Saturday, 12 December 2015

समाजिक प्रगति के लिए मन बदलने की जरूरत -कुलीना कुमारी

समाज बदल रहा है और बहुत तेजी से विज्ञान का विकास हो रहा है, इससे विभिन्न तरह की सुविधाएं जरूर लोगांे में बढ़ती जा रही है  मगर समाज का महिला के प्रति सोच आज भी विरोधाभाषी है। अधिकतर समाज महिला के प्रति उदार नहीं है, जो उदारता की बात करते भी है, उन्हें भी अपने आप को और व्यवहार को खंगालने की जरूरत है क्योंकि कितनी ही बार कथनी और करनी में फर्क पाया जाता रहा है और पुरूषों की तुलना में महिला की कमतर स्थिति इसी कमी के तरफ इंगित करता है।  मगर जब धर्मगुरू या मौलाना सरेआम महिला को सिर्फ बच्चे पैदा करने वाली की संज्ञा दे, कल्पना करना मुश्किल नहीं कि उसका महिला के प्रति कैसा सोच होगा और उस धर्म में महिलाओं की कैसी स्थिति होगी। 
यह टिपण्णी सुन्नी नेता कनथापुरम एपी अबूबकर मुस्लीयर के उस टिपण्णी पर आधारित है जिसमें उन्होेेंने लैंगिक समानता की संकल्पना को गैर इस्लामी बताया और कहा कि महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं क्योंकि वे केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं। 
अगर बात सिर्फ बच्चे पैदा करने को लेकर भी किया जाए तो महिला अगर उसे पैदा नहीं करती तो वे खुद कैसे आते....और इसी से जुड़ा यह तथ्य भी कि वे या पुरूष जब स्त्री के साथ सोते हैं तो सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए क्या..मजा या आनन्द के लिए नहीं...। इससे जुड़ी तीसरी बात...कि अगर महिला सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए होती तो बच्चा पैदा करके महिला बच्चों को छोड़ देती और फिर स्वतंत्र जीवन जीना किसी के साथ या किसी और के साथ शुरू कर देती मगर अधिकतर मामले में महिला ना केवल बच्चा पैदा करती है बल्कि अपने बच्चों को लालन-पालन व संस्कार से लेकर विभिन्न प्रकार आवश्यक जिम्मेदारियां निभाने का काम करती है...और शायद बच्चे की वजह से उसके पिता या अपने कसाई पति को भी वर्दाश्त करती है। 

मुझे अफसोस उन पुत्र या संतान पर है कि उसकी मां की जरूर कोई बड़ी लाचारी रही होगी जो उन्होंने बेटा को अच्छा संस्कार ना दे पायी जो अबूबकर मुस्लीयर जैसा महिला के प्रति घटिया सोच वाला संतान बना रहा...अगर बेटा बुरा बोले और मां-बाप उसे वर्दाश्त करे तो इसकी दो ही वजह है....या तो उनके माता-पिता को भी सही परवरिश नहीं मिली है कि समानता, इंसानित और बराबरी की बात खुद समझ सकें या वे अपने बेटे के उद्दंडता से इतना डर चुके हैं कि चुप रहने मंे ही अपनी भलाई समझते हैं।
वजह चाहे जो भी हो मगर मुस्लिम समुदाय के मुल्ला हो या धर्मगुरू के द्वारा महिला विरोधी बयान जब-तब सुनाई पड़ते रहते हैं, ये बयान मुस्लिम महिलाआंे की दुर्दशा के तरफ इंगित करता है, ये यह भी बताता है कि अभी भी महिलाएं बहुत शोषित व पीड़ित है व उनके समाजिक प्रगति के लिए बहुत काम करने की जरूरत है। पर्दा प्रथा, आधुनिक युग में मुस्लिम महिला को सबसे अलग करती है व अधिकतर जगहों में यह आज भी जरूरी या मजबूरी बन चुकी है।
राजधानी दिल्ली के भी कई इलाकों में बुर्का नहीं पहनना अपराध माना जाता है, व भारत सरकार  के तरफ से चलाई जा रही योजनाओं के तहत एक संस्थान द्वारा चलाई जा रही सिक्यूरिटी गार्ड के लिए प्रशिक्षण के दौरान पाया कि मुस्लिम महिला संस्थान पर बुर्क्रे में आती और संस्थान में ड्रेस बदलकर प्रशिक्षण लेती और फिर प्रशिक्षण के बाद फिर संस्थान से बुर्का पहनकर घर जाती। उनका कहना था कि बिना पर्द्रे के वो नहीं आ सकती और ना जा सकती है क्योंकि इससे उन्हें गलत लड़की समझा जाएगा।  नक़ाब को जो समाजिक प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया है, उसे तोड़ने व उससे मुक्त होने की जरूरत महिलाओं को है। 
इसके अतिरिक्त मनमर्जी के तरह तलाक कहकर पुरूष द्वारा महिला को छोड़ने का रिवाज, एक से अधिक विवाह, आज भी मुस्लिम महिला की मुख्य समस्या मंे शामिल है। कुछ अन्य वंदिशों में मुस्लिम धार्मिक नेता द्वारा समय-समय पर महिला को सीमा में रहने की सीख दी जाती रहती है जैसे डांस, फिल्म या एक्टिंग की दुनियां से दूर रहने की हिदायतें देना। मगर अब समय आ चुका है कि महिला भी आगे आकर अपने ऊपर लगाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के आरोपों का जवाब दें व वंदिशों के लिए मना करे?जब तक वे समाजिक दबाव व धार्मिक रूढिवादिता को तोड़ेगी नहीं, आगे बढ़ पाना मुश्किल है व मजबूत बनना भी। 

वैसे हिन्दू धर्म भी महिला के प्रति बहुत उदार नहीं,,आज भी उसके कपड़े और उसके उठने-बैठने के ढंग आदि पर विभिन्न धर्मगुरूओं या सदस्यों द्वारा टिपण्णी किए जाते रहते हैं। इसी नवम्बर की महिला संबंधी एक दूसरी बड़ी खबरों में पढ़ने को मिला कि ‘जींस, टाइट कपड़ों की वजह से होते महिलाओं के रेप, यानी आए दिन हो रही रेप की खबरों को ध्यान में रखते हुए एक याचिकाकर्ता ने मुंबई हाईकोर्ट में एक अजीब तरह की दलील दी।’ वही कपड़ों से जुड़ी ही एक अन्य खबरों में यह खबर भी महिला पर वंदिशें की कहानी ही बताती है जिसके तहत ‘काशी विश्वनाथ मंदिर में ड्रेस कोड लागू करने की बात की गई थी, विदेशी महिलाओं तक को साड़ी पहनकर दर्शन करने पर जोर दिया गया था..., ये अलग बात कि इसका विरोध होने पर इसे फिर से हटा दिया गया, मगर इस तरह की खबरें पुरूषों का महिला के प्रति कुत्सित सोच ही अभिव्यक्त करता है...जरा गहराई में जाए तो पता चलेगा कि जींस और सूट पुरूष की जबरदस्ती को अधिक देर तक रोकता है क्योंकि इसमें  पुरूष को रेप के लिए जींस या सलवार खोलना पड़ेगा बल्कि साड़ी में उसके लिए बिना खोले ही यह आसान रहेगा’...व इस ड्रेस में पुरूष से बचने के लिए दौड़ना भी मुश्किल। जो मर्द या मर्दवादी समाज साड़ी को पुरूष के अकार्षण से बचाव की बात बताकर या इसे भारतीय समाज का गौरव कह कर संबोधित करते हैं, वो शायद इस बात को छुपा लेना चाहते हैं कि इस बहाने वो महिला को आसान रूप से उपलब्ध बनाए रखना चाहते हैं, महिला क्या पहने, क्या करे, इसे वो खुद निर्णय ले, किसी पुरूष को या किसी और को यह अधिकार नहीं। 
ऐसा क्यों है कि पुरूष आज भी महिला के पर कतरने के पीछे घूम रहा है, सिर्फ बात कपड़े की नहीं, उसके खाने-पीने व अन्य व्यवहारों पर भी उसके तरफ से गन्दे टिपण्णी आते रहते हैं। मैं तो कहती हंूं कि महिला के लिए कोई सीमांकन ही गलत है, उसे भी उतना ही मुक्त छोड़िये जितना पुरूष को छोड़े हुए हैं। जो संपूर्ण स्वतंत्रता सामाजिक, मानसिक और आर्थिक रूप से पुरूष को मजबूत बनाते हैं, वही स्वतंत्रता महिला को भी बनाएंगे। जब तक उस पर दवाब बना रहेगा, महिला का पूरा विकास संभव नहीं।
पुरूषों को व पुरूषवादी समाज को यह समझना चाहिए कि जो समाज महिला को दबाता है, वह प्रगतिशील और विकसित समाज नहीं कहा जा सकता क्योंकि किसी भी समाज में स्त्री-पुरूष दोनों ही आते हैं और जब तक दोनों का विकास ना हो, समाज भी विकसित नहीं कहा जाएगा। 
इसके अतिरिक्त जब महिला भी किसी परिवार में सशक्त होती है तो वह परिवार अधिक तेजी से प्रगति करता है क्योंकि उस परिवार के विकास में पुरूष के अलावा महिला की भी आकांक्षाएं, संकल्प और बेहतर कोशिश शामिल हो जाते हैं...मां के सशक्त रहने से बेटी को भी मां जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है और यह प्रोत्साहन और आगे बढ़ने के लिए एक महŸवपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है और समाज की दूसरी महिलाए भी देखा देखी से आगे बढ़ने की शिक्षा ले पाते हैं। इसके अतिरिक्त मजबूत मां की बेटी ही नहीं, बेटा के भी बली और बुद्विमान होने के चांसेज बढ़ जाते हैं।
अतः जरूरी है कि इस बात को पुरूष व पुरूषवादी समाज अच्छे से समझ ले और महिला के प्रति दोयम भाव रखना बंद करे, तभी समाज का संपूर्ण विकास और कल्याण संभव है।


साथ ही महिलाओं को भी चाहिए कि अपनी अच्छी छवि के लिए वे सकारात्मक प्रयास करें और अपने में वो काबिलियत लाए ताकि पुरूष  उस पे जुल्म ना कर सके और अगर करे तो उससे बचना उसे आए, सम्मान भीख में नहीं मिलती, उसके लिए उस लायक बनना पड़ता है।  कुल मिलाकर, समाजिक प्रगति के लिए, महिला के प्रति जो कुरीतिपूर्ण व्यवहार सदियों से चला आ रहा है, उससे इतर मन बदलने की जरूरत है, अर्थात् स्त्री-पुरूष के संपूर्ण विकास के लिए महिला के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की जरूरत है व इस कार्य में खुद महिला, पुरूष, नेता व प्रशासन सहित सभी के योगदान चाहिए। जब सब मिलकर इस दिशा में काम करेंगे तो परिवार, समाज व देश सब सुंदर होगा व जिसमें सभी खुश रहेंगे।






Tuesday, 8 September 2015

कन्या सशक्तीकरण का सवाल कठघरे में --कुलीना कुमारी

कन्या सशक्तिकरण मतलब कन्या या बालिका की मजबूती और उसके विकास के लिए किया जाने वाला तमाम प्रयास। इस हेतु राष्ट्रीय व राज्यीय स्तर पर योजनाएं भी कई है और प्रावधान भी कई मगर आज भी भारतीय परिदृश्य में कन्याओं या बालिकाओं की दुर्दशा हमें बता रही है कि इसका बहुत लाभ बच्चियों को नहीं मिल पा रहा है। पुरूषवादी नीति, महिलाओं के प्रति दुर्भावना और उसे दोयम दर्जे का माने जाने वाला भाव जैसे नकारात्मक माहौल का शिकार आज भी बड़ी संख्या में लड़कियां है।

2011 की जनगणना के अनुसार, 1000 लड़कों की तुलना में मात्र 940 लड़कियां है, यद्यपि यह 2001 की तुलना में 7 अधिक है। मगर लड़कों से कम लड़कियांें की संख्या हमें बताती है कि अभी भी लड़कियों के लिए माहौल अच्छा नहीं। कन्या भ्रूण हत्या प्रतिबंधित किए जाने के बाद भी इसका चालू रहना या फिर विभिन्न तरीकों के माध्यम से लड़की बच्चों के प्रति समाज में जारी अरूचि का यह संकेत है।

शिक्षा के स्तर में भी बालिका और बालक के बीच बड़ा गैप है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार, भारत के प्रायमरी और सेकेंडरी एजुकेशन के पब्लिक और प्रायवेट स्कूली मापन के हिसाब से इसका अनुपात 2011 में 98.40 था। यह आंकड़ा बताता है कि आज भी शैक्षिक स्तर पर एक ही घर में कैसे लड़का-लड़की में भेद किया जाता होगा या किया जाता है, तभी तो इन दोनों के अनुपात में इतना बड़ा फर्क है या लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में इतना कमतर है।

प्रायः यह भी देखा गया है कि अभिभावक बेटा बच्चा को प्रायवेट स्कूल में भेज देते हैं मगर बेटी को सरकारी में क्योंकि सरकारी स्कूल में एक प्रकार की मुफ्त शिक्षा मिलती है जबकि प्रायवेट स्कूल मंहगी। बेटी के लिए क्यों पैसे खर्च करें। ऐसे कितने ही परिवार पाए जाते हैं और जिन्हें बेटा’-बेटी दोनों है, उनका लड़का प्रायवेट स्कूल में पढता है बल्कि बेटी सरकारी स्कूल में। वैसे सरकारी स्कूल मे किताबें व ड्रेस तथा पढ़ाई के खर्चे के लिए विद्यार्थी को कुछ सहयोग राशि भी मिलता है, और लंच भी। मगर इसके बावजूद भी समय-समय पर सरकारी स्कूल के शैक्षिक गुणवŸाा पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहता है। कैसे लगाया भी ना जाए, शिक्षक बच्चे का अनुपात बहुत कम और भवन, शौचालय और साफ-सफाई की व्यवस्था भी ठीक नहीं पाई जाती, उसकी सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में तो और बुरा हाल है। बहुत सारे स्कूल ऐसे पाए जाते हैं, जिसे बाऊंड्री बॉल से घेरा नहीं जाता और सिक्यूरिटी गार्ड की व्यवस्था नहीं रहती। इसीलिए सरकारी स्कूल में भी लड़की की सुरक्षा संशय में रहती है और वहां से बच्चे चोरी की घटनाएं भी सुनने को आती रहती है। सरकारी स्कूल के इस अव्यवस्था से कुछ बड़े नुकसान, एक तो सुरक्षा में प्रश्न चिन्ह लगने से अभिभावक बेटियों को स्कूल नहीं भेजना चाहेंगे या कम भेजेंगे, दूसरा अव्यवस्था से शिक्षण प्रक्रिया को ग्रहण करने में व पठन-पाठन को बेहतर तरीके से समझने में दिक्कत होगी क्योंकि परेशानियां नई चीजें को ग्रहण करने में व उसके प्रति रूचि पैदा करने में कठिनाइयां लाती है। तीसरा, शिक्षक के कम होने से व पूरा अध्ययन अध्यापन ठीक तरीके से नहीं कराए जाने से लड़की बच्चों के प्रतियोगिता में बेहतर कर दिखाने मंे दिक्कत होगी। वैसे जहां भी लड़कियों को मौका मिला है, उसने बेहतर परफॉरमेंस करके दिखाया है, शिक्षा व यूपीएस सी जैसे परिक्षा में टॉप कर वह दिखा चुकी है कि उसे मौका मिले तो सबसे आगे आ सकती है मगर इसके लिए मौका और लड़कियों के लिए बेहतर माहौल जरूरी है। मोदी द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की योजना का आरंभ बालिका सशक्तिकरण के उद्देश्य से किया गया है मगर इसका कितना लाभ मिला, यह तो भविष्य ही बताएगा। वैसे सिंगल लड़की के लिए भी कई सुविधाएं सरकार के तरफ से दी जाती है। शिक्षा लोन व विवाह के लिए भी कुछ राहत राशि संबंधी भी योजनाएं चल रही है। बालिका सशक्तिकरण के उद्देश्य से  प्रधानमंत्री द्वारा ‘कन्या समृद्धि योजना’ का भी शुभारंभ किया गया है। इसमें रेट ऑफ इंटेरेस्ट अधिक मिलते हैं। मगर प्रश्न तो यह भी है कि जिस अभिभावक के पास वह न्यूनतम एमाउंट जमा करने की भी क्षमता नहीं, उन लड़कियों को इसका लाभ कैसे मिलेगा। और कोई भी योजना, जब इसकी जानकारी ना हो तो इसका लाभ कैसे लिया जा सकता है। अभी भी ग्रामीण इलाके में अशिक्षा, अंधविश्वास और महिलाओं को दोयम दर्जें की माने जाने वाली कुरीतियां हावी है और बहुत से गांवों में बिजली और कम्प्यूटर की सुविधा सरल नहीं तो कैसे इसका लाभ लड़की को मिले। योजनाएं चल रही है मगर इन कमियों की वजह से सभी लड़कियों तक यह नहीं पहुंच पा रही है। बालिका सशक्तिकरण की राह आसान नहीं।

वैसे  स्वास्थ्य के स्तर पर राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम चलते हैं और किशोर स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं भी। मगर एक आंकड़े के अनुसार, विश्व की 30 प्रतिशत बच्चे कुपोषित अगर भारत में पाए जाते हैं तो भारतीय बच्चों के स्वास्थ्य का स्तर आराम से लगाया जा सकता है।

ऐसे ही चाइल्ड लेबर भी एक बड़ी समस्या है। 2011 के जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, 5-14 साल के बच्चे जो कार्यरत है, उनकी संख्या 43.53 लाख पाई गई। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में भारत, चाइल्ड लेबर के रूप में सबसे बड़ा बल है। यह आंकड़े कामकाजी बच्चों की स्थिति के साथ बहुत छोटी उमर में ही कैसे उसे झमेले में धकेला जा रहा है, उसका प्रमाण है। सरकारी तंत्र और प्रशासन मौन के रूप में अपना रोल जैसे निभा रहे हैं। रेलवे स्टेशन, रेड लाइट और अब मेट्रो स्टेशन पर भी बच्चों को भीख मांगते या विभिन्न प्रकार के सामान बेचते देखा जा सकता है। अगर इसपे नियंत्रण की मंशा होती सरकार और कानून व्यवस्था की तो ऐसा हाल नहीं होता। प्रश्न तो चाइल्ड लेबर को पकड़कर रखे जाने और उसकी शिक्षा और विकास के लिए कार्यरत तथाकथित एनजीओ पर भी है, जिन बच्चों को पकड़कर बच्चों के आश्रय स्थल में रखा जाता है, वहां भी बच्चों की स्थिति प्रायः अच्छी नहीं पायी जाती। बच्चों के लिए कार्यरत कुछ एनजीओ में ही बच्चों पर जुल्म करते हुए देखा गया और एक सर्वेक्षण के दौरान पाया कि वहां बच्चों से खाना बनवाया जा रहा था और विभिन्न तरह के कार्य करवाए जा रहे थे। रिपोर्ट से यह भी पता चला कि कितने ही बच्चे मौका मिलते ही भाग जाते हैं। ऐसा क्यों होता है, सोचना मुश्किल नहीं।

बच्चों की सुरक्षा और व्यापार भी एक बड़ी समस्या है। 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अनुमानतः 135,000 बच्चे हर साल ट्रैफिक्रिग के शिकार होते हैं। ये बच्चे बंधुआ मजदूर, घरेलू नौकर, भीख मांगने या फिर सेक्सुअली कार्य के लिए रेड लाइट एरिया में बेच दिए जाते हैं।
ऐसे ही लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी सोचनीय स्थिति है।  यूनिसेफ द्वारा किए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15-19 साल की 5 प्रतिशत भारतीय लड़कियां यौन हिंसा की पीड़ित पाई गई।
ऐसे ही बाल विवाह भी भारत मंे जारी जबकि यहां भी कानूनी रूप से प्रतिबंधित है । एक आंकड़े के अुनसार, विश्व में होने वाले तमाम बाल ,विवाह में से 40 प्रतिशत भारत में होते है। राजस्थान, आंध्र प्रदेश, बिहार, उŸार प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि बाल विवाह में आगे है।

मगर कन्या सशक्तिकरण के लिए सफर यही तक नहीं और कठिनाइयां भी कम नहीं। इन तमाम दिक्कतों के अलावा लड़की का शादी के बाद दूसरे घर जाना, और लड़की की इज्जत बनाम सुरक्षा का प्रश्न घरेलू और सामाजिक स्तर पर हावी है। पराया धन कहे जाने से मां-बाप भी उसे जैसे पराया ही समझ लेते हैं और शायद अधिकतर घरों में लड़की के लिए उतना ही शिक्षा, विकास और अधिकार जरूरी समझा जाता है, जितना शादी के लिए जरूरी है। वही बेटा बच्चा को अपना समझा जाता है और उसके विस्तार और विकास की असीमित कोशिश की जाती है। फिर लड़की के लिए सुरक्षा का प्रश्न उसके दायरे सीमित कर देते हैं और उसे रेप और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं से बचाने की भावना प्रबल हो जाती है। वैसे उसके दायरे इसलिए भी सीमित कर दिए जाते हैं  और उसे मां-बाप या समाज के द्वारा ही गुलाम बनाए रखने की मंशा कायम रहती है ताकि ससुराल में बिटिया बस सकें और वहां से लड़ झगड़कर या उनका जुल्म सहने से मना कर वापस ना आए। क्योंकि समाज
पुरूषवादी तो महिला को हिस्सा और हक ना मायके वाले को देने की मंशा हुई है और ना ही ससुराल वालों की।

अतः घरेलू, सामाजिक और कानूनी जब तीनों प्रकार की स्थितियां लड़कियों के अनुकूल होगी, तभी  कन्या सशक्तिकरण के रास्ते अधिक तेजी से खुल पाएंगे। यद्यपि जागरूकता आई है और पहले से बेहतर स्थिति भी लड़कियों के लिए हुई है। कन्या सशक्तिकरण योजना व सरकारी सुविधा ने महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार आसानी से खोले हैं और लड़की के लिए लाभ की योजना ने मां-बाप को लड़की को आगे कर उसका लाभ उठाना सिखा रहा है और अवसर मिलने पर लड़कियां खुद को साबित भी कर रही है मगर योजनाआंे का लाभ तक ही अगर बेटी को आगे बढ़ाया जाए तो निश्चित ही अब भी लड़कियों की राहंे दुर्गम है, और इनसे आगे निकलने के रास्ते अभी और तलाशने होंगे। इसके लिए सरकारी नीतियों के साथ-साथ घरेलू और समाजिक नियमांे की पुनः समीक्षा और लड़कियों के प्रति दोयम दर्जे वाला भाव दूर करने हेतु अभी और पहल करने की जरूरत है।

Thursday, 3 September 2015

महिला स्वतंत्रता के मायने -कुलीना कुमारी

भारत अपना 69वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है, ये बहुत खुशी और गौरव की बात है कि हम आजाद देश के वासी अब कहलाते हैं मगर क्या इस आजाद देश में महिलाएं भी आजाद है, उसे भी स्वतंत्रता मिली है क्या? इस सवाल की पड़ताल करना ना केवल किसी बुद्धिजीवी व विचारक के लिए जरूरी है बल्कि देश की आधी आबादी महिला की होने की वजह से भी आवश्यक है।

यद्यपि मुट्ठी भर महिलाओं की स्थिति अच्छी दिख रही है और विभिन्न क्षेत्रों में वे अपने को स्थापित भी करते दिख रही है मगर अधिकतर महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है। बहुसंख्य महिलाओं की गुलाम और पुरूषों की तुलना में कमतर स्थिति देखते हुए कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता दिवस का मतलब पुरूषों के लिए ही है, बहुसंख्य महिला के लिए इसका जश्न मनाने का समय अभी नहीं आया है।

वैसे जब बात चल रही है स्वतंत्रता की तो क्यों न इसका अर्थ समझ लिया जाए। सैद्धांतिक रूप से स्वतंत्रता के जो भी मायने हो मगर व्यवहारिक रूप से स्वतंत्रता का मतलब अपने मन से खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की आजादी के साथ-साथ अपने पसंद का साथी चुनने का अधिकार शामिल है, इसमें अपने मन से जीवन जीने का तरीका के साथ-साथ अपने विकास व खुशी के लिए नौकरी व अन्य सुविधाएं चुनने का अधिकार और अपने को अभिव्यक्त करने का हक जैसी तमाम बातें शामिल मानी जा सकती है। ये सब चीजें पुरूष आसानी से प्राप्त कर लेते हैं मगर महिला को इस सब मामले में पुरूष का पिछलग्गु बना दिया है और उसके लिए वही अधिकार उपयुक्त समझा गया है जिसमें पुरूष सदस्य का मुहर लग जाए। गिनी-चुनी महिलाओं को ही ये परमिशन मिल पाता है या वे ले पाती है व उन्हें अपने मन से काम करने की या समाज के बीच उठने-बैठने की आजादी देखी जाती है।
अधिकतर महिला आज भी दोयम दर्जे का जीवन जीते देखी जा रही है। महिला के लिए घर की चारदीवारी ही सबसे सुंदर व सुरक्षित क्षेत्र मानी गई है, इसके अंदर वो चाहे तो कुछ भी कर लें, बाहरी कार्यों के लिए पुरूष की परमिशन और उसका या किसी का साथ जरूरी माना जाता है जैसे वह व्यक्ति ना होकर एक वस्तु हो, जिसे अकेले जाने पर कोई लेकर उसे उड़ जाएगा। यद्यपि कभी कभार अनहोनियां भी होती है मगर वो तो किसी के साथ भी हो सकती है। ठीक है, छेड़छाड़ या रेप की घटनाएं महिलाओं के साथ ही होती है या हो सकती है, मगर इससे तो डटकर लड़ा जा सकता है, अगर कोई इसकी शिकार हो भी जाए तो क्या यह आजादी से बड़ी तो नहीं जो इससे डरकर घर में बंद रहना या गुलाम रहना स्वीकारा जाय, गलत है यह। जो इज्जत के नाम पर महिलाओं को गुलाम बनाए रखने की यह हथकंडा अपनाते हैं, विशेषकर उनसे बताना चाहती हूं कि इस इज्जत का मखौल व उपयोग या दुरूपयोग सबसे ज्यादा घरवाले व महिला के जानने वाले ही करते हैं, रेप के आंकड़े बताते हैं कि 4 में से 3 रेप के आरोपी तो महिला के परिजन या पहचान के लोग ही पाए जाते हैं, फिर भी महिला को क्यों इसका डर दिखाया जाता है और दबाकर रखने की कोशिश की क्यों की जाती है? वजह साफ है, किसी न किसी वजह से पुरूषवादी सŸाा द्वारा उसे वश में रखने का प्रयास किया जाता है और इसमें पुरूषवादी समाज काफी हद तक सफल भी है। महिला को बंद करके रखने की बड़ी वजह यह हो सकती है कि पुरूषवादी समाज डरता है कि उसके काले कारनामे महिला उजागर ना कर दे और फिर उसका रीति-रीवाज या धर्म के नाम पर उसका उल्लू सीधा करने में दिक्कत ना हो जाए। शायद इसलिए वह महिला पर पाबंदियां लगाता है कि बाहर-भीतर करने से कही महिला जागरूक और अपने अधिकार के प्रति प्रतिबद्ध ना हो जाए और फिर उसकी जुल्म और गुलामी मानने से इंकार ना कर दें, इसीलिए पुरूषवादी समाज महिला को महिला को बंद करके रखना चाहता है, मगर सवाल यह भी है कि महिला ही क्यों ये सारी वंदिशें सहती है? वे कौन सी वजह है, जिस कारण आज भी महिला गुलामी में जीने के लिए अभिशप्त है? क्या महिला इतनी कमजोर है कि वह आजाद हो ही नहीं सकती, ऐसे कौन से जकड़न और मानसिकता है जो महिला को आज भी गुलाम रहने के लिए मजबूर करती है? अथवा वे कौन कारक है जो महिलाओं के विकास में अवरोधक है और उसके सशक्तिकरण के राह में बाधक बने हैं। ऐसे तमाम सवाल है, जिसकी पड़ताल किया जाना जरूरी है। इसी परिप्रेक्ष्य पर एक नजर.. वैसे तो महिलाओं की गुलामी की कई सारी वजह हो सकते हैं मगर मेरे ख्याल से इसके कुछ प्रमुख वजह है, जिसकी वजह से आज भी महिला गुलामी में जीने के लिए अभिशप्त है?

पहचान का अभाव

आज भी हमारे समाज में बेटी का जन्म खुशी की बात नहीं मानी जाती और इसके अतिरिक्त उसकी पहचान के लिए भी कोई प्रयास नहीं किया जाता, लड़की किसी की बेटी, बहन, पत्नी या मां होती है। शायद लोगों को यह मजाक लगता हो मगर अधिकतर लोग जानते हैं कि विशेषकर ससुराल में उसे अपने पति की पत्नी या बच्चे की मां के रूप में ही संबोधित किया जाता है। जब उसकी पहचान ही नहीं तो आजादी किस बात की, जिसकी पहचान होती है, उसे अपनी आजादी लेना भी आ जाता है मगर बचपन से ही अपने पहचान के प्रति प्रोत्साहित करने वाले बहुत कम खुशनसीब बेटियां पाई जाती है और ऐसे ही खुशनसीब बेटियां अपनी गुणात्मक शिक्षा, बुद्धिमानी से आजाद व सुंदर जीवन जी पा रही है।

अशिक्षा, अव्यवहारिक शिक्षा और दोषपूर्ण परवरिश
शिक्षा की कमी, पुरूष पर निर्भरता और महिला में आत्मबल का अभाव भी उसे गुलाम जीवन जीने के लिए मजबूर करता है। ना केवल इतना बल्कि एक बहुत जरूरी और नोट करने वाली बात यह भी है कि क्यों शिक्षित महिला भी जिसने उच्च शिक्षा भी प्राप्त कर रखी है, क्यों गुलाम होकर जीवन जी रही है, इसकी एक बड़ी वजह यह है कि उसने शिक्षा तो प्राप्त की है, मगर शिक्षा प्राप्त की है सिर्फ किताबी, उसे जीवन की व्यवहारिकता का ज्ञान नहीं है और जब इसका ज्ञान नहीं है तो निश्चित ही वह पढ़ लिखकर भी एक प्रकार का मूर्ख ही है और मूर्ख पर बुद्धिमान शासन करेगा ही और इसलिए भी बड़ी संख्या में शिक्षा का अच्छा-खासा प्रतिशत होने के बावजूद भी महिला गुलाम है और पुरूषों के द्वारा हैंडल की जा रही है।
दोषपूर्ण परवरिश का मतलब यह कि एक ही घर में बेटा-बेटी के खान-पान और स्कूली शिक्षा में भी विभेद किया जाना, न केवल इतना बल्कि बेटा बच्चा को क्षमतावान और बेटी होने की वजह से लड़की बच्चा को कमतर शुरू से करार देना, उसकी मांग और जरूरत को शुरू से नजर अंदाज करना जैसे तमाम बातें लड़की को अपने ही नजर में गिरा देता है और दवाब में जीते जीते वह स्वयं भी लायक समझना भूलने लगती है, जब वह लायक नहीं तो अधिकार कैसा और इसकी मांग भी क्यों? दोषपूर्ण परवरिश एक तरह का सम्मोहन है जो उसे गुलाम जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है और इसे वह जीते रहती है, शायद आजीवन।

महिला की चुप्पी, धैर्य या बेइज्जती सहने को इज्जत या बड़प्पन का नाम दिया जाना

महिला ममतामयी, सहनशील, प्रेममयी होती है, जैसे शब्द महिला के विकास और बराबरी के अधिकार में बाधक है। यह शब्द तभी सार्थक है जब सामने वाला भी ऐसा ही हो, नहीं तो इज्जत और प्रतिष्ठा के नाम पर इन शब्दों का काम सिर्फ पुरूष व पुरूषवादी लोगों द्वारा अपना उल्लू सीधा करने के लिए होकर है और कुछ नहीं। जबकि सच यही है कि अगर महिला में प्रेम, ममता जैसे भाव तो उसी महिला में गुस्सा और विद्रोही भाव भी है अगर उसके इन गुणों का अधिक गुणगान किया जाता है स्वभाविक नहीं माना जाता है, उसकी प्रशंसा कर उसे उल्लू बनाए रखने का प्रयास किया जाता है ताकि वह अपने प्रशंसा में ही मगन रहे और वास्तविकता से आंखें मूंदी रखें। जब तक महिला अपनी दोनों आंखें खोल कर नहीं रहेंगी और दिमाग को भी दुरूस्त नहीं रखेंगी, आजादी उसकी संभव नहीं।

जागरूकता और महिला से संबंधित अधिकार और कानून से अनभिज्ञता
ये चीजें महिला को अपने तथा आसपास के वातावरण के प्रति एक पैनी दृष्टि रखने की जरूरत पर जोर देता है। साथ ही महिला को जागरूक करने के लिए उसके लिए जागरूकता अभियान चलना भी जरूरी होगा। जब महिला को खुद ही अपना अधिकार पता नहीं होगा, वह कैसे अपने लिए आवाज उठा सकती है और कैसे मूल अधिकार में हनन होते देख विरोध कर सकती है। इसलिए हर महिला को अपना कर्Ÿाव्य ही नहीं, अपने अधिकार के बारेे में भी पता होना चाहिए।

विकल्पहीनता और आर्थिक निर्भरता की कमी

महिला के शरीर को मंदिर जैसे पूजनीय समझा जाना और वह भी ऐसा मंदिर जिसमें उसका वैध साथी को छोड़कर कोई और छू ले तो अपवित्र हो जाए। वैसे किसी अन्य से संबंध हो जाने पर गर्भ की आशंका और आगामी बच्चें के प्रति जिम्मेदारी जरूर अवैध संबंध से दूर रहने की जरूरत पर जोर देता है मगर सामाजिक जरूरत इसलीए भी उसे दूर रहने की सलाह या मजबूरी देता है कि चाहे बच्चा हो या ना हो, मगर समाज किसी अन्य के साथ संबंध बन जाने पर ऐसी लड़की को अपवित्र करार देता है और उसकी शादी होनी मुश्किल हो जाती है, उसे कोई स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो पाता। ये वजह जहां मायके में लड़की को सीमित और सुरक्षित जगहों पर ही यात्रा करने के लिए उसे सचेत करते हैं, वही ससुराल में यह वजह उसे हिंसक पति या साथी को भी झेलने के लिए मजबूर करता है। दूसरा क्योंकि उसके पास अपना घर नहीं होता, मायके वाले भी सिर्फ बेटी की शादी तक की जिम्मेवारी रखते हैं, उसे घर या मजबूती गिफ्ट करने के बारे में नहीं सोचते हैं। इसलिए भी गुलामी के साथ जीने में ही उसे भलाई लगती है, बजाय अपनी आवाज उठाकर या जुर्म के विरूद्ध बोलकर अपने लिए नई मुसीबत मोल लेना। आर्थिक निर्भरता की कमी से तात्पर्य बड़ी संख्या में महिलाओं का कामकाजी नहीं होना है। अगर महिला अपनी जिम्मेदारी उठाने में खुद सक्षम नहीं है और उसे भरण-पोषण के लिए पति या ससुराल वालों पर निर्भर रहना पड़ रहा है तो उसकी स्वतंत्रता की मांग शायद बेमानी है।

शारीरिक रूप से प्रकृतिपरक महिला का पुरूषों की तुलना में कमजोर होना व विरोध की स्थिति में शारीरिक हिंसा का डर

ये वो बातें है जो महिला को पुरूष का शासन चुपचाप मानने के लिए मजबूर करता है क्योंकि कितने ही परिवार में महिला-पुरूष में झगड़ा होने पर वह खतम पुरूष द्वारा महिला पर हाथ उठाने से खतम होता है और शायद गिने-चुने महिला ही ऐसी होगी, जिसे पति का या पुरूषवादी समाज का यह थप्पड़ या प्रसाद न मिला हो। अलग बात कि कोई स्वीकारे, कोई न स्वीकारे और शायद ये इतनी कॉमन बातें है कि इस पर शायद चर्चा भी नहीं होती। हो भी कैसे, महिला को पता होता है कि वह शारीरिक ताकत में पुरूष से कमतर है, तब अगर पुरूष ने विरोध करने पर हाथ उठाया तो बदले में अगर वह भी उठाएंगी तो वह जीत नहीं पाएगी, ऐसी परिस्थिति में पुरूष की सŸाा चुपचाप स्वीकार करना ही विकल्प बचता है, अगर अलग रहने का उसके पास ताकत नहीं है।

महिला का खुद पर आत्मविश्वास का नहीं होना

महिलाओं में सबसे आवश्यक जो होना चाहिए, वह है उसका खुद पर आत्मविश्वास जो प्रायः महिला में नहीं होता है, जब महिला खुद ही ये समझ ले कि वह पुरूष से कमतर और जो पुरूष कर सकती है, वह खुद नहीं कर सकती तो कैसे उसकी आजादी संभव है। बाहरी काम में पुरूष की मदद जरूरी समझना व अकेले कही जाने से घबराना, यह उसकी हीनता का प्रतीक है। हीनता का यह उदाहरण भी कि अगर ससुराल में कोई विवाद हो तो वह उस समस्या का समाधान खुद अपने सुझ-बूझ व ज्ञान से नहीं करना चाहती, और चाहती है कि इन समस्याओं का समाधान उसके पिता या भाई आकर करे। ऐसी विभिन्न प्रकार की घटनाएं बताती है कि महिला में खुद पर विश्वास नहीं है और वह अपने से ज्यादा अपने पिता या भाई या पुरूष जानकार पर भरोसा कर रही हैं और अपनी समस्या सुलझाने के लिए भी वह दूसरों का मुंह ताक रही है। अर्थात् जब तक उसे खुद पर भरोसा नहीं होगा, वह कोई भी जंग कैसे जीत सकती है और कैसे गुलामी को दूर कर सकती है और कैसे पा सकती है अपना अधिकार।

अर्थात् उपरोक्त तमाम कमियां दूर हो सकती है, अगर महिला खुद पर विश्वास करना सीख जाए, और बारी-बारी से अपने तमाम कमियों को दूर करना शुरू कर दें तो महिला भी निश्चित ही खुश, सुखद व स्वतंत्र जीवन जी सकती है। महिला पक्षधर और अच्छे लेखकों का भी कर्Ÿाव्य कि महिलाओं की संघर्ष व उसके आजादी के कहानी को अधिक से अधिक जगह दे। महिलाओं में स्थित इन सब कमियों को उसे प्रोत्साहित कर और उसे आगे बढ़ने के अवसर मुहैया कराकर रोका जा सकता है। वैसे पुरूषवादी यह समाज महिलाओं के गुलामी से नहीं, उसकी फरफड़ाते पंख देख डर रहा है। जैसे-जैसे विज्ञान और जागरूकता की हवा महिला तक भी पहुंच रही है, महिला सबल हो भी रही है और सशक्त महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। मगर अभी मंजिल दूर है और अपनी आजादी के लिए महिलाओं को अभी कितने ही कठिन सफर पूरे करने हैं।

महिला अधिकार अभियान, अगस्त 2015 का संपादकीय..

Tuesday, 16 June 2015

पीछे क्यों हो पुरुषों से -कुलीना कुमारी

पुरुष के साथ ही आयी हो तो पीछे क्यों हो पुरुषों से
बल-बुद्धि में कम नहीं हो तो आहत क्यों हो बरसों से

घर में तुम्हीं क्यों रहो
क्यों सेवा तुम्हीं करो
खुद पे निर्भर तुम भी हो
कुछ अपना तुम भी करो
अपनी क्षमता से ज्यादा विश्वास नहीं है
पराधीनता से बढ़कर अभिशाप नहीं है
आजादी तुम्हें पुकारे, थाम लो उसको हरषों से
बल-बुद्धि में कम नहीं हो तो आहत क्यों हो बरसों से

शोषण जब तुम पर हो
कमजोर न खुद को जानो
बेइज्जत जो तुम्हें करे
सिंदूर न उसको मानो
जो तुम्हें सताए
सताओ उसको तुम भी
जो तुम्हे गिराए
गिरा दो उसको तुम भी
तलवार से जो तुमको मारे, तुम मारो उसको फरसों से
बल-बुद्धि में कम नहीं हो तो आहत क्यों हो बरसों से

अगर बदलना चाहे तो
तकदीर बदल जाता है
सच पर चलने वाला तो
तस्वीर बदल देता है
पर कही कमी है तुझमें
जो फल अब तक नहीं मिला
जिसके तुम हकदार हो
वो हक अब तक नहीं मिला
कहो इन्कलाब से तुम क्यों डरो, पूछे मन मेरा अरसों से
बल-बुद्धि में कम नहीं हो तो आहत क्यो हो बरसों से

पुरुष के साथ ही आयी हो तो पीछे क्यों हो पुरुषों से
बल-बुद्धि में कम नहीं हो तो आहत क्यों हो बरसों से

पर्यावरण स्वच्छता-सबका दायित्व -कुलीना कुमारी

हर साल 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। पर्यावरण का सीधा संबंध प्रकृति से है और इसके बिना मानव का अस्तित्व नहीं। अथवा अगर पर्यावरण प्रदूषित रहेगी तो उसका असर मानव जीवन पर भी पड़ेगा ही। पर्यावरण के अंतर्गत हमारे आस-पास का सारा माहौल शामिल है-जैसे जल, वायु, भूमि-इन तीनों से संबंधित कारक तथा मानव, पौधे, सूक्ष्म जीव व अन्य जीवित पदार्थ इस पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं। मगर मानव द्वारा आवश्यकता से अधिक प्रकृति का दोहन या उसके विभिन्न कार्य-कलापों की वजह से प्रकृति के तीन मुख्य स्रोत, भूमि, जल तथा वायु प्रदूषित होता जा रहा है।
दिनोनदिन पर्यावरण की बिगड़ती हालात विश्व पटल पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टॉकहोम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया। इसमें 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया।
इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का जन्म हुआ तथा प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया गया। तथा इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाते हुए राजनीतिक चेतना जागृत करना और आम जनता को प्रेरित करना था।
उक्त गोष्ठी में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका विश्व के भविष्य पर प्रभाव’ विषय पर व्याख्यान दिया था। पर्यावरण-सुरक्षा की दिशा में यह भारत का प्रारंभिक कदम था। तभी से हम प्रति वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आ रहे हैं।
इस तरफ पहल करते हुए 19 नवंबर 1986 से पर्यावरण संरक्षण लागू हुआ।
उसके बाद से करीब करीब हर साल अपने भारत में पर्यावरण दिवस के अवसर पर कई प्रकार के सकारात्मक पहल की बात की जाती है मगर यह वास्तविकता के धरातल पर कम ही उसका उपयोग किया जाता है। आज भी भारत में पर्यावरण प्रदूषण एक बड़ी समस्या है व इसमें शिध्रातिशिध्र सुधार की बड़ी आवश्यकता है।

वैसे पर्यावरण प्रदूषण के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की चीजें शामिल हो सकती है मगर मुख्यतः इसे चार प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है

भूमि प्रदूषण

गंदगी विभिन्न प्रकार की बीमारियों की जड़ है। जबकि स्वच्छता हमारे अंदर सकारात्मक व स्वस्थ वातावरण प्रदान करता है। माननीय प्रधानमंत्री का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ इसी तरह का एक कदम है। मगर आज भी सार्वजनिक प्लेस पर विभिन्न प्रकार की गंदगी देखी जाती है। भारत गंदगी फैलाने में शायद अव्वल दर्जे के देशों में शामिल है, इसकी बड़ी वजह यह कि यहां नागरिक कर्Ÿाव्य का अभाव सा है। अगर कोई सार्वजनिक प्लेस पर गंदा फेंक दे तो उसे दंडित नहीं किया जाता और ना जुर्माना लिया जाता है, जबकि दूसरे देशों में सार्वजनिक स्थान को गंदा करने पर दंडित किया जाता है  तो वहां की जनता अपने देश में साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखती है।
साथ ही प्लास्टिक का थैले, बोतल तथा अन्य प्रोटक्ट में इसका अधिकााधिक प्रयोग भी पर्यावरण के लिए खतरा है, क्योंकि इसका असानी से  अपघटित नहीं होता व हजारों वर्षों तक यह भूमि में यूंही दबा रहता है व भूमि व पानी को खराब करता रहता है। साथ ही इसमें इतना जहरीला तŸव पाया जाता है कि प्लास्टिक खाने से गायों व जानवरों की बीमारियां व मौत तक हो जाती है, चिड़ियों तक को इसकी वजह से मरते हुए पाया गया है।
वैसे प्लास्टिक में रखे गरम खाने से भी व्यक्ति में विभिन्न प्रकार की बीमारियां होती है क्योंकि गरम अवस्था में खाने में प्लास्टिक के जहरीला तŸव मिल जाते हैं और वही भोजन ग्रहण करने पर व्यक्ति को विभिन्न प्रकार का नुकसान होता है जैसे कैंसर, और बहुत सारी त्वचा से संबंधित बीमारियां हो जाती हैं।
इसके अतिरिक्त खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए मानव अधिकाधिक रूप से कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करता है जिससे भूमि की उत्पादन क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है और एक दिन जमीन बंजर हो जाती है। इसका दूसरा दुष्प्रभाव कि अन्न और फल भी हमें दूषित प्राप्त होते हैं जो हमारे शरीर के लिए नुकसान दायक है।
भूमि प्रदूषण से नियंत्रित होने के कुछ उपाय

1. हमारे भारतीयों के लिए भी नियत किया जाना चाहिए कि गंदगी हम एक नियत स्थान या स्थानीय कूड़ा घर में ही अपने घर की गंदगी को डाले। इधर-उधर कूड़ा डालने पर दंडित किया जाना चाहिए या जुर्माना लगाया जाना चाहिए।
2. प्लास्टिक पर एक कठोर कानून बनना चाहिए क्योंकि यह सबसे ज्यादा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। जब तक बहुत जरूरी ना हो, इसका प्रयोग ना किया जाय और इसके जगह पर जूट या कपड़े का थैला का उपयोग किया जाए और उसे प्रोत्साहित किया जाए।
3. खाद्दपदार्थ को उपजाने के लिए खेतों में हमें रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग ना करके प्राकृतिक उर्वरक जैसे गोबर तथा प्राकृतिक उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।

जल प्रदूषण

फैक्ट्रियों, कंपनियों व घरों के अपशिष्ट पदार्थ जो नदियों में मिलता है, उससे जल प्रदूषित होता है, या फिर जल परिवहन द्वारा रिसने वाला रसायनिक तŸव आदि भी जल प्रदूषण का कारण है।
 धार्मिक अवसरों पर पूजा पाठ का सामान फूल, राख व मूर्Ÿिायों का विर्सजन भी जल को प्रदूषित करता है। साथ ही हमारे यहां जल को रिसाइक्लिंग की अच्छी योजना नहीं है, ंइस वजह से साफ पानी नहीं मिलता, साथ ही आज भी कितने ही जगह पर घर तक स्वच्छ पानी पहुंचाने के लिए प्रोपर वे में पाइप लाइन नहीं बिछाया गया, जहां पाइपलाइन गई भी, वहां सीवर व पानी के पाइप के बीच उचित दूरी नहीं रखी गई है, जिससे कितनी ही बार गंदा पानी सप्लाई हो जाता है और मजबूरन लोग जीने के लिए गंदा पानी पीन को अभिशप्त है और गंदे जल ग्रहण की वजह से कितनी ही बीमारियों के शिकार मनुष्य होता है। जल निकासी की व्यवस्था नहीं है इसलिए भी जहां तहां ग्रामीण इलाकों में पानी जमा हो जाता है, सड़ते हुए पानी और उसमें मिले कचड़े दूर्गांध का कारण है, जिससे मच्छर व कई तरह के बीमारियां पनपती है, या फिर वही पानी जमीन में चला जाता है। ये भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि हमारे देश में कही लोग पानी के लिए तरसते हैं और किसी राज्य में  हर साल आने वाले बाढ से भी कई तरह के नुकसान होती है।
जल प्रदूषण दूर करने के कुछ उपाय
फैक्ट्रियों, कंपनियों व घरों के अपशिष्ट पदार्थ को पानी में विसर्जित नहीं की जाय, व जल की स्वच्छता के लिए रिसाइक्लिंग की व्यवस्था की जाय।
नए घर बनाने का तभी परमिशन दी जाय जब उसमें सौर ऊर्जा व रेन हारवेस्टिंग भी उसमें शामिल हो।
नदियों को जोड़ने की योजना बनाई जाए क्योंकि कोई राज्य बाढ से परेशान होता है मगर कई राज्य पानी तक के लिए भी तरसता है, इसका ध्यान रखते हुए अधिकाधिक पानी आने की स्थिति में जिधर की नदियां सूखी हो, उस तरफ पानी को मोड़ दिया जाय, जिससे किसी भी राज्य को परेशानी ना हो।
गंदा पानी व उसके ग्रहण से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए वाटर प्यूरिफायर का उपयोग घर-घर में हो। बारिश का ध्यान रखते हुए जल निकासी की भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए।

वायु प्रदूषण

फैक्ट्रियों, इटा भटटी व विभिन्न प्रकार के गाड़ियों से निकलने वाले धुएं व किसी भी प्रकार के जलाए जाने वाले पदार्थ के धूएं, परमाणु व रसायनिक प्रयोग से निकलने वाले रेडिएशन आदि इसके मुख्य वजहों में शामिल है। जहरीले हवा से सांस की बीमारियां हो जात है।
नियंत्रण के उपाय
जनजीवन से दूर फैक्ट्रियां, ईटा भट्टी या धुएं निकालने वाली चीजें प्रयोग की जानी चाहिए, रसायनिक प्रयोगशाला भी मानव के समूहों से दूर रहना चाहिए।
मगर उसका दुष्प्रभाव कम करने के लिए उस आस-पास के क्षेत्र में बड़ी संख्या में पेड़-पौधे लगाई जानी चाहिए ताकि पेड़ पौधे वातावरण शुद्ध करे।
पेट्रोल या डीजल वाली गाड़ी के जगह पर सीएनजी वाली गाड़ी का उपयोग किया जाय, दिल्ली का प्रदूषण स्तर घटाने में सीएनजी गाड़ी का एक मुख्य भूमिका निभाई है। इसे उदाहरण के रूप में अन्य क्षेत्रों में भी प्रयोग किया जाना चाहिए।

ध्वनि प्रदूषण

मनुष्य के अंदर एक निश्चित सीमा तक ही आवाज या वातावरण की ध्वनि ग्रहण करना ठीक समझा गया है, इससे अधिक का शोर उसके कानेन्द्रिय को नुकसान पहुंचाता है, वह बहरा हो सकता है।
ट्रेन की आवाज, गाड़ियों का हार्न, लाउडस्पीकर का अधिक तेज बजना, कान में म्युजिक के लिए मोबाइल का लीड अधिक देर तक रखना आदि मनुष्य के सुनने की क्षमता को प्रभावित करता है।
उपाय
ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए सभी ध्वनि पैदा करने वाले गाड़ी या उपकरणों का एक सीमा नियत किया जाना चाहिए, और इसका पालन नहीं करने पर दंड या जुर्माने का प्रावधान होना चाहिए।

कुलमिलाकर, पर्यावरण से तो जन-जन का संबंध है, स्वच्छ पर्यावरण होने पर स्वच्छ जमीन, अन्न, जल और वायु तीनों ही मिलेंगे और ये स्वच्छता व्यक्ति के विकास में सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
मगर पर्यावरण स्वच्छ रखना सिर्फ सरकारी स्तर पर ही जरूरी नहीं बल्कि यह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर भी जरूरी है। इस भूमिका में महिला की एक महŸवपूर्ण भूमिका हो सकती है। अगर स्वच्छ घर, साफ भोजन और स्वच्छ हवा मिलेगा तो ना केवल अगला पीढ़ी स्वस्थ पैदा होगा बल्कि मां के रूप में महिला एक महŸवपूर्ण भूमिका निभा सकती है। चूंकि प्राथमिक गुरू मां ही होती है, तो वह अपने बच्चों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना सकती है, बता सकती है कि स्वच्छता कितना जरूरी है, मां अपने आस-पास क्षेत्र में पेड़ लगाए व अपने बच्चों को भी लगाना सिखाए, साथ ही ना केवल घर बल्कि अपने आस-पास के क्षेत्र को भी गंदा करने से मना करे।
समाजिक तौर पर ना केवल घर का सदस्य अपने घर को साफ रखे बल्कि अपने सामने के बाहरी क्षेत्र को भी साफ रखे, साथ ही अपने आस पड़ोस को भी गंदा करते हुए देखे तो मना करे। इसके अतिरिक्त अपने अपने क्षेत्र में क्षेत्रवासी मिलकर कुछ आदमी अपने क्षेत्र के रोड व नालियां साफ रखने के लिए रखे व सामूहिक रूप से इस हेतु मूल्य प्रदान करे, इससे क्षेत्र भी साफ रहेगा और किसी एक पर भार भी नहीं पड़ेगा।
पर्यावरण साफ रहने से कितने सारे फायदे होते हैं और यह क्यों जरूरी है, इस हेतु जगह-जगह जागरूकता कार्यक्रम भी आयोजित किया जाए।
सामाजिक कार्यकर्Ÿाा, सामाजिक विचारक व लेखक का भी दायिŸव कि इस हेतु लोगों को जागरूक करें और सरकार पर भी दवाब बनाए कि जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए, ऐसे चीज का प्रयोग बंद किया जाय और उसका विकल्प तैयार किया जाए।
स्वच्छ पर्यावरण में ही स्वस्थ मानव का विकास संभव है और इसके लिए सबका एक-एक कदम जरूरी है।