समाज बदल रहा है और बहुत तेजी से विज्ञान का विकास हो रहा है, इससे विभिन्न तरह की सुविधाएं जरूर लोगांे में बढ़ती जा रही है मगर समाज का महिला के प्रति सोच आज भी विरोधाभाषी है। अधिकतर समाज महिला के प्रति उदार नहीं है, जो उदारता की बात करते भी है, उन्हें भी अपने आप को और व्यवहार को खंगालने की जरूरत है क्योंकि कितनी ही बार कथनी और करनी में फर्क पाया जाता रहा है और पुरूषों की तुलना में महिला की कमतर स्थिति इसी कमी के तरफ इंगित करता है। मगर जब धर्मगुरू या मौलाना सरेआम महिला को सिर्फ बच्चे पैदा करने वाली की संज्ञा दे, कल्पना करना मुश्किल नहीं कि उसका महिला के प्रति कैसा सोच होगा और उस धर्म में महिलाओं की कैसी स्थिति होगी।
यह टिपण्णी सुन्नी नेता कनथापुरम एपी अबूबकर मुस्लीयर के उस टिपण्णी पर आधारित है जिसमें उन्होेेंने लैंगिक समानता की संकल्पना को गैर इस्लामी बताया और कहा कि महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं क्योंकि वे केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं।
अगर बात सिर्फ बच्चे पैदा करने को लेकर भी किया जाए तो महिला अगर उसे पैदा नहीं करती तो वे खुद कैसे आते....और इसी से जुड़ा यह तथ्य भी कि वे या पुरूष जब स्त्री के साथ सोते हैं तो सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए क्या..मजा या आनन्द के लिए नहीं...। इससे जुड़ी तीसरी बात...कि अगर महिला सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए होती तो बच्चा पैदा करके महिला बच्चों को छोड़ देती और फिर स्वतंत्र जीवन जीना किसी के साथ या किसी और के साथ शुरू कर देती मगर अधिकतर मामले में महिला ना केवल बच्चा पैदा करती है बल्कि अपने बच्चों को लालन-पालन व संस्कार से लेकर विभिन्न प्रकार आवश्यक जिम्मेदारियां निभाने का काम करती है...और शायद बच्चे की वजह से उसके पिता या अपने कसाई पति को भी वर्दाश्त करती है।
मुझे अफसोस उन पुत्र या संतान पर है कि उसकी मां की जरूर कोई बड़ी लाचारी रही होगी जो उन्होंने बेटा को अच्छा संस्कार ना दे पायी जो अबूबकर मुस्लीयर जैसा महिला के प्रति घटिया सोच वाला संतान बना रहा...अगर बेटा बुरा बोले और मां-बाप उसे वर्दाश्त करे तो इसकी दो ही वजह है....या तो उनके माता-पिता को भी सही परवरिश नहीं मिली है कि समानता, इंसानित और बराबरी की बात खुद समझ सकें या वे अपने बेटे के उद्दंडता से इतना डर चुके हैं कि चुप रहने मंे ही अपनी भलाई समझते हैं।
वजह चाहे जो भी हो मगर मुस्लिम समुदाय के मुल्ला हो या धर्मगुरू के द्वारा महिला विरोधी बयान जब-तब सुनाई पड़ते रहते हैं, ये बयान मुस्लिम महिलाआंे की दुर्दशा के तरफ इंगित करता है, ये यह भी बताता है कि अभी भी महिलाएं बहुत शोषित व पीड़ित है व उनके समाजिक प्रगति के लिए बहुत काम करने की जरूरत है। पर्दा प्रथा, आधुनिक युग में मुस्लिम महिला को सबसे अलग करती है व अधिकतर जगहों में यह आज भी जरूरी या मजबूरी बन चुकी है।
राजधानी दिल्ली के भी कई इलाकों में बुर्का नहीं पहनना अपराध माना जाता है, व भारत सरकार के तरफ से चलाई जा रही योजनाओं के तहत एक संस्थान द्वारा चलाई जा रही सिक्यूरिटी गार्ड के लिए प्रशिक्षण के दौरान पाया कि मुस्लिम महिला संस्थान पर बुर्क्रे में आती और संस्थान में ड्रेस बदलकर प्रशिक्षण लेती और फिर प्रशिक्षण के बाद फिर संस्थान से बुर्का पहनकर घर जाती। उनका कहना था कि बिना पर्द्रे के वो नहीं आ सकती और ना जा सकती है क्योंकि इससे उन्हें गलत लड़की समझा जाएगा। नक़ाब को जो समाजिक प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया है, उसे तोड़ने व उससे मुक्त होने की जरूरत महिलाओं को है।
इसके अतिरिक्त मनमर्जी के तरह तलाक कहकर पुरूष द्वारा महिला को छोड़ने का रिवाज, एक से अधिक विवाह, आज भी मुस्लिम महिला की मुख्य समस्या मंे शामिल है। कुछ अन्य वंदिशों में मुस्लिम धार्मिक नेता द्वारा समय-समय पर महिला को सीमा में रहने की सीख दी जाती रहती है जैसे डांस, फिल्म या एक्टिंग की दुनियां से दूर रहने की हिदायतें देना। मगर अब समय आ चुका है कि महिला भी आगे आकर अपने ऊपर लगाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के आरोपों का जवाब दें व वंदिशों के लिए मना करे?जब तक वे समाजिक दबाव व धार्मिक रूढिवादिता को तोड़ेगी नहीं, आगे बढ़ पाना मुश्किल है व मजबूत बनना भी।
वैसे हिन्दू धर्म भी महिला के प्रति बहुत उदार नहीं,,आज भी उसके कपड़े और उसके उठने-बैठने के ढंग आदि पर विभिन्न धर्मगुरूओं या सदस्यों द्वारा टिपण्णी किए जाते रहते हैं। इसी नवम्बर की महिला संबंधी एक दूसरी बड़ी खबरों में पढ़ने को मिला कि ‘जींस, टाइट कपड़ों की वजह से होते महिलाओं के रेप, यानी आए दिन हो रही रेप की खबरों को ध्यान में रखते हुए एक याचिकाकर्ता ने मुंबई हाईकोर्ट में एक अजीब तरह की दलील दी।’ वही कपड़ों से जुड़ी ही एक अन्य खबरों में यह खबर भी महिला पर वंदिशें की कहानी ही बताती है जिसके तहत ‘काशी विश्वनाथ मंदिर में ड्रेस कोड लागू करने की बात की गई थी, विदेशी महिलाओं तक को साड़ी पहनकर दर्शन करने पर जोर दिया गया था..., ये अलग बात कि इसका विरोध होने पर इसे फिर से हटा दिया गया, मगर इस तरह की खबरें पुरूषों का महिला के प्रति कुत्सित सोच ही अभिव्यक्त करता है...जरा गहराई में जाए तो पता चलेगा कि जींस और सूट पुरूष की जबरदस्ती को अधिक देर तक रोकता है क्योंकि इसमें पुरूष को रेप के लिए जींस या सलवार खोलना पड़ेगा बल्कि साड़ी में उसके लिए बिना खोले ही यह आसान रहेगा’...व इस ड्रेस में पुरूष से बचने के लिए दौड़ना भी मुश्किल। जो मर्द या मर्दवादी समाज साड़ी को पुरूष के अकार्षण से बचाव की बात बताकर या इसे भारतीय समाज का गौरव कह कर संबोधित करते हैं, वो शायद इस बात को छुपा लेना चाहते हैं कि इस बहाने वो महिला को आसान रूप से उपलब्ध बनाए रखना चाहते हैं, महिला क्या पहने, क्या करे, इसे वो खुद निर्णय ले, किसी पुरूष को या किसी और को यह अधिकार नहीं।
ऐसा क्यों है कि पुरूष आज भी महिला के पर कतरने के पीछे घूम रहा है, सिर्फ बात कपड़े की नहीं, उसके खाने-पीने व अन्य व्यवहारों पर भी उसके तरफ से गन्दे टिपण्णी आते रहते हैं। मैं तो कहती हंूं कि महिला के लिए कोई सीमांकन ही गलत है, उसे भी उतना ही मुक्त छोड़िये जितना पुरूष को छोड़े हुए हैं। जो संपूर्ण स्वतंत्रता सामाजिक, मानसिक और आर्थिक रूप से पुरूष को मजबूत बनाते हैं, वही स्वतंत्रता महिला को भी बनाएंगे। जब तक उस पर दवाब बना रहेगा, महिला का पूरा विकास संभव नहीं।
पुरूषों को व पुरूषवादी समाज को यह समझना चाहिए कि जो समाज महिला को दबाता है, वह प्रगतिशील और विकसित समाज नहीं कहा जा सकता क्योंकि किसी भी समाज में स्त्री-पुरूष दोनों ही आते हैं और जब तक दोनों का विकास ना हो, समाज भी विकसित नहीं कहा जाएगा।
इसके अतिरिक्त जब महिला भी किसी परिवार में सशक्त होती है तो वह परिवार अधिक तेजी से प्रगति करता है क्योंकि उस परिवार के विकास में पुरूष के अलावा महिला की भी आकांक्षाएं, संकल्प और बेहतर कोशिश शामिल हो जाते हैं...मां के सशक्त रहने से बेटी को भी मां जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है और यह प्रोत्साहन और आगे बढ़ने के लिए एक महŸवपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है और समाज की दूसरी महिलाए भी देखा देखी से आगे बढ़ने की शिक्षा ले पाते हैं। इसके अतिरिक्त मजबूत मां की बेटी ही नहीं, बेटा के भी बली और बुद्विमान होने के चांसेज बढ़ जाते हैं।
अतः जरूरी है कि इस बात को पुरूष व पुरूषवादी समाज अच्छे से समझ ले और महिला के प्रति दोयम भाव रखना बंद करे, तभी समाज का संपूर्ण विकास और कल्याण संभव है।
साथ ही महिलाओं को भी चाहिए कि अपनी अच्छी छवि के लिए वे सकारात्मक प्रयास करें और अपने में वो काबिलियत लाए ताकि पुरूष उस पे जुल्म ना कर सके और अगर करे तो उससे बचना उसे आए, सम्मान भीख में नहीं मिलती, उसके लिए उस लायक बनना पड़ता है। कुल मिलाकर, समाजिक प्रगति के लिए, महिला के प्रति जो कुरीतिपूर्ण व्यवहार सदियों से चला आ रहा है, उससे इतर मन बदलने की जरूरत है, अर्थात् स्त्री-पुरूष के संपूर्ण विकास के लिए महिला के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की जरूरत है व इस कार्य में खुद महिला, पुरूष, नेता व प्रशासन सहित सभी के योगदान चाहिए। जब सब मिलकर इस दिशा में काम करेंगे तो परिवार, समाज व देश सब सुंदर होगा व जिसमें सभी खुश रहेंगे।
यह टिपण्णी सुन्नी नेता कनथापुरम एपी अबूबकर मुस्लीयर के उस टिपण्णी पर आधारित है जिसमें उन्होेेंने लैंगिक समानता की संकल्पना को गैर इस्लामी बताया और कहा कि महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं क्योंकि वे केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं।
अगर बात सिर्फ बच्चे पैदा करने को लेकर भी किया जाए तो महिला अगर उसे पैदा नहीं करती तो वे खुद कैसे आते....और इसी से जुड़ा यह तथ्य भी कि वे या पुरूष जब स्त्री के साथ सोते हैं तो सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए क्या..मजा या आनन्द के लिए नहीं...। इससे जुड़ी तीसरी बात...कि अगर महिला सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए होती तो बच्चा पैदा करके महिला बच्चों को छोड़ देती और फिर स्वतंत्र जीवन जीना किसी के साथ या किसी और के साथ शुरू कर देती मगर अधिकतर मामले में महिला ना केवल बच्चा पैदा करती है बल्कि अपने बच्चों को लालन-पालन व संस्कार से लेकर विभिन्न प्रकार आवश्यक जिम्मेदारियां निभाने का काम करती है...और शायद बच्चे की वजह से उसके पिता या अपने कसाई पति को भी वर्दाश्त करती है।
मुझे अफसोस उन पुत्र या संतान पर है कि उसकी मां की जरूर कोई बड़ी लाचारी रही होगी जो उन्होंने बेटा को अच्छा संस्कार ना दे पायी जो अबूबकर मुस्लीयर जैसा महिला के प्रति घटिया सोच वाला संतान बना रहा...अगर बेटा बुरा बोले और मां-बाप उसे वर्दाश्त करे तो इसकी दो ही वजह है....या तो उनके माता-पिता को भी सही परवरिश नहीं मिली है कि समानता, इंसानित और बराबरी की बात खुद समझ सकें या वे अपने बेटे के उद्दंडता से इतना डर चुके हैं कि चुप रहने मंे ही अपनी भलाई समझते हैं।
वजह चाहे जो भी हो मगर मुस्लिम समुदाय के मुल्ला हो या धर्मगुरू के द्वारा महिला विरोधी बयान जब-तब सुनाई पड़ते रहते हैं, ये बयान मुस्लिम महिलाआंे की दुर्दशा के तरफ इंगित करता है, ये यह भी बताता है कि अभी भी महिलाएं बहुत शोषित व पीड़ित है व उनके समाजिक प्रगति के लिए बहुत काम करने की जरूरत है। पर्दा प्रथा, आधुनिक युग में मुस्लिम महिला को सबसे अलग करती है व अधिकतर जगहों में यह आज भी जरूरी या मजबूरी बन चुकी है।
राजधानी दिल्ली के भी कई इलाकों में बुर्का नहीं पहनना अपराध माना जाता है, व भारत सरकार के तरफ से चलाई जा रही योजनाओं के तहत एक संस्थान द्वारा चलाई जा रही सिक्यूरिटी गार्ड के लिए प्रशिक्षण के दौरान पाया कि मुस्लिम महिला संस्थान पर बुर्क्रे में आती और संस्थान में ड्रेस बदलकर प्रशिक्षण लेती और फिर प्रशिक्षण के बाद फिर संस्थान से बुर्का पहनकर घर जाती। उनका कहना था कि बिना पर्द्रे के वो नहीं आ सकती और ना जा सकती है क्योंकि इससे उन्हें गलत लड़की समझा जाएगा। नक़ाब को जो समाजिक प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया है, उसे तोड़ने व उससे मुक्त होने की जरूरत महिलाओं को है।
इसके अतिरिक्त मनमर्जी के तरह तलाक कहकर पुरूष द्वारा महिला को छोड़ने का रिवाज, एक से अधिक विवाह, आज भी मुस्लिम महिला की मुख्य समस्या मंे शामिल है। कुछ अन्य वंदिशों में मुस्लिम धार्मिक नेता द्वारा समय-समय पर महिला को सीमा में रहने की सीख दी जाती रहती है जैसे डांस, फिल्म या एक्टिंग की दुनियां से दूर रहने की हिदायतें देना। मगर अब समय आ चुका है कि महिला भी आगे आकर अपने ऊपर लगाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के आरोपों का जवाब दें व वंदिशों के लिए मना करे?जब तक वे समाजिक दबाव व धार्मिक रूढिवादिता को तोड़ेगी नहीं, आगे बढ़ पाना मुश्किल है व मजबूत बनना भी।
वैसे हिन्दू धर्म भी महिला के प्रति बहुत उदार नहीं,,आज भी उसके कपड़े और उसके उठने-बैठने के ढंग आदि पर विभिन्न धर्मगुरूओं या सदस्यों द्वारा टिपण्णी किए जाते रहते हैं। इसी नवम्बर की महिला संबंधी एक दूसरी बड़ी खबरों में पढ़ने को मिला कि ‘जींस, टाइट कपड़ों की वजह से होते महिलाओं के रेप, यानी आए दिन हो रही रेप की खबरों को ध्यान में रखते हुए एक याचिकाकर्ता ने मुंबई हाईकोर्ट में एक अजीब तरह की दलील दी।’ वही कपड़ों से जुड़ी ही एक अन्य खबरों में यह खबर भी महिला पर वंदिशें की कहानी ही बताती है जिसके तहत ‘काशी विश्वनाथ मंदिर में ड्रेस कोड लागू करने की बात की गई थी, विदेशी महिलाओं तक को साड़ी पहनकर दर्शन करने पर जोर दिया गया था..., ये अलग बात कि इसका विरोध होने पर इसे फिर से हटा दिया गया, मगर इस तरह की खबरें पुरूषों का महिला के प्रति कुत्सित सोच ही अभिव्यक्त करता है...जरा गहराई में जाए तो पता चलेगा कि जींस और सूट पुरूष की जबरदस्ती को अधिक देर तक रोकता है क्योंकि इसमें पुरूष को रेप के लिए जींस या सलवार खोलना पड़ेगा बल्कि साड़ी में उसके लिए बिना खोले ही यह आसान रहेगा’...व इस ड्रेस में पुरूष से बचने के लिए दौड़ना भी मुश्किल। जो मर्द या मर्दवादी समाज साड़ी को पुरूष के अकार्षण से बचाव की बात बताकर या इसे भारतीय समाज का गौरव कह कर संबोधित करते हैं, वो शायद इस बात को छुपा लेना चाहते हैं कि इस बहाने वो महिला को आसान रूप से उपलब्ध बनाए रखना चाहते हैं, महिला क्या पहने, क्या करे, इसे वो खुद निर्णय ले, किसी पुरूष को या किसी और को यह अधिकार नहीं।
ऐसा क्यों है कि पुरूष आज भी महिला के पर कतरने के पीछे घूम रहा है, सिर्फ बात कपड़े की नहीं, उसके खाने-पीने व अन्य व्यवहारों पर भी उसके तरफ से गन्दे टिपण्णी आते रहते हैं। मैं तो कहती हंूं कि महिला के लिए कोई सीमांकन ही गलत है, उसे भी उतना ही मुक्त छोड़िये जितना पुरूष को छोड़े हुए हैं। जो संपूर्ण स्वतंत्रता सामाजिक, मानसिक और आर्थिक रूप से पुरूष को मजबूत बनाते हैं, वही स्वतंत्रता महिला को भी बनाएंगे। जब तक उस पर दवाब बना रहेगा, महिला का पूरा विकास संभव नहीं।
पुरूषों को व पुरूषवादी समाज को यह समझना चाहिए कि जो समाज महिला को दबाता है, वह प्रगतिशील और विकसित समाज नहीं कहा जा सकता क्योंकि किसी भी समाज में स्त्री-पुरूष दोनों ही आते हैं और जब तक दोनों का विकास ना हो, समाज भी विकसित नहीं कहा जाएगा।
इसके अतिरिक्त जब महिला भी किसी परिवार में सशक्त होती है तो वह परिवार अधिक तेजी से प्रगति करता है क्योंकि उस परिवार के विकास में पुरूष के अलावा महिला की भी आकांक्षाएं, संकल्प और बेहतर कोशिश शामिल हो जाते हैं...मां के सशक्त रहने से बेटी को भी मां जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है और यह प्रोत्साहन और आगे बढ़ने के लिए एक महŸवपूर्ण कड़ी के रूप में काम करता है और समाज की दूसरी महिलाए भी देखा देखी से आगे बढ़ने की शिक्षा ले पाते हैं। इसके अतिरिक्त मजबूत मां की बेटी ही नहीं, बेटा के भी बली और बुद्विमान होने के चांसेज बढ़ जाते हैं।
अतः जरूरी है कि इस बात को पुरूष व पुरूषवादी समाज अच्छे से समझ ले और महिला के प्रति दोयम भाव रखना बंद करे, तभी समाज का संपूर्ण विकास और कल्याण संभव है।
साथ ही महिलाओं को भी चाहिए कि अपनी अच्छी छवि के लिए वे सकारात्मक प्रयास करें और अपने में वो काबिलियत लाए ताकि पुरूष उस पे जुल्म ना कर सके और अगर करे तो उससे बचना उसे आए, सम्मान भीख में नहीं मिलती, उसके लिए उस लायक बनना पड़ता है। कुल मिलाकर, समाजिक प्रगति के लिए, महिला के प्रति जो कुरीतिपूर्ण व्यवहार सदियों से चला आ रहा है, उससे इतर मन बदलने की जरूरत है, अर्थात् स्त्री-पुरूष के संपूर्ण विकास के लिए महिला के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की जरूरत है व इस कार्य में खुद महिला, पुरूष, नेता व प्रशासन सहित सभी के योगदान चाहिए। जब सब मिलकर इस दिशा में काम करेंगे तो परिवार, समाज व देश सब सुंदर होगा व जिसमें सभी खुश रहेंगे।