Monday, 11 November 2013

सोहागवती का आशिर्वाद: दुवा या बद्दुआ

-कुलीना कुमारी

लोग कहते हैं कि हमारे जीवन में दुवाओं का बड़ा असर होता है, बड़े-बुजूर्ग व अपनों का मिलने वाला आशिर्वाद हमारे जीवन की खुशियों को बढ़ाने में सहायक होते हैं। लेकिन शादीशुदा महिला को बड़े-बुजूर्ग द्वारा दिए जाने वाला ‘सोहागती रहो’ आशिर्वाद से मुझे आपŸिा है।
हिंदू धर्म में शादी के बाद से पतिवती महिला (जिनके पति जिंदा है) द्वारा बड़े-बुजूर्ग को नमण करने पर उसेे सोहागवती रहने का आशिर्वाद दिया जाता है। इसका एक अर्थ है कि महिला जब तक जीये, सोहागवती रहे अर्थात् उसका पति जिंदा रहे, जबकि इसी शब्द का दूसरा अर्थ है कि महिला पति से पहले मर जाये, तभी उसके लिए सोहागवती रहने का अर्थ फलित होगा।  यह बड़े-बुजूर्ग द्वारा दिए जाने वाला कैसा आशिर्वाद या अभिशाप है जो बड़े-बुजूर्ग को नमण किए जाने के बावजूद पति से पहले या महिला के जल्द मरने की कामना किया जाता है।
विज्ञान ने काफी तरक्की की है लेकिन अभी भी किसी का जन्म व मौत ईश्वर के हाथ में है, ( फिर दुवा या बददुआ के नाम पर महिला के मरने का कामना क्यों किया जाता  है।) यद्यपि  विज्ञान के बदौलत मनुष्य के सुख-सुविधाओं के काफी वस्तुओं का सृजन संभव हो पाया है। गैस का चुल्हा, बल्ब, पंखा, गाड़ी, मोबाइल व कम्प्यूटर तथा और भी बहुत कुछ। इन चीजों के जरिये हम अपने आवश्यक काम कम समय में निपटा पाते हैं, इससे न केवल हमारी उम्र बढ़ी है, बल्कि अपने आकांक्षाओं के पंख को अधिक तेजी से उड़ाना संभव हो पाया है। लेकिन अभी भी जो नहीं बदला है,  वो है हरेक व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन मूल्य, जीवन जीने के तरीके व जीवन की कठिनाइयों को हल करने की प्रवृŸिायां, उसके संकल्प व सपने। कुछ तथ्य बताते हैं कि जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाला व विकट परिस्थितियों में भी जीने की आकांक्षा रखने वाला व्यक्ति अधिक दिनों तक जीता है। डार्विन का प्रकृति प्रदŸा सिद्धांत के साथ-साथ कुछ देशों की जीवन प्रत्याशा की आयु अलग-अलग होने की वजह उस देश की सामाजिक, आर्थिक व मानसिक जैसे कई मुख्य तथ्यों को जिम्मेदार ठहराया गया था। इस सोच को बल प्रदान करने वाला एक अन्य तथ्य जो शायद हम सभी ने किसी न किसी को देखा होगा वह ये कि व्यक्ति का प्राण तब तक अटका रहता है, जब तक कि आंख बंद करने से पहले वह अपनी इच्छा अपने किसी खास को बता नहीं देता और उसकी इच्छा पूर्ति का उसे आश्वासन नहीं मिल जाता।
अगर स्त्री का जीवन प्रत्याशा पुरुष से अधिक है तो इसकी वजह विकट परिस्थितियों में भी उसकी जीवन जीने की ललक, अपने घर-परिवार के प्रति जिम्मेदारी निभाने की प्रवृŸिा, कर्Ÿाव्यपरायणता व उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है, अगर इन चीजों का अनुपात स्त्री की तुलना में पुरुष में कम है तो इसमें महिला की गलती नहीं है। (मेरे मायके में मेरी दादी जिंदा है लेकिन दादा को गुजरे कई दशक हो गए। ससुराल में सास जिंदा है लेकिन ससुर को भी गुजरे कई वरष हो गए। पुरुष के पहले गुजरने का एक कारण जीवन की कठिनाइयों को सामना करने की विफलता व और जीवन जीने की उनकी इच्छाशक्ति का अभाव हो सकता है, इसमें महिला की गलती नहीं हो सकती।)
वैसे जो पैदा लेता है, मरना उसका तय है, लेकिन उसके जीवन जीने के तरीके व आकांक्षाएं उसके आयु के घटाने या बढ़ाने का काम करता है, फिर महिला के सोहागवती रहने का दुवा क्यों किया जाता है अर्थात् महिला के पति से पहले मरने की दुवा। अगर सती प्रथा कायम रहती तब भी मुझे इस आशिर्वाद का मतलब नजर आता, जबकि  ऐसा अब नहीं के बराबर है। अगर सोहागवती से अर्थ पति से मिलने वाली सुख-सुविधा व ताकत से होती तो पति बनाम शादीशुदा पुरुष के नमण करने पर चिरंजीवी या सतंजीवी का आशिर्वाद नहीं मिलता, उसे भी ‘पत्नीवती रहो’ का आशिर्वाद दिया जाता। लेकिन ऐसा होता नहीं है,  एक साथ पति-पत्नी द्वारा बड़े-बुजूर्ग को नमण किए जाने पर पुरुष को दीर्घायु का आशिर्वाद मिलता है व महिला को सोहागवती के रूप में पुरुष से पहले मर जाने की बद्दुआ। ये गलत है।
यद्यपि पतिवती (जिनके पति जिंदा है) स्त्री को ये आशिर्वाद न केवल श्रेष्ट पुरुष द्वारा बल्कि बड़ी महिलाओं द्वारा भी दी जाती है। ये आशिर्वाद इस तरह जन-मानस के प्रचलन में है कि पुरुष के साथ-साथ अधिकतर स्त्रियां भी पति से पहले मरना सौभाग्य का सूचक समझती है। वैसे पुरुष का साथ पति पर निर्भर स्त्री के लिए आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है बल्कि पति  के शारीरिक सुख के साथ-साथ उसे मंसाहारी भोजन प्राप्त करने का, लाल-पीले साड़ी ग्रहण करने का व हर शुभ कार्य में भागीदार करने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन अगर पति नालायक भी हो और वह अगर स्त्री से पहले मरता है तो स्त्री को न केवल पति के शारीरिक सुख से वंचित होना पड़ता है, बल्कि इसके साथ-साथ उसके लिए मनपसंद भोजन, पहना-ओढ़ना व शुभ कार्य में भागीदारी से भी वंचित होना पड़ता है।
शायद इन सब वजहांे से महिला खुद भी पतिवती रहने की दुवा देती है और रहना भी चाहती है।
पिछले दिनों एक बुजूर्ग महिला ने अपनी मां की मौत की कहानी बड़े गर्व के साथ सुनाई व पिता से पहले मां के गुजर जाने की वजह से अपनी मां को बड़ा सौभाग्यशाली बताया और जोर देकर बताया कि सभी स्त्री का सौभाग्य हमारी मां जैसा हो। उन्होंने बताया, ‘‘मेरे पिता लंबे समय से बीमार चल रहे थे, खुद से उठ-बैठ भी नहीं पाते थे, और मां दिन-रात उनकी सेवा किया करती थी। जब मेरे पिता को लगने लगा कि वे अब नहीं ठीक हो पाएंगे तो हाथ-पैर जातती मेरी मां से कहा कि आप मेरे से पहले मरिये क्योंकि मैं ऊपर जाऊंगा, उससे पहले आप जाकर मेरे रास्ते को झाड़-बुहाड़ कर के साफ रखेंगे। पिता द्वारा बार-बार इन बातों को बोले जाने पर शुरु में तो मां ने विरोध किया और कहा कि मैं स्वस्थ हूं और बीमार भी नहीं  हूं, मैं आपसे पहले कैसे मर सकती हूं लेकिन इन बातों के कुछ दिनों के बाद ही मेरी मां पिता को जांतते-जांतते एक दिन अचानक मर गई। मेरे पिता मां के बाद मरे।’’ उस बुजूर्ग महिला के लिए पतिवती स्त्री शौभाग्य का सूचक हो सकता है। समाज में बुजूर्ग महिला के पिता के तरह अपनी पत्नी के पहले मरने की कामना करने वाले पुरुष की भी कमी न होंगी लेकिन बीमार पुरुष द्वारा स्वस्थ स्त्री के मौत की कामना कही से भी उचित नहीं है। इस अनुचित वृŸिा को सामाजिक मुहर बनाकर दुवा बनाम बद्दुवा के रूप में बड़े-बुजूर्ग द्वारा जो पतिवती स्त्री को दिया जाता है वो हर हाल में गलत है।
आज जब स्त्री-पुरुष दोनों को ही कानूनी रूप से अपनी आयु के हिसाब से जीवन जीने का अवसर दिया जा रहा है तो सामाजिक रूप से भी दोनों को समान आशिर्वाद दिया जाना चाहिए, पुरुष को मिलने वाला आशिर्वाद के तरह दीर्घायु व खुश रहने का।
बचपन का महŸव


किसी भी व्यक्ति के जीवन में बचपन का बड़ा महŸव है। बचपन में ही  व्यक्ति के आचार-विचार व जीवन मूल्यों की स्थापना होती है। हमारा बचपन हमारे व्यक्तित्व की नींव की तरह है। अगर नींव मजबूत है अर्थात् बचपन अच्छा गुजरा है तो  व्यक्तित्व में सकारात्मकता अधिक दिखाई पड़ती है, व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी सही तरीके इस्तेमाल करता है, व देर-सबेर सही लेकिन अपनी सफलता व सुख-शांति के प्रति आश्वस्त रहता है। भारतीय भाषा में, हमारे व्यक्तित्व की इन विशेषताओं को संस्कार भी कहा जाता है, बड़ों के प्रति सम्मानजनक संबोधन, उचित भाषा का प्रयोग, समुचित तरीके से उठने-बैठने के सलीके आदि बचपन में ही सीखाए जाते है।
लेकिन अगर किसी का बचपन अच्छा गुजरे ही नहीं, और उसमें सुनहरे भविष्य बनाने के लिए सपने ही नहीं तो इससे न केवल व्यक्ति का भविष्य अंधकारमय बनता है, बल्कि वह दूसरों पर निर्भर होकर आजीवन जीता रहता है।
अधिकतर महिलाओं का बचपन नकारात्मक सोच के साथ व भेदभाव के बीच पलता है और यह नकारात्मकता उसे अपने अस्तित्व के प्रति भी हीनता पैदा करती है, यह हीनता न केवल उसमें परतंत्रता के साथ जीवन जीने के लिए मजबूर करता है, बल्कि इस बेड़ियों को तोड़ने के वह सपने देखना भी छोड़ देती है।
इस संदर्भ में मुझे एक हाथी और महावत की कथा याद आती है, जब हाथी छोटा था तो महावत उसके  मात्र एक पैर में रस्सी बांधकर नियंत्रण में कर लेता था, हाथी के बड़े होने पर भी महावत द्वारा हाथी के सिर्फ एक पैर में ही रस्सी बांधकर नियंत्रण करना आसान रहा क्योंकि हाथी उसका अभ्यस्त हो चुका था।
मनुष्य के बचपन में जैसा बीज बोया जाता है, बड़े होने पर भी उसका असर दिखता है। मनुष्य जिस परिवेश के बीच पलता है, या पाला जाता है, जैसी उससे उम्मीदें की जाती हैं या जिस तरह उसका सपना होता है, बड़े होने पर वे परिलक्षित होते हैं।
मुझे याद है, अपने बचपन की वे बातें जो मुझे सोच के स्तर पर मेरी अन्य सहेलियों से मुझे अलग करता था। मैं लड़की होने के कारण किसी हीन भावना से ग्रस्त न थी और न खुद को किसी लड़के से कमतर नहीं मानती थी, साथ ही मैं लड़का व लड़की दोनों को आगे बढ़ने के समान अवसर दिए जाने के पक्षधर थी व दोनों समान है, इस विषय पर विरोध करने वाले से बहस भी करती थी। फिर मैंने आत्मनिर्भर बनने के सपने बचपन में ही देखे थे, मुझे लगता है कि मेरे बचपन के वह सकारात्मक व समानता के सोच व इच्छाशक्ति का ही परिणाम है कि आज मैं आत्मनिर्भर हूं व मेरे समूह की अन्य सहेलियां हाऊस वाइफ बन कर जी रही है और आज भी अपने को महिला होने के कारण कोस रही है।
मुझे लगता है कि हमारे समाज में जो भी महिलाएं आत्मनिर्भर है, व घर में निर्णायक भूमिका निभाती है, उनमें से अधिकतर महिलाओं ने इस प्रकार के प्रयास बचपन से ही शुरु कर दिए होंगे और उनके अभिभावक व अपनों ने इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्हें बचपन से ही प्रेरित किया होगा।
आज अगर समाज में बहुसंख्य पुरुष आर्थिक निर्भर व निर्णायक भूमिका घर-परिवार में निभाता है तो इसके बीज बचपन से ही बोए जाते हैं व इसके लिए उसे प्रेरित किया जाता है। मां-बाप लड़के को अपना वंश व बूढापे का सहारा मानते हैं तथा गुणवŸाायुक्त खान-पान, बेहतर शिक्षा, व घर तथा बाहर अपनी बात रखने का अवसर प्रदान करते हैं, इसके विपरीत बेटियों को बोझ व पराया धन कहते नहीं अघाते। और बचपन से ही लड़कियों का परवरिश इस प्रकार किया जाता है कि पुरुष राज करें और महिला घर की देखभाल और घरवालों की सेवा।
बेटियों के साथ भेदभाव करने में सिर्फ पिता बनाम पुरुष ही दोषी नहीं है, कई मामलों में देखा गया है कि मां व अन्य स्त्रियां भी इस दोष के भागीदार है। पिछले दिनों एक परिचित ने अपने कजन भाई-भाभी से मिलवाया और परोक्ष में अपने कजन भाई के बारे में बताया कि इसकी चार बहन है, इसने अपनी मां के कहने पर सबसे छोटी बहन को पोखर में डूबा रहा था लेकिन गांव वालों के देखे जाने पर वह बच गई। यद्यपि उसकी छोटी बहन की अभी तक शादी नहीं हुई लेकिन वह जॉब में हैं व आज वही घर-परिवार का खर्च चला रही है। इतने वरष के बाद भी जब उसकी अन्य रिश्तेदार महिला पर इस घटना का असर है तो जिस लड़की के साथ बचपन में ऐसी घटना घटी होंगी, वे क्या भूली होंगी, ये कैसा विभत्स सोच व मजबूरी है जिससे अपने ही दुश्मन बन जाते हैं।
हमने कुछ ऐसे स्त्री-पुरुष को भी देखा है जो मां-बाप द्वारा किए गए बचपन के दुर्व्यवहार के लिए आज तक मां-बाप को ताना देते है। अपने ही भाई-बहनों के बीच किए जाने वाले बचपन के भेदभाव को अनुचित ठहराते हैं व उनकी न्याय प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। बचपन में झेले गए उन यंत्रणा के पल से वे आज भी अपने को चोटिल महसूस करते हैं व मां-बाप के प्रति अविश्वास से उन्हंे दूसरों के साथ मधुर रिश्ता बनाने में कठिनाइयां होती है।
इसी संबंध में कुछ ने अपनी अच्छी परवरिश के लिए मां की भूमिका को सराहा और बताया कि उसकी शिक्षा-दिक्षा व बेहतर परवरिश मां की वजह से संभव हुआ व मां व बच्चों के प्रति पिता द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार से आज भी क्षुब्ध है व पिता को दोषी मानते हैं। जबकि कुछ अन्य ने मां से बेहतर पिता की भूमिका को सराहा।
लोग बड़े हो जाते हैं लेकिन बचपन सभी के लिए खास होता है व बचपन में बिताए अच्छे या बुरे पल का प्रभाव व्यक्तित्व में विशेषताएं या विकृतियां पैदा कर सकती हैं। इसलिए हम बड़े को चाहिए कि हम अपने बचपन में वापस नहीं जा सकते लेकिन अपने बच्चे को बचपन में अच्छा माहौल प्रदान करें व उसे आत्मनिर्भर व जीवन की नई ऊंचाइयां छूने के लिए प्रेरित करें ताकि बड़े होकर वह सफल व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बना सकें।

Monday, 20 May 2013

महिला उत्सव -कुलीना कुमारी



अन्य वर्ष के तरह वर्ष 2012 में भी जेंडर भेदभाव की वजह से देश भर में हजारों महिलाएं अत्याचार व असमानता की बलिवेदी पर जीने को मजबूर हुई लेकिन वर्ष के खतम होते-होते 16 दिसंबर को होने वाली दामिनी कांड ने जैसे पूरे समाज व देश को झकझोर दिया, स्त्री-पुरुष, बच्चे जैसे सभी कह उठे, अब और नहीं, अब ऐसे तो हर्गिज नहीं। अत्याचार व बलात्कार दामिनी से पहले भी और लड़कियों की हुई, उसके बाद भी हो रही है, लेकिन विरोध के स्वर बढ़ गए हैं। दामिनी का बलिदान व्यर्थ न गया, दामिनी के अभिभावक के साथ अन्य अभिभावक भी सुर में सुर मिलाकर कह उठे, जैसा दामिनी के साथ हुआ, वैसा किसी और बेटी, दूसरी बेटी के साथ न हो। जनसमूह का आक्रोश देखकर सरकार सोचने पर मजबूर हुई व न्यायमूर्त्ति वर्मा सुझाव समिति गठित की गई।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी महिलाओं के हित में कुछ मूलभूत सुधारात्मक फैसला लिए। उसके महŸवपूर्ण फैसलों मंे शामिल हैं: कोई भी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या निजी, आपराधिक वारदात या किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति और बलात्कार-पीड़ित को तुरंत इलाज देने से इंकार नहीं कर सकता। अदालत का कहना है कि ऐसे मामलों में प्राथमिक उपचार मुहैया कराने के साथ-साथ पीड़िता को घटनास्थल के सबसे करीबी अस्पताल में पहुंचाया जाए, ऐसी स्थिति में न क्षेत्र के बंटवारे पर उलझा जाय और न कानूनी कागजात पर, कानूनी औपचारिकताएं, पीड़ित के सामान्य स्थिति में आने के बाद पूरी की जा सकती है।
गौरतलब है कि सामूहिक बलात्कार की शिकार दामिनी को बचाया जा सकता था, अगर काफी देर तक वहां पहुंची पुलिस क्षेत्र के बंटवारे व कानूनी औपचारिकता में नहीं फंसती, जब-तब ऐसे मामले सामने आते हैं, जब डॉक्टर कानूनी औपचारिकता बिना पूरे हुए इलाज करने से मना कर देते हैं, व इस वजह से बहुत सारे लोगों की जान चली जाती है जिनको कि समय पर इलाज मिलने से बचाया जा सकता है। अर्थात उच्च न्यायालय ने दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के लिए इलाज के हक संबंधी फैसले लिए बल्कि उसके प्रचार-प्रसार पर भी जोर दे रहा है।
आपराधिक कानून में संशोधन अध्यादेश पर केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसे मंजूरी दे दी। अब बलात्कार के बाद अगर पीड़ित महिला की मौत हो जाती है तो दोषी व्यक्ति को मौत की सजा दी जा सकती है। इस अध्यादेश में बलात्कार शब्द की बजाय यौन उत्पीड़न शब्द का प्रयोग किया गया है ताकि महिलाओं के खिलाफ सभी तरह के यौन अपराधों की परिभाषा को विस्तार दिया जा सके। अध्यादेश में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड संहिता प्रक्रिया (सीआरपीसी) और साक्ष्य अधिनियम में संशोधन का प्रावधान है। इसमें महिलाओं का पीछा करने, ताक-झांक, तेजाब फेंककर हमला करने, अभद्र भाव भंगिमा यथा शब्दों और अनुचित तरीके से स्पर्श करने को लेकर सजा बढ़ाने का प्रावधान है।
उपरोक्त कानूनी हितों के विस्तार के लिए महिला की सुरक्षा व अधिकार के लिए देशव्यापी महिला हेल्प लाइन शुरू करने की बात की गई, इस हेल्पलाइन को ऐसा बनाया जा रहा है कि देश में कही भी मुश्किल में आई महिला को पुलिस और डॉक्टर जल्द उपलब्ध हो सकें। यह हेल्पलाइन शिकायत सुनने के साथ-साथ मौके पर मदद भी पहुंचाएगी। मदद पहुंचाने के लिए जो भी धनराशि खर्च होगी, उसे महिला व बाल विकास मंत्रालय वहन करेगा। इसके अलावा उन 100 जिलों में वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर भी खोले जाने हैं जहां महिलाओं के साथ ज्यादा अपराध होते हैं। ये सेंटर महिलाओं के इलाज के साथ-साथ बलात्कार पीड़ित और अन्य तरह से सताई गई महिलाओं की मानसिक दशा सुधारने का काम करेंगे, ऐसे सेंटर जिला अस्पतालों में खुलेंगे और सीधे जिलाधीश की निगरानी में काम करेंगे।
इस सबके बाद बात महिलाओं के लिए बजट की आती है, पिछले साल 2012-2013 में जेंडर बजट के रूप में 88,142.80 करोड़ रूपए मिले लेकिन इस वर्ष 2013-2014 में 97,234 करोड़ रूपये दिए जाने की बात की गई है।
इस वर्ष समेकित बाल विकास सेवा के लिए सरकार 17,000 करोड़ रूपये देने जा रही है, जो पूरे देश में चल रही समेकित बाल विकास सेवा योजना के 7005 केंद्रों और 13.19 लाख आंगनबाड़ियों के जरिये खर्च किया जाएगा। महापंजीयक के आंकड़े 2011 के अनुसार, भारत में अभी भी शिशु मृत्य दर प्रति हजार 44 है, रिपोर्ट 2010 के अनुसार, नवजात मृत्य दर प्रति हजार 33 है व रिपोर्ट 2007-08 के अनुसार, मातृत्य मृत्य दर एक लाख प्रति जीवित जन्मों पर 212 है, इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार महिलाओं व बच्चों का कुपोषण दूर करने पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया है।
इसके अलावा देश की आधी आबादी का ध्यान रखते हुए देश में पहली बार महिलाओं के लिए अलग से सरकारी बैंक खोले जाने पर जोर दिया गया है जिसमें कर्मचारी और ग्राहक अधिकतर महिलाएं ही होंगी तथा महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए निर्भया कोष भी स्थापित किया जाएगा। आम बजट में महिला बैंक और निर्भया कोष के लिए एक-एक हजार करोड़ रूपए का प्रावधान है। इसके अलावा एकल व विधवा महिलाओं की मजबूती के लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय को अतिरिक्त 200 करोड़ रुपये की राशि दी जा रही है।
अतः महिला दिवस के उपलक्ष्य पर महिला उत्सव मनाने का इस बार हम महिलाओं के पास काफी कारण है। न्यायालय द्वारा इलाज के हक की बात कर न केवल पीड़ित महिलाओं को तत्काल राहत पहुंचाने की उम्मीद बढ़ गई है बल्कि आम दुर्घटनाग्रस्त जनता को भी उससे राहत मिलेगी।
महिलाओं के लिए देशव्यापी हेल्पलाइन बन जाने के बाद न केवल उसे तत्काल मदद मिल सकने की संभावना बढ़ेगी बल्कि उसके लिए एक दरवाजे बढ़ सकते हैं जो उसे तत्काल उपचार के साथ-साथ मानसिक व कानूनी सहायता मिल सकेगी। वर्तमान में महिलाओं की समस्या एक प्रमुख वजह उसके जरूरत पर रास्तों का बंद होना है, अगर महिला कुंवारी है और अगर मायके में शोषण हो तो वह किससे शिकायत करें, शाादीशुदा होने की परिस्थिति में ससुराल में समस्याएं होने पर मायके वाले प्रायः समर्थन करने को तैयार नहीं होते, अतः महिला हेल्पलाइन विवाहित व अविवाहित दोनों तरह की महिलाओं को ही सुरक्षा प्रदान कर सकने में सक्षम होगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
महिलाओं के लिए बजट में एकल, विधवा व पिछड़ी महिलाओं के लिए सहायता व पेंशन योजना की बात की गई है जो कि बहुत ही अच्छा विचार है, ऐसे महिलाओं के आर्थिक सुदृढ़ीकरण करने से न केवल ऐसी महिलाओं की स्थिति में सुधार की गुंजाइश बढ़ेगी बल्कि जो सबसे बड़ा परिवर्तन होने की उम्मीद लगती है, वह है पति के अत्याचार सहने की मजबूरी की समाप्ति का। महिलाओं के पास अगर ये विश्वास हो जाय कि पति के बिना भी उसका व उसके बच्चे का जीवन खतम न होगा, उसे आर्थिक सुरक्षा मिलेगी तो निश्चित ही उसका आत्मबल व मजबूती बढ़ेगा, फलस्वरूप महिलाओं में सकारात्मक जीवन की दिशाएं बढ़ेंगी।
पति के जिंदा रहते उससे अलग रहने वाली महिलाओं के संदर्भ में मेरा सोचना ये है कि ऐसा वैवाहिक जीवन जिसमें पति-पत्नी के लिए एक-दूसरे के प्रति सिर्फ शिकवा-शिकायत हो, प्यार व विश्वास न हो, ऐसी परिस्थिति में महिला के लिए घुट-घुटकर जीने के बजाय तलाक एक अच्छा विकल्प है। आम बजट के जरिये अगर विधवा व एकल महिलाओं के लिए आर्थिक सुदृढ़ीकरण सुनिश्चित की जाय तो सचमुच उसके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन हो सकता है।
आम बजट में महिलाओं के लिए 1000 करोड़ रूपये का निर्भया फंड बनाने की घोषणा की गई है जो कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए काम आएंगी, साथ ही देश की आधी आबादी के लिए पहली बार महिलाओं के लिए अलग से बैंक खोले जाने का प्रस्ताव रखा गया है जिसमें कर्मचारी व ग्राहक अधिकतर महिलाएं ही होंगी।
महिलाओं के द्वारा, महिलाओं के लिए सार्वजनिक बैंक बनने से महिलाओं का एक बड़ा वर्ग के इसके ग्राहक बनने के रास्ते खुलेंगे। आज दिल्ली में जिस तरह से महिलाओं के लिए मेट्रो के लिए अलग से कोच बनाने से उस कोच में महिलाओं की बड़ी संख्या उस सफलता की सूचक है, इसकी पीछे की एक बड़ी वजह यह है कि पुरुषवर्ग भी अपने घर की महिलाओं को महिलाओं के बीच सुरक्षित महसूस करते हैं, व उसे अकेले निकलने पर भी निश्चिंता महसूस करते है, कुछ ऐसा ही महिला बैंक बन जाने से होने की उम्मीद है। पुरुष वर्ग अपनी महिलाओं को महिला बैंक का ग्राहक बनने से अधिक देर नहीं रोक पाएंगे, न इसका बहाना बना पाएंगे कि बैंक में कोई पुरुष अधिकारी छेड़खानी कर सकता है। फिर महिला बैंक अधिकारी भी अन्य बैंकों के तरह बैंक की मेंटेनेन्स के लिए व अपने को किसी भी बैंक से कमतर नहीं साबित करने के लिए जमीनी स्तर पर कार्य किया जाएगा। इसके तहत महिला कस्टमर बनाने हेतु कई योजनाएं लागू करनी होंगी ताकि न केवल एकाउंट खोलवाने हेतु महिलाएं प्रभावित हो बल्कि सामुदायिक स्तर पर उसके पुरुष वर्ग भी संतुष्ट हो और वे पत्नी अथवा महिला सदस्य का एकाउंट खोलवाने को तैयार हो।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की मजबूती में उसकी आर्थिक स्थिति का एक महŸवपूर्ण भूमिका होती है। फिर जैसे ही महिला का अपना बैंक खाता होगा तो वह उसको न केवल मेंटेन रखने का प्रयास करेगी, बल्कि ऐसे दूसरे महिला आगंतुक व उपभोक्ता से भी उसका परिचय बढेगा व उसे भी जागरूक कर व एक-दूसरे की सहायता से अन्य महिलाओं को भी जोड़ने में सहायक होगी।
फिर भी अगर बात बजट में महिलाओं को सिर्फ तात्कालिक रूप से रिझाने के उद्देश्य से की गई है तो भी सरकार को उसे पूरा करने हेतु तत्पर होना ही होगा। क्योंकि अपराधों व असमानता के खिलाफ बढ़ता महिलाओं का आक्रोश लोगांे ने देखा है जिसे देखते हुए सरकार द्वारा अधिक दिनों तक बरगलाया अथवा टाला न जा सकेगा।
इसके बावजूद, इन सभी योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू होने में समय लग सकती है, ये भी सच हो कि उन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाने के लिए और अधिक बजट की आवश्यकता भी हो, तो भी हम अपने बुरी स्थिति का रोना रोए, उससे अच्छा है कि जो अच्छा हमारे लिए दिख रहा है, हम उसे प्राप्त करने की कोशिश करें व उज्ज्वल भविष्य की कामना कर अपने को आशान्वित रखें।
इसी के तहत एक और बात जो तय मुझे दिख रही है वह कि महिलाओं में बढ़ता जागरूकता व उसका विस्तृत होते दायरे को पिŸाृसŸाात्मक सŸाा द्वारा अब समेटना आसान नहीं होगा।
अपनी पहचान व महŸाा के लिए स्त्रियों के साथ-साथ हमारी बेटियां भी कदम बढ़ाना शुरु कर दिया है। न केवल अपने भाइयों के साथ शिक्षा, पालन-पोषण व उŸाराधिकार सहित हर मामले में बराबरी करने के लिए तत्पर दिख रही है, बल्कि भाइयों को अधिक व उसे कम दिए जाने पर प्रश्न भी करना शुरु कर दिया है। हम बेटियों के अपनी शक्ति की पहचान के रूप में भी बढ़ते कदम के लिए भी उत्सव मना सकते हैं।
हम महिलाओं के लिए ये भी कम खुशी मनाने की बात नहीं कि बुरी स्थिति पर रोने के बजाय हम अपने कर्Ÿाव्य के साथ-साथ अधिकार के प्रति भी जागरूक हो रहे, शोषण होने पर हम आवाज उठाना सीख रहे। हम महिलाएं अपने मुश्किलों में भी खड़े रहने की उत्कंठा व आगे बढ़ने के जीजिविषा के लिए महिला उत्सव मनाए। इस महिला दिवस पर अपने साल भर की विफलता से सीखे व सफलता के लिए अपने को गौरवान्वित महसूस करें, साथ ही कसम खाएं कि दिनोनदिन जो अलख महिलाओं में जग रही है, वो बढ़ेगी बेशक, बुझेगी तो हर्गिज नहीं।  


यौनाकांक्षा और बलात्कार में संबंध --कुलीना कुमारी



पिछले महिने में घटित बलात्कार की कई घटनाएं सुर्खियों पर है, अभी तक दामिनी कांड को लेकर होने वाली चर्चाएं पूरी थमी भी नहीं थी पूर्वी दिल्ली के गांधीनगर में बलात्कार की शिकार बनी पांच साल की बच्ची के मामले ने पुनः इस विमर्श को बढ़ा दिया है कि बलात्कार बुरा है, बलात्कारी भी बुरे हैं और इस अपराध के लिए उन्हें दुर्लभतम सजा मिलनी भी चाहिए यद्यपि कम या ज्यादा सजाएं इसके लिए निर्धारित भी है, फिर भी बलात्कार रुक नहीं रहे। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, 2011 के दौरान देश भर में 24 हजार 206 मामले दर्ज किए गए जबकि 2010 में 22 हजार 172 मामले दर्ज हुए थे अर्थात इसमें बढ़त ही होती जा रही है। इतनी बड़ी संख्या में व्यक्ति क्यों आपराधिक प्रवृŸिा का होता जा रहा है, इस पर हाय-तौबा करने के बजाय क्यों न इसकी तह की पड़ताल करें।
सवाल यह है कि व्यक्ति बलात्कारी क्यों होता है, क्यों चोरी-छिपे और कभी सरेआम भी इस क्रिया को अंजाम देता है, इसके कारण ढूंढने की एक कोशिश करें व इसका कोई हल तलाशें। बलात्कार के दो मुख्य वजह होते हैं-एक तो बदला लेने के मनोविज्ञान और दूसरा यौन आवश्यकता की पूर्त्ति।
वैसे एक मामला का आपसी दुश्मनी भी है, और उसके कई कारण है, जिसमें जर, जोरू और जमीन का मुद्दा रहता है, मतलब दोस्ती-दुश्मनी अलग चीज है। लेकिन बलात्कार के प्रमुख कारणों में शामिल है-यौन आवश्यकता। जब कोई व्यक्ति उचित तरीके से इस आवश्यकता को नहीं पूरा कर पाता तब वह गलत तरीके से एक पक्षीय, आपराधिक बनाम बलत्कृत संबंध बनाता है। यही यौन संबंध अगर प्रेमी-प्रेमिका के रूप में दो पक्षीय व दोनों की सहमति से बनाया जाता तो अपराध नहीं होता।
कोई माने या न माने, यौन आवश्यकता एक ऐसी जरूरत है जिसकी कोई कितनी भी खिल्ली उड़ा ले या इस आवश्यकता से इंकार कर ले, यह हमारे मन प्राणों में बसा है, इसी की वजह से हम पैदा होते हैं और जीते जी इसे चाहे-अनचाहे हम महसूस करते हैं। जैसे हमारे लिए भोजन-पानी की आवश्यकता है वैसे ही यौन संतुष्टि हमें जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए ताकत देता है।

लेकिन कई बार कुछ लोगों को जीवन की आपाधापी में, जिसमेें वैवाहिक आय की सीमा या उसमें होने वाली रूकावट, पारिवारिक जिम्मेदारी, कैरियर संवारने या विभिन्न परिस्थितियों की वजह से पसंदीदा यौन साथी नहीं मिल पाता जिससे सहज रूप से उनकी यौन आवश्यकता की पूर्ति हो पाती, वैसे व्यक्तियों के यौन संतुष्टि हेतु ‘मास्टरवेशन’ एक महŸवपूर्ण साधन है। हमने विभिन्न स्रोतों के माध्यम से यह सुना है कि कुछ लड़के यौन संतुष्टि के लिए इस माध्यम का उपयोग करते हैं। लेकिन ऐसा छुपाकर इसीलिए प्रयोग में आता है क्योंकि स्वयं संतुष्टि के लिए इसे स्वस्थ, उचित व उपयुक्त साधन नहीं माना जाता, जबकि चिकित्सा विज्ञान के कुछ रिसर्च के मुताबिक इस प्रक्रिया से हमारे शरीर को कोई हानि नहीं होती लेकिन भ्रामकता की वजह से कि इससे भविष्य में होने वाले यौन साथी को  संतुष्ट नहीं कर पाएगा, लोग इसके उपयोग करने से डरते हैं।
ऐसा लगता है कि एक अलग कमरे में यौन संतुष्टि के लिए किया जाने वाला प्रक्रिया चाहे वह एक वैवाहिक जोड़े के बीच हो या फिर एक अकेला व्यक्ति इस प्रक्रिया को अपनाए, दोनों ही एक समान है लेकिन हमारा समाज वैवाहिक जोड़ो को यह अधिकार देता है, और तो और बच्चों को भी यह पता होता है कि मां-बाप एक कमरे में सोते हैं तो इसका क्या मतलब है। फिर हम माता-पिता अपने ऐसे वयस्क बच्चें जो शादीशुदा नहीं या फिर जिनके यौन साथी नहीं, ‘मास्टरवेशन’ के रूप में उन्हें ऐसी प्रशिक्षण क्यों न दिलाए जो उन्हें यौनिक आवश्यकता होने की स्थिति में सेल्फ सैटिकफैक्शन की ओर ले जाए।
अगर यह काम माता-पिता नहीं कर सकते तो किसी ऐसे प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करके दी जा सकती है जहां ऐसी आवश्यकता महसूस करने वाले युवा बच्चे बेहिचक अपने प्रश्न रख सके और उनके मन में उठने वाले विभिन्न सवालों के लिए उन्हें कोई डांटे नहीं, बरगलाए नहीं, ना ही पारंपरिकता व धार्मिकता के नाम पर चरित्र का ढिंढोरा पीटा जाए, जिसका पालन करना आसान न हो और बलात्कार के रूप में कही बिस्फोट हो जाए। उन्हें सेक्स एजुकेशन के अंतर्गत यह भी बताया जाना चाहिए कि दो व्यक्तियों के बीच तभी यौन संबंध बनाया जाना चाहिए जब दोनों की सहमति हो और कैसे उचित तरीके से बनाया जाय। कई विवाहित युगल का सेक्स लाइफ सुखमय नहीं होता क्योंकि कभी महिला अपने पति के यौन संबंध से संतुष्ट नहीं होती क्योंकि उसे पति द्वारा अपनाए गए तरीके पसंद नहीं होते तो कभी पति को  पत्नी के सहयोग के तरीके पसंद नहीं होते। अतः प्रशिक्षण केंद्र में यौन शिक्षा के साथ  आत्मनिर्भर होने के महŸवपूर्ण सीख दिया जाय। न केवल पढ़-लिखकर अपने कैरियर को संवार आर्थिक रूप से सक्षम बनने के लिए प्रोत्साहन के रूप में बल्कि अविवाहित होने पर या यौन साथी के अभाव में अत्यधिक यौन आवश्यकता होने पर सेल्फ सैटिस्फैक्शन के रूप में भी।
यद्यपि इन बातों के माध्यम से हमारा कहने का यह उद्देश्य नहीं कि सभी अभिभावक अपने बच्चों को बुला-बुला कर इस विषय पर बात करें, लेकिन अगर किसी स्रोत से अभिभावक यह जानते या महसूस करते हैं कि बच्चे इस विषय पर अधिक जानकारी चाहते हैं तो किसी हेल्प लाइन की तरह ऐसे प्रशिक्षण केंद्र का नंबर अभिभावक के पास होना चाहिए ताकि वह अपने बच्चों को मुहैया करा सके।  फिर जब स्कूल में मानव के कई अंगों की जानकारी व प्रक्रिया जैसे नाक का काम सूंघना, जीभ का कार्य स्वाद जैसे जानकारी दी ही जाती है तो यौनांग के बारे में जानकारी के साथ व आवश्यकता होने पर उसकी संतुष्टि की विभिन्न प्रक्रिया से क्यों अनजान रखा जाय। ऐसा लगता है कि इस प्रशिक्षण केंद्र को स्कूली शिक्षा के साथ जोड़ देना चाहिए, तनाव प्रबंधन के रूप में। क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2011 के दौरान मुल्क में कुल 135585 व्यक्तियों ने आत्महत्या किया है जिनमें से 47746 महिलाएं थी। आत्महत्या के कुछ मुख्य कारणों में विवाह स्थगन/न होने, तलाक अथवा यौन संबंध की विफलता, अवैध संबंध, प्रेम संबंध, नाजायज गर्भ,, कौटुम्बिक व्यभिचार, बलात्कार जैसे मामले सम्मिलित है।
यद्यपि यह सच है कि पुरुषों में जितनी तेजी से यौनेच्छा उत्पन्न होती है, व इसकी अधिकाधिक आवश्यकता होने पर वह आपराधिक सा हो जाता है और बलात्कारी तक बन जाता है, महिलाएं ऐसा नहीं करती। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि जब पुरुष अपने विभिन्न प्रयासों के माध्यम से उचित तरीके से यौन साथी नहीं प्राप्त कर पाता तो आस-पास में दिखने या रहने वाली किसी लड़की के बलात्कार-यौन पर हमला करता है और उससे अपनी संतुष्टि पाता है। कौटुम्बिक व्यभिचार या परिचित के साथ किया जाने वाला बलात्कार इसी तरह के श्रेणी में शामिल होते हैं। बलात्कार के आंकड़े बताते हैं कि हर चार में से तीन बलात्कार विभिन्न प्रकार के रिश्तेदार व परिचित के द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। वैसे इस संदर्भ में कुछ लोगों का कहना यह भी है कि नशा के वजह से भी व्यक्ति बलात्कार करता है जबकि दूसरी बातें नशा से जुड़ी कही जाती और सुनी जाती है कि नशा में व्यक्ति ढोंग नहीं करता, वह तो वही करता है जो चाहता है।
कुछ लोग इसे कपड़े को दोषी मानते हैं लेकिन बच्चों से लेकर बूढों तक के साथ होने बलात्कार इस दोष को झूठ साबित करता है। सच्चाई तो व्यक्तियों में पनपने वाला यौन आवश्यकता है। कालिदास से लेकर वात्सायन तक ने भी इस आवश्यकता पर अपनी कलम चलाई है। आज भी सार्वजनिक और ऐतिहासिक स्थलों पर लगाया व सजाया जाने वाला स्त्री-पुरुष के नंगी तस्वीरें व मूर्तियां क्या इसी यौन आवश्यकता के तरफ इंगित नहीं करता। यह एक ऐसे संकेत है कि एक तरफ तो भारतीयता के नाम पर धार्मिकता व परंपरा के साथ विभिन्न प्रकार के साज-सज्जा से तो लैस दिखता है, वही दूसरी तरफ वह इन सभी आडंबरों से दूर होकर मौका मिलते ही किसी चौथी दुनिया में खोना चाहता है।
यह भी कैसा मजाक है कि कौमार्य व्रत का पालन सिर्फ लड़की के लिए जरूरी माना जाता है, इस कौमार्य को किसी लड़के द्वारा खराब न कर दिया जाय, इसीलिए उसे बाहर आने-जाने से रोका-टोका जाता है। जबकि लड़के को खुली छूट दिया जाता हैं कि वह कुछ भी कर ले कोई फर्क नहीं पड़ता, उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन जरूरी नहीं माना जाता। पारिवारिक परंपरा के रूप में चलने वाला यही सोच लड़के को सांड़ अर्थात नियंत्रण से बाहर और लड़की को गाय अर्थात कोई भी खूंसेट लें जैसी कमजोर छवि बनाता है। लड़की को खाने-पीने, आने-जाने व शिक्षा-दीक्षा जैसी जरूरी मूल अधिकार से वंचित रखना व लड़का को अत्यधिक सुविधा व अधिकार देने से भी बलात्कार जैसे अपराध को बढ़ावा मिलता है। यहां सुविधाओं व अधिकारों के दुरुपयोग से किया जाने वाला बलात्कार को यौन आवश्यकता की वजह से किया जाने वाला बलात्कार के रूप में नहीं देखा जा सकता है। दोनों अलग चीज है।
जबकि सच यह है कि  यौन अधिकार व यौन आवश्यकता पुरुष और महिला दोनों को ही होती है। स्त्री-पुरुष न केवल एक-दूसरे के पूरक है बल्कि मानव सृजन के आधार भी। वे एक-दूजे के बिना जी नहीं सकते। सभी स्त्रियों को अपने जैसी अन्य स्त्रियों के अलावा अपने पुरुष रिश्तेदारों से भी लगाव होता है, चाहे वह पिता-भाई के रूप में हो या फिर पति-पुत्र के रूप में। पुरुष भी महिलाओं से बैर करके जी नहीं सकता, फिर जननी से बैर करना मतलब अपने मूल से कटना। अर्थात स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के साथ, एक-दूसरे के सहयोग से व एक-दूसरे के लिए जी रहे हैं तभी दुनिया कायम है।
संबंधों में सबसे मजबूत, आवश्यक व आकर्षक संबंध माना जाता है-पति-पत्नी बनाम प्रेमी-प्रेमिका के बीच पनपने वाला संबंध। यह संबंध दो वजहों से महŸवपूर्ण है। एक तो यह संबंध जन्मजात नहीं होता अर्थात लड़का-लड़की या उसके अभिभावक उसे निर्धारित करते हैं-वैवाहिक जोड़ी के रूप में। जबकि प्रेमी-प्रेमिका के रूप में व्यक्ति इसे अपनी जरूरत या पसंदगी के रूप में चुनता है। इस संबंध के महŸवपूर्ण होने के सबसे बड़ी वजह है-यह मनुष्य के यौन आवश्यकता को संतुष्ट करता है जो कि मनुष्य के जीवन का एक महŸवपूर्ण भाग है।
अगर ये सच नहीं होता तो लड़का-लड़की के बीच पनपने वाला प्रेम संबंध, अवैध संबंध नहीं बनता। उदाहरणस्वरूप ही सही विवाह से पूर्व, विवाहेŸार संबंध भी आपसी सहमति से कुछ लोगों में बनते रहे हैं, एकल महिला-पुरुष को भी यौन साथी की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन विभिन्न परिस्थितियों की वजह से ऐसे महिला-पुरुष जिन्हें यौन साथी उपलब्ध न हो पाए, उन्हें यौन संतुष्टि के लिए दूसरा माध्यम ‘मास्टरवेशन’ के रूप में अपनाना चाहिए। यह स्वयं संतुष्टि का एक उचित हल हो सकता है। फिर अगर यह अतिरेक यौन आवश्यकता के वजह से बलात्कार के अपराध को रोक सके तो निश्चित ही समुचित समाधान के रूप मंे उभर सकता है।
यह समाधान स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अच्छा है। बलात्कार का आरोपी किसी का महिला का भाई, पुत्र या पति हो सकता है, कोई महिला नहीं चाहेगी कि उसका रिश्तेदार ऐसा अपराध करे और इसकी सजा स्वरूप कानूनी दंड प्राप्त करें। पुरुष उचित व सही तरीके से जीने की कला सीखकर न केवल यौन अपराध से बच सकता है बल्कि यौन साथी के अभाव में भी यौन संतुष्टि प्राप्त कर स्वस्थ जीवन जी सकता है। उन महिलाओं के लिए भी यह लाभदायक हो सकती है जो अविवाहित है या फिर जिनके पति साथ नहीं है, एकल जीवन जीते हुए यौन संतुष्टि के अभाव में तनावग्रस्त होकर जी रही है, ऐसी महिलाएं ‘मास्टरबेशन’ के माध्यम से खुद को यौन संतुष्ट रख सकती है और खुशनुमा जीवन जी सकती है। सेल्फ सटिफैक्शन के माध्यम से अवैध संबंधों से भी बचा जा सकता है। इसके बारे में विभिन्न स्रोतों के जरिये लोगों में आवश्यक व स्वस्थ प्रशिक्षण के द्वारा जागरूकता बढ़ायी जा सकती है। अतः बलात्कार जैसी जघन्य समस्या के मूल में झांककर क्यों न हम एक बार इस तरफ भी पुनर्विचार करें।