फिर एक बार ‘हिन्दी दिवस 14 सितम्बर’ मनाए जाने की धूम है, चर्चाएं हैं, व्याख्यान और अनेकानेक गोष्ठियां होंगी। कई सरकारी कार्यालय में तो हिन्दी सप्ताह भी मनाया जाता है। इतना सब होने के बावजूद अफसोस की बात यह कि अभी तक हिन्दी को राष्ट्र भाषा नहीं अंग्रेजी के तरह दूसरी भाषा के रूप में राजभाषा का दर्जा प्राप्त है।
ठीक है, हिन्दी को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर भी सन् 1953 में कुछ गैर हिन्दी भाषी के विरोध से इसे राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं दर्जा नहीं दिया गया मगर उस बात के हुए 6 दशक से अधिक हो गये। तब से हर साल बेशक हिन्दी दिवस मनाया जाता है मगर इसके अलावा क्या! कितनी सरकार आई और गयी मगर हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दिला पायी। जिसकी सरकार, बहुमत उसी का मगर कोई भी सरकार अब तक हिन्दी को राष्ट्र भाषा के बतौर दर्जा नहीं दिलवायी, इसका मतलब कि सरकार चाहती नहीं कि हिन्दी राष्ट्र भाषा बने और सरकारी कामकाज में हिन्दी अनिवार्य रूप से शामिल हो। अगर हिन्दुस्तान आजाद है फिर भी अंग्रेजी का गुलाम क्यों, सरकार को इसके लिए कौन मजबूर कर रहा है, यह भी सोचने वाली बात है। या अंग्रेज चले गये मगर उनकी गुलामी करते-करते हमारी सरकारी तंत्र को अभी तक अपनी भाषा में काम निबटाने की सक्षमता नहीं आयी!
कारण जो भी हो मगर रिजल्ट तो यहीं दिख रहा है कि अंग्रेज चले गये मगर अंग्रेजी स्कूल और अंग्रेजी के प्रति लोगों की हौआ नहीं गयी। जब देश गुलाम था तो भी मुट्ठी भर अंग्रेज यानी अंग्रेजी बोलने वाले इतने बड़े हिन्दुस्तान पर शासन करते थे और अब भी करीब-करीब यहीं हो रहा है।
सरकारी स्कूल और सिर्फ हिन्दी जानकार बच्चे को खुद को स्थापित करने व नौकरी प्राप्ति के लिए अच्छी खासी मिहनत करनी पड़ रहीं है जैसे वे देशी नहीं विदेशी हो और अपने ही देश में उसे विदेशी भाषा जाननी जरूरी।
मां-बाप व जनता सिर्फ इस वजह से अंग्रेजी को महत्व दे रहे हैं, बच्चों पर भी अंग्रेजी सीखने का दबाव डाल रहे कि वे चाहते हैं कि मेरा बच्चा वो करे, जिससे उसे रोजगार मिले वरना हम हिन्दुस्तानी अच्छे से जानते हैं कि जितना सहज हम हिन्दी या अपने देशी भाषा में, नहीं सहज अंग्रेजी या अन्य भाषा में ।
यद्यपि यह भी सच कि भाषा कोई भी बुरी नहीं अगर लोग इसे स्वेच्छा से सीखना चाहे मगर हिन्दुस्तानी को जिसने जन्म के साथ हिन्दी या भारती भाषा में पला-बढा है, उसे आगे चलकर कोई विदेशी भाषा थोप दिया जाय, यह बुरा है।
लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी बोलने वाले घट रहे हैं, अखबार भी हिन्दी के ज्यादा, पुस्तकें भी, इसके पाठक भी और हिन्दुस्तान के सोशल साइट पर चेक करे तो हिन्दी में व्यक्त करने वाले लोग भी ज्यादा।
इसी से जुड़े एक रिपोर्ट ‘1990 में हुए राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण’ के अनुसार, पांच अगुवा अखबारों में हिन्दी का केवल एक समाचार पत्र हुआ करता था। मगर यहीं (सर्वे) जब (2010) में की गयी तो पता चला कि सबसे अधिक पढ़े जाने वाले पांच अखबारों में शुरू के चार हिंदी के हैं।
अतः पहले भी हिन्दी के बड़े लेखक पैदा हुए हैं जिन्होंने समाज व राष्ट्रप्रेम पर सुंदर लेखनी के माध्यम से जनता को जागृति करने का काम किया और स्वतंत्रता आंदोलन को तेजी लाने में अपनी मुख्य भूमिका निभायी। आज भी विभिन्न हिन्दी लेखक अपने-अपने क्षेत्र में मजबूत लेखन के जरिये जनता को अच्छी दिशा भी दिखा रहे हैं और मनोरंजन भी कर रहे हैं। हिन्दी फिल्म उद्योग मनोरंजन के साथ-साथ दिशा दिखाने में महŸवपूर्ण भूमिका निभा रही है।
अतः हिन्दी को किसी से खतरा नहीं है और न हिन्दी में मुश्किल शब्द के जगह अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा के शब्द शामिल होने से नुकसान क्योंकि जो शब्द सहज, उसे हिन्दी भाषी आसानी से स्वीकार कर लेते हैं, प्रयोग भी करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दुस्तानियों का बड़ा दिल, जिस तरह संस्कृति में विविधता, जरुरत पर हिन्दी के कठिन शब्द के जगह किसी अन्य भाषा के सरल शब्द उन्हें ग्राह्य। सब ठीक है, यह बदलाव भी ठीक है।
मगर अपने ही देशवासी के ऊपर एक नयी भाषा थोपना, जिसे आए वह खुद को खास समझे और जिसे ना आ पाय, वह हीन भावना से ग्रस्त हो जाय, यह माहौल बनाना गलत है।
इसी से जुड़ी एक अन्य बात, वह देश अधिक प्रगति करता है जिसे अपनी संस्कृति व अपनी भाषा से प्यार होता है और प्यार दिखता भी है। अगर प्यार हमारे सरकार को अपनी भाषा हिन्दी से तो वह उसे राष्ट्रभाषा बनाए और देशवासियों में वो संदेश दे जिससे जनता भी अपनी संस्कृति, अपनी भाषा के प्रति सम्मान प्रकट कर सकें, अपने राष्ट्र के प्रति भी वह गौरव कर सके। गुलाम संस्कृति या जिनकी गुलामी की, मालिक के जाने बाद भी उनकी भाषा के ही अनुकरण करते रहने से कोई राष्ट्र सम्मानीय नहीं कहला सकता। फिर जो राष्ट्र अपनी जनता की आवाज न समझ सकें, उसकी भाषा को न समझ किसी अन्य भाषा की बोली को ही महत्व दे, हर्गिज ऐसा राष्ट्र गौरवशाली नहीं कहला सकता। क्योंकि राष्ट्र का गौरव उसकी जनता में और अगर सरकार जनता को ही महत्व न दें तो जनता हीन भावना से ग्रस्त होगी ही, फिर कैसे वह अपना बेस्ट दे सकती है। सब एक-दूसरे से जुड़े हुए, फलस्वरूप वह सरकार और राष्ट्र भी कमजोर होगा।
ऐसे ही अन्य राज्यों के साथ भी लागू होता है। जो राज्य स्थानीय अपनी भाषा को महत्व देता है, उसके दूसरे राज्यों से अधिक विकसित होने की संभावना बढती है। केरल व महाराष्ट्र का देख लीजिए, ये लोग सम्मान के साथ व खुल कर अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं तो विकास के ग्राफ का स्तर ऊंचा मगर बिहार का देखिये, वहां के मैथिली भाषी अपनी भाषा को ऐसे औरों से छुपाते हैं जैसे भाषा नहीं, चोरी हो जाएगी। अधिकतर बिहारियों का अपने भाषा के प्रति प्रेम नहीं, सम्मान नहीं तो वह कई अन्य की तुलना में अधिक पिछडे हुए और इसकी वजह मुझे यह लगता है कि बिहार सरकार भी स्थानीय भाषा का प्रयोग व महत्व कम दे रहीं है।
कुल मिलाकर, यह कहना चाहती हूं कि विकास के लिए, प्रगति के लिए अपनी संस्कृति, अपने भाषा से प्यार होना, इसे देश में सम्मान मिलना बहुत जरूरी है। बहुत जरूरी है अपने भाषा के साथ जीवन जीने का माहौल मिलना, रोजगार मिलना ताकि जनता इसे सहज रूप से स्वीकार कर सकें और सहजता के साथ जीवन जी सकें।
मुझे खुशी कि तत्कालिक सरकार ने हिन्दी को कुछ अधिक बढ़ावा देते दिखा, जैसे हमारे प्रधानमंत्री ने दूसरे देश में अपनी भाषा हिन्दी में कई जगह भाषण दिया। मगर इतना काफी नहीं।
सरकार से हमारा निवेदन कि इस बार सिर्फ हिन्दी दिवस मनाए नहीं बल्कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान दिलाने का संकल्प भी लें और उसे निश्चित समय के अंदर हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में लागू कराए। इसी आशा के साथ।
-कुलीना कुमारी