जो कि गलत है।
सन 1857 में मिनरवा पुटनाम ने भी उन्मुक्त प्रेम संबंध की वकालत की और शिकायत किया कि इसके पक्ष में समाज खड़ा हो नहीं रहा। सन 1987 में एक प्रसिद्ध महिलावादी ग्लोरिया स्टेनम ने भी उन्मुक्त प्रेम संबंध की वकालत करते हुए कहा कि एक महिला को भी पुरुष की जरूरत होती है। उन्मुक्त प्रेम संबंध को सामाजिक परिवर्तन का वाहक भी बताया। सीमोन द बोआ हिंदी अनुवाद, ‘स्त्री उपेक्षिता’ की लेखिका है, उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से महिलाओं के प्रेम संबंध की खुली चर्चा की तथा इसे जीवन व्यवहार में भी अपनाया। इन तमाम महिलाओं का कार्य व्यवहार महिलाओं की सोच को और आगे बढ़ाने का प्रयास किया।
वर्तमान समय में लेखनी, कला व संगीत के माध्यम से कई जागरूक महिलाएं उन्मुक्त प्रेम संबंध की वकालत कर रही है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रेम संबंध को अभी सामाजिक स्वीकृत नहीं मिली है। एक अनुमानित आंकड़े के मुताबिक पश्चिमी देशों के 3000 प्रेम प्रसंगों की तुलना में हमारे यहां 1550 अर्थात करीब आधे प्रेम प्रसंग पाए जाते हैं। यद्यपि उच्चवर्गीय व पढ़े-लिखे कुछ परिवारों ने प्रेम संबंध को पिछले शतक से छिट-पुट तौर पर मंजूरी देना आरंभ कर दिया है। सूचिता कृपलानी, अरुणा आसफअली, इंदिरा गांधी, शीला दीक्षित, बसुंधरा राजे, पंडिता रमाबाई जैसे अनेकों उदाहरण स्थापित है। इन सबको देश में खासा सम्मान मिला हुआ है।
कानूनी तौर पर महिलाओं को प्रेम संबंध की मंजूरी ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के रूप में दी गई है जिसका बड़ा उदाहरण हिंदी सिनेमा उद्योग और दूरदर्शन कलाकारों के बीच देखा जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद 99 प्रतिशत महिलाएं अपने प्रेम संबंध को बयान नहीं कर पाती है जिसकी एक बड़ी वजह महिलाओं द्वारा यौन अपराध सहन करना व यौन संचारित रोगों से भी जूझना है। महिलाओं के बीच प्रेम संबंध की अभिव्यक्ति के अभाव में कुछ अन्य समस्याएं भी पाई जाती है। जिसमें महिलाओं का तनावग्रस्त रहना, गाली-गलौज बोलना व वैवाहिक संस्था में विश्वास का अभाव प्रमुख है। इसके बावजूद महिलाओं को अपनी स्वैच्छा से प्रेमसंबंध बनाने की आजादी सामाजिक व्यवहार में शामिल नहीं है। ऑनर किलिंग की घटनाएं इसके विद्रूप उदाहरणों में से एक है। हमारे समाज में पाए जाने वाले इसके अन्य विद्रूप उदाहरण में शामिल है, वैवाहिक पत्नी को अभी तक पुरुष की संपŸिा के रूप में देखा जाना व प्रेम संबंध बनाते वक्त स्त्री की आवश्यकता, तरीका व उसके आनंद के प्रति सजग नहीं होना।
महिला अधिकार अभियान द्वारा वैलेंटाइन डे के उपलक्ष्य पर प्रेम संबंध व संतुष्टि के विषय पर एक सर्वे किया गया जिसमें 50 से अधिक महिलाओं ने भागीदारी ली। 24 महिलाओं से पूछे गए प्रेम संतुष्टि के सवाल पर सीधा जवाब था सामाजिक तौर पर बच्चे जनने के अलावा कोई खुशी या आनंद भी प्रेम संबंध से मिलता है, यह वैवाहिक जीवन के दशकों पार करने के बाद भी नहीं पता चला। 13 महिलाओं ने यह शिकायत की कि प्रेम संबंध के दौरान शारीरिक अंतर्संबंध बनाने से पूर्व प्रेमातुर करने की प्रक्रिया नहीं अपनायी जाती, जिस कारण से प्रेम संबंध में प्रेम का अनुभव नहीं होता। 4 महिलाओं ने प्रेम संबंध और संतुष्टि के प्रसंग पर कहा कि हमने शुरूआत में जब प्रेमसंबंध को संतुष्टि में बदलने के लिए पहल की ताकि मुझे भी आनंद का अनुभव हो तो मेरे इस पहल को उन्होंने आवश्यक नहीं समझा, मुझ पर व्यंग्य किया व सार्वजनिक रूप से भी फब्तियां कसी, तब से प्रेम संतुष्टि पर मैंने सोचना छोड़ दिया और पति के संतुष्टि पर निर्भर हो गई। 2 महिलाओं ने कहा कि वैवाहिक जीवन से ही हमने प्रेम संबंध को संतुष्टि से जोड़ने व आनंददायक बनाने के लिए पति से पहल की और पति ने साथ निभाया । आठ महिलाओं का प्रेम संबंध और संतुष्टि के विषय में बताया कि किसी कारणवश विवाहेŸार संबंध होने पर संतुष्टि महसूस किया फिर वैवाहिक जीवन में उस अनुभव को लागू किया। अब मेरा वैवाहिक प्रेम संबंध संतुष्टि और आनंद का सम्मिश्रण है। इस संतुष्टि के कारण पति-पत्नी के बीच आस्था भी विकसित हुआ।
इस सर्वें के माध्यम से हमने पाया कि जिन युगल जोड़े का प्रेमसंबंध आनंददायक था, वे असंतुष्टों की तुलना में अधिक विश्वासपूर्ण व सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे।
अतः प्रेम का एक रूप वह ज्वाला है जिसके दायरे में कई परिवार आ सकते हैं वही प्रेम का दूसरा रूप वह शीतल कण है जो दुश्मन को भी दोस्त बना सकता है।
प्रेम के उन्मुक्त संबंध को लेकर भारतीय ऐतिहासिक दृष्टि से अंजनि एक महŸवपूर्ण नाम है। हनुमान की मां अंजनि ने अपने प्रेम को महिला अधिकार से जोड़कर दुनिया के सामने रखा और प्रेम संबंध से उत्पन्न बेटे को उन्होंने सिर्फ अपना नाम दिया। इनके प्रयास से प्रेम संबंध और महिला अधिकार की वास्तविक समझ सामने आई। ये उदाहरण वास्तव में महिलाओं की प्रेम की शुरुआती आजादी और अधिकार की अभिव्यक्ति का सवाल माना जा सकता है।  (जैसा कि ज्ञात है हनुमान अंजनि पुत्र के रूप में पहचाने जाते हैं। वैसे अंजनि पर अत्यधिक पुरूषवादी दबाव पड़ने पर उन्होंने हनुमान को पवन पुत्र कहा, जिसका मतलब होता है हवा अर्थात अदृश्य यानी कोई नहीं।) कुछ अन्य ऐतिहासिक महिलाएं जिन्होंने विवाह से पूर्व या फिर विवाहेŸार संबंध अपने प्रेम संतुष्टि के लिए बनाए उसमें रामायण के महिला पात्रों में कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा का नाम आता है। (रामायण के अनुसार जब दशरथ कमजोर पुरुष साबित हुए व वंश समापन की ओर था, उस स्थिति में पति के द्वारा ही पहल किए जाने पर श्रंृगी ऋषि को बुलाया गया व वंश वृद्धि के उद्देश्य से दशरथ की पत्नियों ने प्रेम संबंध बनाए। श्रृंगी के साथ प्रेम संबंध महिलाओं के लिए इतना आनंददायी था कि सभी बच्चे स्वस्थ पैदा हुए।)  
महाभारत के महिला पात्रों में जिन्होंने विवाहपूर्व या विवाहेŸार संबंध बनाए उसमें गंगा, सत्यवती, अंबा, अंबिके तथा कुंती का नाम प्रमुख है।
महाभारत में गंगा के बारे में कहा गया है कि उसने पति शांतनु द्वारा पैदा हुए बच्चे को पालना नहीं चाहती थी, इसीलिए गंगा उसे पानी में फेंक देती थी, आंठवे बच्चे के रूप में भीष्म बनाम देवव्रत इसीलिए जीवित बचे क्योंकि शांतनु ने उसे पानी में फेंकने का विरोध किया, इसीलिए गंगा पति शांतनु को देवव्रत को सौंप दी और खुद पानी में विलीन हो गई।
(इस तथ्य के बारे में एक तर्क ये हो सकता है कि गंगा शांतनु की प्रेमिका हो, पत्नी नहीं तभी समाज के लिहाज व डर से अपने प्रेमसंबंध से उत्पन्न बच्चे को वह नष्ट करती रही। ये तर्क इसलिए भी उचित दिखता है क्योंकि आज भी समाज मां के रूप को सबसे अधिक श्रेष्ठ मानता है, इसलिए क्योंकि अगर स्त्री को बच्चे पैदा करने व पालने का सामाजिक सम्मान मिले तो उसे किसी भी हाल में नष्ट नहीं कर सकती और उसके जीवन व विकास के लिए हर संभव प्रयास करती है, इतना जितना कि कोई पुरुष बनाम पिता नहीं कर पाता। कई ऐसी महिलाओं का उदाहरण भी सामने आया है कि जहां समाज उसे प्रेम संबंध से उत्पन्न बच्चे को पैदा करने की इजाजत नहीं दी, वहां भी कुछ महिलाओं ने बच्चे को पैदा किया है, अगर उसे पाल नहीं पायी तो उसे मारा भी नहीं, कुंती ऐसी ही एक मां है जिसने विवाह पूर्व कर्ण को जन्म दिया लेकिन उसे नहीं पालने की स्थिति में जीवित पानी में डाल दिया ताकि कोई और पाल लें। यहां गंगा के संदर्भ में यह जान पड़ता है कि सामाजिक डर से कई बच्चे नष्ट किए जाने के बाद जब उसे स्त्री के मातृत्व अधिकार का बोध हुआ तो उसने अपने बेटे देवव्रत को मारने से मना किया और सार्वजनिक रूप से अपने प्यार व बच्चे के सामाजिक अधिकार की मांग की। बात समाज के सामने आने पर शांतनु ने बेटे देवव्रत को अपने घर में तो रख लिया लेकिन उसे उŸाराधिकारी नहीं बनाया और गंगा को भी पत्नी का दर्जा नहीं दिया। महाभारत में गंगा की भूमिका के साथ बहुत अन्याय किया गया, उसे प्रेम में धोखा भी मिला, और चाहकर भी प्रेमी को पति के रूप में प्राप्त नहीं कर पायी, पिता के घर में रहने का उसके बच्चे को जगह तो मिला पर गंगा के बच्चे को पिता का बराबर का प्यार और अधिकार नहीं मिला। इतनी यांत्रणाएं झेलने के बावजूद इतिहास गंगा को बच्चे मारने वाली मां के रूप में याद करता है जो कि एक स्त्री के लिए बहुत ही दुखदायी और कष्टदायक है। गंगा ने शांतनु के साथ सच्चे मन से प्यार किया लेकिन शांतनु ने उसके प्रेम को अपमानित और कलंकित किया।
गंगा के साथ हुए अन्याय व प्रेमसंबंध के अपमान ने महाभारत को जन्म दिया, शांतनु ने गंगा के साथ प्रेम संबंध स्थापित करने के बावजूद उसे अपनाया नहीं लेकिन इसके बावजूद गंगा की प्रेम की सच्चाई ने उसे महाभारत की मजबूत स्तंभ भीष्म पितामह की जननी के रूप में अपनी उपस्थिति मजबूत की।
उपरोक्त तर्क इस सिद्धांत की वजह से भी मजबूती प्रदान करता है महाभारत में गंगा को नदी से जोड़ा गया है अर्थात पानी जो स्त्री का प्रतीक हैं परन्तु वास्तव में एक जीवस्त्री नहीं।  हो सकता है कि उस स्त्री का नाम गंगा ही हो और उसे नदी के भी नाम होने के कारण भ्रम पैदा किया गया हो।
यद्यपि शांतनु ने स्त्री सुख के लिए बेटे देवव्रत को शादी के अधिकार तक से वंचित किया, इसलिए देवव्रत का प्रत्यक्ष कोई वंश नहीं बना लेकिन महाभारत गंगा पुत्र देवव्रत से शुरू होकर भीष्म के मौत के साथ खतम हो गई।  
महाभारत की दूसरी पात्र सत्यवती ने शांतनु से विवाह से पूर्व पराशर से प्रेम संबंध बनाया जिसके फलस्वरूप वेदव्यास हुए, प्रेमसंबंध से उत्पन्न वेदव्यास को महाभारत के सभी पात्रों में सबसे ज्ञानी माना जाता है और इसके माध्यम से सत्यवती को मिला ज्ञानवान वेदव्यास की मां बनने का गौरव मिला।
शादी के बाद सत्यवती को शांतनु से दो बेटे हुए। दोनों बेटे शादी के बाद बिताए शादीशुदा जीवनकाल के दरम्यान अच्छे पुरुष नहीं साबित हो पाए और युवाकाल में ही निसंतान मर गये तब सत्यवती ने अपने दोनों बहुएं अंबा तथा अंबिका को अपने प्रथम पुत्र अर्थात प्रेमसंबंध से उत्पन्न वेदव्यास से बहुओं को संबंध स्थापित करने के लिए कहा ताकि वंश की वृ़ि़द्ध हो सकें जबकि आज की तारीख में भारतीय समाज की हिंदु संस्कृति में जेठ का स्पर्श भी नाजायज माना गया है। पारिवारिक इजाजत से अंबा तथा अंबिके द्वारा विवाहेŸार संबंध बनाए जाने के बाद पांडु व धृतराष्ठ पैदा हुए। महाभारत में कहा गया है कि व्यास के जंगली रूप को देखकर अंबा व अंबिका संबंध बनाते वक्त डरती रही अर्थात आनंद नहीं प्राप्त किया इसीलिए उन दोनों के ही बच्चें धृतराष्ट्र व पांडु विकृत बच्चे के रूप में पैदा हुए। ये भी हास्यास्पद ही है कि जिस व्यास को महाभारत में ज्ञानी माना जाता है, उसे स्त्री के प्रेम संतुष्टि की समझ नहीं थी।
महाभारत की एक प्रमुख पात्र कुंती ने भी विवाह से पूर्व व विवाह के बाद विवाहेŸार संबंध बनाए। कुंती द्वारा विवाहपूर्व प्रेमसंबंध की परिणति कर्ण है लेकिन कुंती ने उसे अपनाया नहीं। विवाह के बाद पांडु के कमजोर पुरुष साबित होने पर इन्होंने पति की इच्छा व सहमति से तीन अन्य पुरुषों से अपनी शारीरिक आवश्यकता, प्रेम संतुष्टि व वंशवृद्धि के लिए प्रेम संबंध स्थापित किया और युधिष्ठिर, भीम और अर्जून को जन्म दिया। पांडु की दूसरी पत्नी माद्री ने भी कुंती के पदचिन्हों का अनुशरण करते हुए दो अन्य पुरुषों से प्रेम संबंध स्थापित किया और दो बच्चे नकुल और सहदेव का जन्म दिया। कुंती ने अपने प्रेमसंबंधों के बदौलत ही समाज में एक मजबूत स्त्री और मां की भूमिका निभाई और इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से दर्ज करवा लिया। एक अन्य उदाहरण है शकुंतला का, उन्होंने प्रेम संबंध बनाया और उससे उत्पन्न बेटा भरत को सार्वजनिक रूप से स्वीकार की, बिना यह सोचे कि उसका पिता स्वीकार करेगा कि नहीं। शकुंतला ने भरत को ऐसे लालन-पालन किया ताकि मुश्किल घड़ी में भी वह सही तरीके जीवन जी सके। फिर हमारे देश भारत का नाम शकुंतला के प्रेम संबंध से उत्पन्न भरत के ऊपर पड़ा है। फिर हम भारतीय प्रेम को क्यों न पूजे ?
ऐसे कई उदाहरण आज भी प्रतीक बने हुए है महिलाओं के प्रेम की आजादी का और उसे समाज के सामने स्वीकृत करने की हिम्मत कर गर्व के साथ जीने का। इन महिलाओं में से कई को समाज में पूजा जाता है लेकिन आज के समाज व्यवहार में इन महिलाओं द्वारा स्थापित यौन शूचिता की समझदारी को वैध नहीं माना जा रहा है।
जबकि पुरुष के व्यक्तित्व विकास के लिए प्रेम संबंध हेतु सामाजिक परिस्थितियों में मौन स्वीकृति मिली हुई है, ऐसी स्वीकृति स्त्री को भी क्यों न मिलें। स्त्री भी पुरुष के समान है।
अतः स्त्री को भी अपनी पसंद, खुशी व प्रेम संबंध से प्राप्त संतुष्टि का सामाजिक अधिकार चाहिए। जब किसी पुरुष द्वारा प्रेम संबंध में नये वस्त्र धारण करने के बाद पूरानी वस्त्र का उपयोग खतम हो जाती है, फिर महिला के लिए प्रेम संबंध को महिला शूचिता से क्यों जोड़ा जाय। क्यों न इसे महिला की एक अन्य जरूरी आवश्यकता के रूप में देखा जाय जिसकी जरूरत पर उपलब्ध स्रोतों से उपयोग किए जाने पर बात वही पर खतम हो और महिला को सजा का हकदारिनी न घोषित किया जाय न ही दंडित किया जाय। जब तक महिलाओं को प्रेम संबंध व संतुष्टि प्राप्त करने की आजादी नहीं मिलेगी यह महिला सशक्तिकरण के सवाल को बार-बार कटघरे में खड़ा करता रहेगा।

महिला दिवस का औचित्य -कुलीना कुमारी





पुरुषवादी सŸाा और सामाजिक संबंध अब तक महिलाओं को अपने हिसाब व मरजी से जीने की इजाजत नहीं दी है। शायद इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दौरान जब महिला पर कार्यरत व्यक्ति, संगठन अथवा सरकार द्वारा महिला समाज को अधिक प्रोत्साहित किया जाता है तो वे इस उत्सव या कार्यक्रम में भाग लेने हेतु आ जाते हैं। या फिर ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रोत्साहन स्वरूप इस दौरान ऐसी लहरें पैदा होती है कि ये समाज अपने घर की स्त्रियों को इस उत्सव में भाग लेने हेतु जाने से मना कर सार्वजनिक रूप से अपने घर की स्त्रियों के दुश्मन नहीं कहलाना चाहते।
पूरे विश्व में 8 मार्च को या इसके आसपास के दिनों में विभिन्न संगठनों द्वारा महिला दिवस मनाया जाता है। इस दौरान कई प्रकार के कार्यक्रम या महिलाओं से संबंधित विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप होते हैं।
महिला दिवस मनाए जाने के औचित्य पर एक नजर डालें तो हमें पता चलता है कि सर्वप्रथम 8 मार्च 1857 को न्यूयार्क में कपड़ा मिल में काम करने वाली महिलाओं ने कार्यस्थल पर बेहतर स्थिति और बेहतर वेतन की मांग को लेकर संघर्ष शुरू किया था। 1908 में पुनः 15000 महिलाओं ने कुछ और मांगों के साथ वोट देने के अधिकार की भी मांग की थी। फिर पहले विश्वयुद्ध के दौरान इसी दिन 1913 में पूरे यूरोप की बहुसंख्य महिलाओं ने शांति मार्च किया था। इसके बाद  से 8 मार्च  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाना शुरु हुआ।
महिला दिवस हम महिलाओं के लिए इसलिए भी अच्छा है कि पूरे साल का एक दिन ही सही हमें अपनी मरजी से जीने की आजादी मिलती है। शायद यह एक दिन ही ऐसा होता है जिसमें पुरुष सदस्य हमारे साथ नहीं होते और इसलिए हमारे तेज, धीरे, या अलग प्रकार के चलने, देखने, सोचने या बोलने पर डांट नहीं मिलती।
यह दिवस हमें अपने बारे में सोचने-विचारने या मूल्यांकन करने का अवसर प्रदान करता है। इसके साथ ही यह अपने अलावा अन्य महŸवपूर्ण महिलाओं की उपलब्धियों की तरफ देखने का तथा जिन क्षेत्रों में महिलाओं की हालत ठीक नहीं है या अपने प्राकृतिक गुणों के कारण वह पुरुष के बराबर सफलता अर्जित नहीं कर पा रही है, उन मुद्दों पर भी यह पुनर्विचार का समय है।
अगर हम अपने देश की ही कुछ उपलब्धियों की गणना करें तो हम पाते हैं कि शिक्षण में महिलाओं का अच्छा प्रतिनिधित्व है, बैंकिंग सेक्टर में भी महिलाओं की पकड़ है। डॉक्टरी पेशा में भी महिलाओं की अच्छी संख्या है। महिला व्यापारिक क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है, ये अलग बात है कि अभी इनकी संख्या कम है। खेल में भी महिलाओं ने अच्छा प्रदर्शन कर देश का नाम रौशन किया है। नृत्य व संगीत में तो महिलाओं की पकड़ सदियों से है। सिनेमा तथा नाटक में भी महिलाएं अच्छा प्रदर्शन कर रही है। वैसे सामाजिक कार्यकर्Ÿाा के रूप में आज कई महिलाएं अपना पहचान बना चुकी है। वही लेखन के क्षेत्र में अच्छी-खासी महिलाओं की संख्या है। राजनीति में भी महिलाएं अपनी पकड़ बना रही है। पंचायती राज व्यवस्था ने इस क्षेत्र में उभरने का अधिक अवसर प्रदान किया है।
कुछ क्षेत्र जैसे विज्ञान और इंजीनियरिंग में महिलाओं का प्रवेश तो हो चुका है लेकिन अभी इन्हें अपना स्थान बनाना बाकी है। इसके अलावा भी कई ऐसी जगह है जहां महिलाएं खुल के आगे नहीं आयी है।
  अतः हमें लगता है कि नेतृत्व के बड़े स्तर पर बतौर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को स्थान मिला है तो दो मुख्य राज्य जैसे उŸार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती तथा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने-अपने राज्य के प्रधान है। इसके बाद 34 यूनियन कैबिनेट मंत्रियों की सूची में तीन महिलाएं अर्थात् रेल मंत्री ममता बनर्जी, सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी, आवास एवं शहरी उपशमन मंत्री कुमारी शैलजा को स्थान मिला है।
वही स्वतंत्र प्रभार सहित 44 राज्यमंत्रियों की सूची में सिर्फ 5 महिला राज्यमंत्री है जिनके नाम है कृष्णा तीरथ (महिला एवं बाल विकास), डी. पूरंदेश्वरी (मानव संसाधन विभाग), पनबाका लक्ष्मी (वस्त्र), परणीत कौर(विदेश मंत्रालय), अगाथा संगमा (ग्रामीण विकास)। अर्थात् मंत्रीमंडल में बतौर महिला करीब 10 प्रतिशत को मंत्री बनाया गया है। जबकि सच ये है कि सŸाारूढ दल ने सन् 2004 में सŸाा संभालते ही महिला आरक्षण पर संसद से सड़क तक चिल्लाती रही व खुद अपने मंत्रिमंडल में 33 प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया हैं।
लेकिन हम महिलाओं के लिए ये शुभ संकेत है कि हमारे देश की राजधानी की महिला मुख्यमंत्री ने सात सदस्यी मंत्रीमंडल में मुख्यमंत्री सहित दो महिलाएं है जिसे 30 प्रतिशत के करीब आरक्षण माना जा सकता है वही उŸार प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री के सरकार में 52 सदस्यी मंत्रीमंडल है जिसमें सिर्फ दो महिलाएं है जिसे 4 प्रतिशत से भी कम आंका जा सकता है।
कुलमिलाकर हम ये कहना चाहते है कि जिस राजनीतिक परिदृश्य की एक महिला सोनिया गांधी प्रधान है, वहां भी उन्होंने 10 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को विभाग विशेष में नेतृत्व करने की क्षमता नहीं प्रदान की है, साथ ही मायावती ने अपने राज में भी सिर्फ 4 प्रतिशत महिलाओं को ही क्षेत्र विशेष में नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता प्रदान की है। यद्यपि हमारे देश की राजधानी की महिला मुख्यमंत्री को खुद के महिला होने का व महिलाओं के प्रति जिम्मेवारी का अधिक एहसास नजर आया है जिसके फलस्वरूप दिल्ली में महिलाओं का प्रतिनिधित्व व स्थिति में कुछ सुधार नजर आ रहा है।
बात चाहे दिल्ली मेट्रों में महिलाओं के लिए अलग बॉगी बनाने की हो, महिला पुलिस थाने को लेकर योजना हो, बस में महिला कर्मचारी की नियुक्ति की शुरुआत हो, ये सब चीजें हम महिलाओं की विकास के मद्देनजर सराहनीय है।
कहने का तात्पर्य हमारा यह भी है कि कुछ क्षेत्र विशेष में सिर्फ गिने-चुने महिलाओं के आ जाने से हमें संतोष नहीं कर लेना चाहिए। हमारा उद्देश्य तो यह होना चाहिए कि पंचायती राज के तरह हमें अन्य क्षेत्रों में भी 50 प्रतिशत की भागीदारी मिले। साथ ही सोनिया गांधी या मायावती जैसी सशक्त महिला की ही जयजयकार की हमारी मंशा नहीं होनी चाहिए। अगर इनके सशक्त होने के बाद भी महिला प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ा है, वर्षो से लटका आरक्षण बिल पास नहीं हो पाया है तो इसे हम उनकी अनिच्छा माने या फिर किसी प्रकार का डर, इस पर भी विचार किए जाने की जरूरत हमें महसूस हो रही है।
शायद विशेष कुछ कारणों के कारण ही सŸाासीन प्रधान महिला होने के बावजूद उनके राज्य या प्रदेश में भी महिलाओं के साथ होने वाला अपराध में कमी होती नजर नहीं आ रही है।
बात चाहे कन्या भ्रूण हत्या की हो या दहेज और घरेलू हिंसा जैसी समस्याओं का, ये सभी अभी तक कायम है।
इसलिए अगर हम पुनः महिला उत्सव बनाम महिला दिवस के मनाने पर विचार करें तो उचित हमें यही लगता है कि अगर हम बहुत जल्दी समाज, राज्य अथवा देश की राजनीति नहीं बदल सकती तो कम से कम हम अपने परिवार में स्वयं के साथ अथवा परिवार के किसी भी महिला सदस्य के साथ होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने का कसम लें।
आज हम महिला को पुरुष के खिलाफ ही लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं है बल्कि उसके अपने मन में ही छिपे अपने प्रति हीनता से भी लड़ने की जरूरत है। महिलाआंे को जरूरत है उस कुविचार को भी दूर भगाने की जो अपनी बहन, बेटी या फिर बहु को दोयम दर्जे की प्राणी मानता है और उसके साथ पुरुषवादी सŸाा के स्वरूप हिंसा करने से परहेज नहीं करती।
हम महिला इस महिला दिवस पर ये कसम खाएं कि अपने परिवार में अपनी बेटी को बेटे के बराबर ही प्यार, सुरक्षा व अधिकार प्रदान करेंगे। उसे भी वह शिक्षा प्रदान करेंगे जिससे वह मानसिक-शारीरिक दोनों स्तर पर सक्षम हो व विशेष परिस्थिति में वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। इसके अलावा हम अपनी बच्ची को इस लायक भी बनाए जिससे वह अपना भार भी खुद वहन करने के लायक बन सके ताकि सुविधाओं की शर्त पर पति की जुल्म सहने को वह मजबूर न हो।
मुझे लगता है कि अगर हम सभी महिला सिर्फ अपनी-अपनी जिम्मेदारी संभाल लें तो पुरुषवादी सŸाा को बदलने में देर न लगेगी। और बहुत जल्दी परिवार से समाज व दूर-दूर तक इसकी आवाजें पहुंचेगी और जागृति की ये लहर राजनीतिक सŸाा में भी हलचल जरूर पैदा करेगी। और देर बेशक हो, हमें सामाजिक व राजनीतिक अधिकार भी जरूर मिलेगा।

रामायण में राम, रावण और महिला अधिकार से जुड़े कुछ सवाल -कुलीना कुमारी




कुछ दिनों से यह एक चर्चा का विषय बना हुआ है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक के इतिहास विषयक पाठयक्रम से ए. के रामानुज द्वारा लिखे गए लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायंस, फाइव एक्जांपल्स एंड थ्री थॉटस ऑन ट्रांसलेशन’ को हटाया जाना उचित था कि नहीं। इस लेख के माध्यम से रामानुज ने रामायन के संबंध में बताया है कि  भिन्न-भिन्न भाषी लोगांे के पास भिन्न-भिन्न कहानियां है जिसमें राम और सीता भी अलग-अलग तरह के है। इन बातों को रखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ ये कहना नहीं है कि इन्हें पाठयक्रम से हटाना अनुचित था, अनुचित इसलिए क्योंकि जब भारत विविधता वाला देश है तो विभिन्न संस्क्रतियों में बताई जाने वाली इस राम और सीता की कहानी को विद्यार्थियों की जानकारी के लिए पढ़ाई जानी चाहिए थी।
मुझे उपरोक्त बातों को बताने का दूसरा व सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि जब अभी राम को लेकर बहस चल ही रही है तो रामायण की आधार सीता और कुछ अन्य महिलाओं की चर्चा कर ली जाय। बात आगे बढ़ाने से पहले एक इस प्रश्न पर भी विचार करना मुझे अनुचित नहीं लगता कि रामायण में सीता के साथ-साथ कई स्त्रियों के संघर्ष की कहानी है, अतः इसे रामकथा के बजाय स्त्री कथा के रूप में चिंहित किया जाता तो अधिक उचित होता। वैसे भी राम की महानता सीता से विवाह के बाद शुरू होती है और सीता के गुजरते ही खतम क्योंकि शायद ये कम लोगों को पता होगा कि सीता के मरने के बाद राम को सरजू नदी में डूबकर आत्महत्या करनी पड़ी थी।
अब अगर शुरुआत से रामायण के कुछ ऐसी स्त्री पात्रों पर नजर दौड़ायी जाय जिन्होंने महिला अधिकार के लिए आवाज उठायी है और जो तत्कालीन समाज में क्रांतिकारी आवाज थी, उनमें कैकेयी, शुर्पनखा तथा सीता प्रमुख है।
रामायणों में एक तरफ कैकेयी को एक विरांगना महिला के रूप में गिना जाता है क्योंकि उन्होंने एक बार यु़द्धस्थल में दशरथ के रथ की एक पहिया के कील निकल जाने पर उसके जगह अपनी ऊंगली डाल दी थी, वही दूसरी तरफ आस्था के हिसाब से कैकेयी को रामायण की खलनायिका के रूप में याद किया जाता है क्योंकि राम के वनवास का कारण उन्हें माना जाता है।
जबकि सच्चाई यह है कि राम के वनवास की वजह स्वयं दशरथ है कैकेयी नहीं क्योंकि दशरथ की कई शादियों के लिए कैकेयी दोषी नहीं थी।
वैसे भी किसी भी मां के लिए अपने बच्चों को राजगद्दी पर बिठाये जाने के लिए प्रयास करना अथवा उसके पिता के अधिकार का उसे वारिस बनाना अनुचित नहीं बल्कि उसका खुद के बच्चों के प्रति उसका प्यार हैं, कर्Ÿाव्य है और यही प्यार और कोशिश मां को और महान बनाता है।
इतना ही नहीं कैकेयी को राम के वनवास के साथ-साथ दशरथ के मौत का कारण भी माना जाता है जो कि गलत है क्योंकि अगर दशरथ के मौत का कारण किसी को माना जा सकता है तो वह स्वयं राम है। यह इसलिए कि जब राम को वनवास के दौरान पिता की बीमार होने की बात पता भी चली तो भी वे पिता से मिलने नहीं आये और कथा के अनुसार दशरथ राम के वियोग को बर्दाश्त न कर सकें व गुजर गये। (ये कैसा न्याय और दुविधा है कि जो राम किसी तीसरे के कहने पर पत्नी की पवित्रता के जांच के बाद भी अपनी पत्नी को घर से भगा सकता है वही व्यक्ति पिता के साथ-साथ अन्य गांव के लोगों के आग्रह पर भी बिमार पिता से मिलने नहीं जाता है, शायद इसलिए कि उसके पिता ने उसके छोटे भाई को राजगद्दी दे दिया था जो कि उसे बर्दाश्त नहीं था।)
अब बात करते हैं रामायण की दूसरी पात्र शुर्पनखा की जिसकी राम के संरक्षण में लक्ष्मण द्वारा नाक काटी गई थी अर्थात लक्ष्मण द्वारा शुर्पनखा का बलात्कार हुआ था लेकिन अफसोस की बात यह है कि इसके बावजूद लोग राम का गुणगान करते नहीं थकते कि क्योंकि महिलाओं का इज्जत लूटना अभी तक पुरुषों के लिए शान की बात रहती रही है, और उल्टे शुर्पनखा का नाक कटने के बाद भी इस क्रिया के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। मुझे तो लगता है शुर्पनखा ने अगर अपनी बेइज्जती का बदला लेने की नहीं ठानी होती और स्त्री समर्थक रावण अपनी बहन के पक्ष से लड़ने के लिए नहीं खड़ा हुआ होता तो शायद राम के जानकारी में लक्ष्मण द्वारा लड़कियों के शरीर से खेलने, व लड़की की नाक कटने की बात भी कथा में नहीं आती।
मुझे तो राम नहीं रावण अधिक स्त्रीवादी और मानवतावादी लगता है, वह इसलिए कि उसने अपनी बहन के बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए तथा अपने परिवार के सम्मान के लिए (जिसमें एक स्त्री अर्थात उसकी बहन भी शामिल थी) किसी से दुश्मनी मोल लेना उचित समझा चाहे इसके लिए वह स्वयं, उसका राजपाट व सबकुछ ही क्यों न मिट गया हो। वह राम से इसलिए भी महान है कि राम ने तो अपनी उस पत्नी के साथ भी न्याय नहीं किया जो उसके वनवास के दौरान भी उसके साथ रही, उसकी अग्नि परीक्षा भी ली इसके बाद भी किसी तीसरे के कहने पर राम ने सीता को निकाल दिया और खुद राजपाट में मगन रहे। जबकि रावण अपनी बहन की बेइज्जती के कारण मुॅह छुपाकर राजपाट में मगन नहीं हुआ, बल्कि अपराधी राम और लक्ष्मण से बदला लेने के लिए अपने विशाल सम्राज्य के साथ-साथ खुद को भी दांव पर लगा दिया। वैसे भी जीवन वही सार्थक है जो हमें सर उठाकर जीने की प्रेरणा दें, वह जीवन किस काम का जो हमें प्रायश्चित की आग में जलने पर मजबूर करे और अंततः आत्महत्या जिसकी परिणति हो। यहां मेरे हिसाब से राम से रावण इसलिए अधिक महान है क्योंकि वह जब तक जिया, सर उठाकर जिया जबकि राम प्रायश्चित की आग में ही जीते रहे। कभी पिता के मौत का कारण बनकर, कभी पत्नी को सीमारेखा में बांधने की कोशिश करने के साथ-साथ उसकी पवित्रता की जांच कर इसके बावजूद भी मन नहीं भरा तो उसे घर से बेदखल कर।
अंत में सीता के संदर्भ में कुछ और बातें रखना चाहूंगी। राम ने सीता के लिए लक्ष्मण रेखा बनायी थी उस वन में भी जहां उसके पति से बड़े सास या बुजूर्ग नहीं थे, सीता ने उस लक्ष्मण रेखा से ऊब कर अथवा उस वंदिशों से बाहर निकली और रावण द्वारा हरण कर लंका में लायी गई। (मुझे यहां भी राम से बड़ा रावण लगता है क्योंकि कथा के अनुसार रावण लंका में भी सीता से अपने प्यार का इजहार किया, वह जरूर अपने प्यार की स्वीक्रीत के लिए सीता से अनुरोध किया, लेकिन उसकी इज्जत नहीं लूटी, जबकि वन जैसे सार्वजनिक स्थान में भी राम की जानकारी में लक्ष्मण ने शुर्पनखा की इज्जत लूटी थी। यद्यपि मैं इसके पक्ष में नहीं हूं कि किसी द्वारा किए गए स्त्री अपमान के बदले दूसरे द्वारा किसी अन्य स्त्री का अपमान किया जाय या बदला लिया जाय।) कथानुसार राम द्वारा सीता को लंका से निकालने के लिए रावण पर विजय पाया गया लेकिन सीता को स्वीक्रीत के लिए पवित्रता की जांच देनी पड़ी। यहां राम द्वारा सीता के प्रति किया जाने वाला व्यवहार से लगता है कि राम ने सीता को लंका से निकालने के लिए रावण को नहीं मारा बल्कि रावण को मारना उनकी मंशा थी, सीता तो इस कार्य में एक साधन मात्र थी। राम ने तो रावण को  इसलिए मारा क्योंकि उनके हिसाब से स्त्री का बलात्कार करना राम और उनके भाई लक्ष्मण के हिसाब से पुरुष का अधिकार था जिसका विरोध ज्ञानवान रावण ने किया था, इसीलिए वह राम का लक्ष्य बना और मारा गया। अगर सचमुच राम सीता को वहां से बचाने के लिए रावण को मारे होते तो वह सीता की पवित्रता की जांच के लिए उन्हें मजबूर नहीं करते।
सीता के कष्ट पुनः तब शुरू होते हैं जब राम के आयोध्या वापस आने के बाद किसी तीसरे व्यक्ति के कहने पर राम सीता को लक्ष्मण के सहयोग से जंगल में अकेला छोड़ कर आ जाते हैं। यहां गर्भवती सीता दो बच्चें को जन्म देती है और कई वर्ष बच्चों के साथ जंगल में ही निवास करती है।
राम को सीता की तब सुध होती है जब अश्वमेघ यज्ञ के दौरान उन्हें पता चलता है कि लक्षमण और हनुमान सहित कई वीर सेनापतियों को दो बच्चों ने परास्त कर दिया है और अब परास्त होने की स्वयं राम की बारी थी। यहां भी राम सीता के लिए नहीं बल्कि महान वीर अपने दो बच्चों को अपनाने के लिए सीता से मुखातिब हुए क्योंकि उन्हें अश्वमेघ यज्ञ को जीतना जो था।  पुरुषवादी सŸाा के बीच यहां भी सीता की जीत नहीं हुई। राम द्वारा सीता के बच्चे ले लिए जाने के बाद सीता जीवित न रह सकी। (वैसे सार्वजनिक रूप से सिर्फ सीता के पास ही धरती फटने की बात अतिशियोक्ति लगती है, या तो सीता केे बच्चे छीन लिए जाने पर सीता द्वारा विरोध किया गया हो जिसके फलस्वरूप सीता को सार्वजनिक रूप से जमीन में गाड़ दिया गया हो या फिर अपने बच्चों के वियोग में सीता खुद ही मर गई हो।)
कुलमिलाकर रामायण एक ऐसी महŸवपूर्ण गं्रथ है जिसमें सीता, कैकेयी व शुर्पनखा के अलावा भी कई स्त्रियों की संघर्ष और अधिकार की कहानी है जिसको गंभीरता से अध्ययन करने की जरूरत है। हमें न तो रावण से अनुराग है और ना ही राम से वैर। हम तो चाहते हैं कि इतिहास में हो या वर्तमान में जिस स्त्री ने भी संघर्ष कर अपनी एक पहचान बनाने की कोशिश की हो या फिर स्त्री अधिकार का प्रश्न उठाकर अथवा उसकी प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ा है, वे हम महिलाओं के लिए प्रेरणा के स्रोत है और वह पुरुष भी जो हम महिलाओं की लड़ाई में योगदान दिया है, वे हमारे लिए सराहनीय है चाहे वह रावण ही कोई न हो। एक यह प्रकरण भी रावण और उसके  तत्कालीन राज्य लंका की स्त्रीवादी समर्थन को मजबूत बनाता है कि आधुनिक इतिहास में भी पूरी दुनिया में पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीलंका से ही सीरीमाओ भंडार नायके हुई है।
मुझे तो आश्चर्य होता है कि लोग राम राज्य की कल्पना क्यों करते हैं, क्यांेकि राम न तो अच्छे पुत्र बन सके न पति  और न ही पिता न ही अच्छा राजा। अच्छे पुत्र इसीलिए नहीं बन सके क्योंकि बीमार पिता से मिलने नहीं गये जिस कारण उनके पिता दशरथ की मौत हो गई।
राम अच्छे पति इसलिए नहीं बन सकें क्योंकि जिस सीता ने वनवास अर्थात पति के विपŸिा के समय भी राम का साथ न छोड़ी, उस पत्नी को राम राजगद्दी मिलते ही छोड़ दिया। वे अच्छे पिता भी इसलिए भी नहीं बन सके क्योंकि खुद अमीरी में वे जीते रहे, और अपने बच्चों को दुखों के साथ जंगल में जीने पर मजबूर किया। रामराज्य में जब स्वयं राम द्वारा पिता की स्वास्थ्य की अनदेखी, पत्नी और बच्चे के प्रति कर्Ÿाव्यहीनता और राम के समक्ष ही किसी अन्य स्त्री शुर्पनखा के नाक काटने अथवा उसकी इज्जत लूटने वा शारीरिक आघात पहुंचाने जैसी घटनाएं होती है तो यह रामराज्य वाला सोच कैसे आदर्श हो सकता है। ना ही अच्छे राजा के रूप में भी कोई ऐसा निर्णय नहीं दिखाई देता जिसे इतिहास में कोट किया जाय। वैसे भी जो  व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चे, घर तथा परिवार के प्रति जिम्मेवार नहीं हो सकता वह अच्छा राजा कैसे बन सकता है? राजा के रूप में सरजू नदी में डूबकर आत्महत्या करने का फैसला क्या रामराज्य का उदाहरण हो सकता है।
आखिर में मुझे यही लगता है कि हम आने वाली पीढ़ी को तर्कयुक्त होकर कर्Ÿाव्यपथ पर अग्रसर होना सिखाये न कि अंधी आस्था में पड़कर किसी को पूजने की परंपरात्मक और घातक जीने के दौड़ में शामिल होना।

गणतंत्र दिवस और महिलाएं -कुलीना कुमारी


हमारे भारत देश को गणतंत्र घोषित हुए 61 वर्ष पूरे हो चुके हैं और इसी के साथ पूरे हो चुके हैं हमारे संविधान के लागू होने के भी। हम महिलाएं शुक्रगुजार है हमारे संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेदकर के जिन्होंने संविधान में महिलाओं को बराबरी देने की कोशिश की। उन्होंने इसके माध्यम से बताया कि महिलाएं भी पुरूषों के तरह समान है और उसे भी समाज में समानता के साथ जीने का पूरा अधिकार है।
संविधान लागू होने के बाद से अब तक  महिलाओं ने कई दौर का सामना किया। संविधान में लिखित समानता के अधिकार वास्तविक रूप से प्राप्त करने हेतु महिलाओं में एक जोश सा भरा व इसके लिए उन्होंने कई प्रकार की कोशिश की। फलस्वरूप इस दौरान कई प्रकार के सामाजिक परिवर्तन हुए। जिसमें महŸवपूर्ण भूमिका कुछ जागरूक महिलाओं व महिलासेवी संस्थाओं द्वारा महिलाओं की स्थापना व पदप्रतिष्ठा प्राप्त करने हेतु किया जा रहा हैं, इसमें पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन प्रमुख है।
महिलासेवी संस्थाओं में जागोरी, सी.एस.आर., एक्शन इंडिया व सेवा जैसी संस्थाओं का योगदान सराहनीय हैं।
इसी का परिणाम है कि आज महिलाएं छोटे-बड़े विभिन्न स्तरों पर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत है। ये अलग बात है कि इनकी संख्या गिनती के है और शायद ये अन्य तमाम महिलाओं के लिए उदाहरण मात्र या शुरुआत भर है।
फिर भी मुझे लगता है कि 60 साल पहले तक अगर महिलाओं के जान लेने की कोशिश के समय भी वे चिल्लाती नहीं थी और आज अगर हम किसी के द्वारा पीटे जाते है तो पड़ोसियांे को भनक लग जाती है तो इतना बड़ा अंतर भी हम महिलाओं के लिए सफलता का कम सूचक नहीं है।
लेकिन हम महिलाओं को इसी से संतोष नहीं कर लेना चाहिए। बराबरी का तात्पर्य है भला करने वालों को मान देना लेकिन बुरा करने वालों को मुॅंहतोड़ जवाब देना। इक्का-दुक्का को छोड़कर अभी तक हम महिलाओं ने बुराई करने वालों का मुॅंहतोड़ जवाब देना नहीं सीखा है। अब इस दिशा में हम महिलाओं को कदम आगे बढ़ाना है और इसके लिए महिला समर्थक पुरुष के अलावा स्वयं महिलाओं में एका होना आवश्यक है।
क्यों और क्या कारण है कि आज भी लड़कियों को भ्रूण में मार दी जाती है?
लड़कियां जो दुनिया में आती भी है उन्हें क्यों जन्म के बाद से ही अनेक प्रकार के भेद-भाव का सामना करना शुरू हो जाता है?
क्यों अभिभावक द्वारा शादी के नाम पर बेटी के ससुराल वालों को तो दहेज दिया जाता है, लेकिन बेटी को संपŸिा का अधिकार नहीं दिया जाता।
क्यों आज भी लड़कों द्वारा ससुराल वालों को परेशान करना शान समझा जाता है और लड़कियों का ससुराल में परेशान होना कर्त्तव्य में शामिल।
क्यों आज भी बेटे पिता को देखकर गलत करना सीखते हैं और बेटी पिता के डर से अपने हक का न्यूनतम इस्तेमाल भी नहीं कर पाती।
लड़का-लड़की के बीच ये तमाम फर्क जो अभी तक किए जा रहे हैं, हमें इन दूरी को मिटाना है।
वैसे गणतंत्रता के 61वर्षों में लड़का-लड़की के बीच इस दूरी को कम करने हेतु कई कानूनी प्रयास किए गए हैं जिसमें जन्म पूर्व लिंग की जांच,  दहेज, बाल विवाह, सती प्रथा तथा घरेलू हिंसा को दंडनीय अपराध मानना शामिल है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की मजबूती के लिए एक पुरुष का सिर्फ एक स्त्री से विवाह को जायज बनाना या बिना तलाक लिए दूसरी स्त्री से विवाह को सही नहीं ठहराना भी कानून में शामिल किए गए। वही महिलाएं अपनी स्वैच्छा व आजादी के साथ सुरक्षा पूर्वक जी सके, इसके लिए पुरुषों द्वारा किए गए छेड़छाड़ व यौन शोषण को बड़ा अपराध घोषित कर  इसके लिए सख्त से सख्त सजा का प्रावधान भी बनाया गया।
इसके अलावा महिलाओं के राजनीतिक व सामाजिक सशक्तिकरण हेतु पंचायत स्तर पर मिलने वाला पचास प्रतिशत तक आरक्षण भी प्रमुख है। वैसे लोकसभा व राज्यसभा के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के विधान सभा व विधान परिषद में भी महिलाओं को आरक्षण मिले, इसके लिए अभी तक बहस जारी है।
सवाल यहां है कि इतने सारे प्रयास किए जाने कि बाद भी क्यों महिलाएं अभी भी मजबूत नहीं है या इन्हें अभी भी इतनी सारी क्यों समस्याएं है? इसका कारण या तो महिलाओं में अभी तक पूरी तरह जागरूकता नहीं आयी है, उन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है या फिर महिलाओं के लिए लिखित कानून तो बन गया है लेकिन परिवार व समाज में इसे व्यावहारिक रूप से लागू नहीं किया गया है।
असलियत महिला कानून का व्यावहारिक रूप से प्रयोग नहीं किया जाना ही लगता है क्योंकि किसी भी बच्चे के लिए माता-पिता ही आदर्श होते हैं और विशेषकर बच्चियां अभिभावक को प्रसन्न रखना अधिक उचित समझती है। जब लड़की का परिवार में ही जन्म व जन्म के बाद से विभेद शुरू हो जाता है तो बड़े होने पर अगर उसके प्रति कुछ गलत हो जाता है तो शायद वे इसे गलत नहीं समझती या फिर अपने प्रति होने वाले जुल्म को चुपचाप सहने की आदत के कारण प्रतिकार नहीं कर पाती। या फिर अभिभावक द्वारा उसका ऐसा विकास ही नहीं किया जाता कि किसी जुल्मी से वह अपना बचाव कर सकें या उसे मुॅहतोड़ जवाब दे सकें।
अतः लड़कियों को माता-पिता द्वारा दिए गए कमजोर संस्कार उसके मजबूती के राह में अभी भी रोड़े बने हुए हैं जिसके बल से अभी भी पुरुषवादी व्यवस्था फल-फूल रही है। इस बल को अधिक मजबूती प्रदान कर रहा है पुरुषवादी समाज और इस व्यवस्था में पले हमारे न्याय के प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले जज। एक तरफ महिलाओं के साथ होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा अपराध घोषित किया गया है तो दूसरी तरफ इसके काट भी जारी है। अधिकतर दूसरों पर निर्भर रहने वाली महिलाएं कानूनी दांव-पेंच समझती नहीं, इसलिए अपने बचाव हेतु इसके चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहती, अगर पड़ भी जाय तो जीत मिलना आसान नहीं, इसलिए धड़ल्ले से महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा व दहेज उत्पीड़न जारी है।
और तो और कानून में ही एक तरफ सिर्फ एक पति-पत्नी का साथ जायज बनाया तो दूसरी तरफ पुरुषों द्वारा अनेक पत्नी बनाम कई स्त्रियों का सुख प्राप्त होता रहे, उसकी सुविधाओं हेतु ‘लीव इन रिलेशनसिप’ के नाम से अन्य कानून बना दी गई। इसी ‘लिव इन रिलेशनसिप’ का हवाला देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा दिए एक फैसले में पत्नी के साथ प्रेमिका बनाम दूसरी स्त्री को साथ रखना जायज बना दिया।
कहने का तात्पर्य है कि अगर ‘लिव इन रिलेशनशिप’ महिला के हित में भी होता तो अब तक कोई ऐसा मामला क्यों नहीं आया जिसमें कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष को साथ रखना जायज बताती, अगर ऐसा होता तो क्या हमारी न्याय व्यवस्था भी इसे उचित ठहराता। हर्गिज नहीं।  
एक अनुमान के अनुसार, हरेक वर्ष हर दस में से पांच से अधिक महिलाएं  किसी न किसी जुल्म की शिकार होती है लेकिन सिर्फ कुछ महिलाएं ही इससे बचने के रास्ते तलाश कर पाती है।
वही देश के राजधानी तक में हर वर्ष यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामले महिला सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह लगाए हुए हैं। चाहे रूचिका हत्याकांड हो या फिर हाल-फिलहाल में घटित उŸार प्रदेश में सŸााधारी पार्टी बसपा के विधायक के अत्याचार की शिकार बहुचर्चित शीलू का मामला। जब-तब घटते ऐसे मामले हमें एहसास दिलाते हैं कि जिनके पास सŸाा व पैसा है, उनके द्वारा किसी भी तरह गुनाह करके बचना मुश्किल नहीं है।
अब तो महिलाओं के लिए ऑनर किलिंग भी बड़ा मुद्दा बन गया है। यह पुरुषवादी व्यवस्था को बनाए रखने के उद्देश्य से माता-पिता व अभिभावक द्वारा किया जाने एक जघन्य अपराध है। यह एक ऐसा मुद्दा बन गया कि माता-पिता व बच्चंे के रिश्ते पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। जबकि सबसे बड़ा सम्मान किसी भी बच्चंे के लिए मां-बाप का प्यार है और मां-बाप के लिए उनके बच्चें। लेकिन पुरुषवादी वर्चस्व के बतौर ऑनर किलिंग के बढ़ते मामले इस रिश्ते को घृणित बना रहे हैं।
इससे अधिक अफसोस की बात ये है कि महिलाओं के प्रति अपराध को बढ़ाने में सहायक हो रहा है स्वयं हमारा सरकारी तंत्र। भ्रष्टाचार में लिप्त हमारे सरकारी कर्ता-धर्ता वो सभी कार्य करने को तैयार है जो नैतिक रूप से गलत है। पुलिस थाना हो या न्यायालय दोनों के ऊपर भ्रष्टाचार के कीचड़ पड़ चुके हैं। फलस्वरूप वे निष्पक्ष होकर न्याय नहीं कर पा रहे जिसका बहुत बड़ा खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। और तो और सरकारी तंत्र का एक महŸवपूर्ण भाग है, सरकारी अस्पताल। वह अस्पताल जिसे ईश्वर के बाद सबसे बड़ा दर्जा प्राप्त है। वहां भी अगर पोस्टमार्टम के फेरबदल हेतु 200 से 3500 रु. तक में तैयार हो जाय तो फिर भ्रष्टाचार के बारे में कहना ही क्या? ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ के अनुसार, हम आज भ्रष्टचार के मामले में 87वें स्थान पर है। समय रहते अगर इस भ्रष्टाचार को न रोका गया तो लोगों को सच्चाई, नैतिकता व न्याय पर से भरोसा उठ जाएगा। ऐसा न हो, इसके लिए इस पर समय रहते लगाम कसना जरूरी है।
अतः चिंता की बात ये है कि जो हिम्मती महिलाएं सामाजिक चौखट को लांघ कर आरोपियों को सजा दिलाने हेतु कानून पर भरोसा करती है, उन्हें भी न्याय मिलेगा या नहीं। इसका भी पूर्णतः भरोसा नहीं होता। क्योंकि पुलिस व न्यायकर्मी  ईमानदार नहीं रहे दूसरा न्याय प्रणाली का बहुत धीमे काम करना। इस समय करीब 20 लाख लोगों पर 27 जज है। ऐसे में जहां जजों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है, उस पर जजों के करीब आधे पद खाली पड़े हुए है। अतः विशेषकर हमारे देश में न्यायिक प्रणाली में बहुत सुधार की जरूरत है। अभी ये बहुत लंबी चलने वाली और अधिक खर्चीली है।ं न्यायिक प्रणाली के इन कमियोें के कारण महिलाओं को न्याय प्राप्त करने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इन वजहों से अधिकतर महिलाओं द्वारा जुल्म को चुपचाप सहने के सिवा कोई चारा नहीं होता।
निष्कर्षतः आजादी मिली और देश को गणतांत्रिक तौर पर स्वीकृति संयुक्त राष्ट्र से मिला, लेकिन गणतंत्र की वास्तविकता यह है कि देश की आधी आबादी अभी तक दूसरे दर्जे के नागरिक की हैसियत से संघर्ष कर रही