कन्या सशक्तिकरण मतलब कन्या या बालिका की मजबूती और उसके विकास के लिए किया जाने वाला तमाम प्रयास। इस हेतु राष्ट्रीय व राज्यीय स्तर पर योजनाएं भी कई है और प्रावधान भी कई मगर आज भी भारतीय परिदृश्य में कन्याओं या बालिकाओं की दुर्दशा हमें बता रही है कि इसका बहुत लाभ बच्चियों को नहीं मिल पा रहा है। पुरूषवादी नीति, महिलाओं के प्रति दुर्भावना और उसे दोयम दर्जे का माने जाने वाला भाव जैसे नकारात्मक माहौल का शिकार आज भी बड़ी संख्या में लड़कियां है।
2011 की जनगणना के अनुसार, 1000 लड़कों की तुलना में मात्र 940 लड़कियां है, यद्यपि यह 2001 की तुलना में 7 अधिक है। मगर लड़कों से कम लड़कियांें की संख्या हमें बताती है कि अभी भी लड़कियों के लिए माहौल अच्छा नहीं। कन्या भ्रूण हत्या प्रतिबंधित किए जाने के बाद भी इसका चालू रहना या फिर विभिन्न तरीकों के माध्यम से लड़की बच्चों के प्रति समाज में जारी अरूचि का यह संकेत है।
शिक्षा के स्तर में भी बालिका और बालक के बीच बड़ा गैप है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार, भारत के प्रायमरी और सेकेंडरी एजुकेशन के पब्लिक और प्रायवेट स्कूली मापन के हिसाब से इसका अनुपात 2011 में 98.40 था। यह आंकड़ा बताता है कि आज भी शैक्षिक स्तर पर एक ही घर में कैसे लड़का-लड़की में भेद किया जाता होगा या किया जाता है, तभी तो इन दोनों के अनुपात में इतना बड़ा फर्क है या लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में इतना कमतर है।
प्रायः यह भी देखा गया है कि अभिभावक बेटा बच्चा को प्रायवेट स्कूल में भेज देते हैं मगर बेटी को सरकारी में क्योंकि सरकारी स्कूल में एक प्रकार की मुफ्त शिक्षा मिलती है जबकि प्रायवेट स्कूल मंहगी। बेटी के लिए क्यों पैसे खर्च करें। ऐसे कितने ही परिवार पाए जाते हैं और जिन्हें बेटा’-बेटी दोनों है, उनका लड़का प्रायवेट स्कूल में पढता है बल्कि बेटी सरकारी स्कूल में। वैसे सरकारी स्कूल मे किताबें व ड्रेस तथा पढ़ाई के खर्चे के लिए विद्यार्थी को कुछ सहयोग राशि भी मिलता है, और लंच भी। मगर इसके बावजूद भी समय-समय पर सरकारी स्कूल के शैक्षिक गुणवŸाा पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहता है। कैसे लगाया भी ना जाए, शिक्षक बच्चे का अनुपात बहुत कम और भवन, शौचालय और साफ-सफाई की व्यवस्था भी ठीक नहीं पाई जाती, उसकी सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में तो और बुरा हाल है। बहुत सारे स्कूल ऐसे पाए जाते हैं, जिसे बाऊंड्री बॉल से घेरा नहीं जाता और सिक्यूरिटी गार्ड की व्यवस्था नहीं रहती। इसीलिए सरकारी स्कूल में भी लड़की की सुरक्षा संशय में रहती है और वहां से बच्चे चोरी की घटनाएं भी सुनने को आती रहती है। सरकारी स्कूल के इस अव्यवस्था से कुछ बड़े नुकसान, एक तो सुरक्षा में प्रश्न चिन्ह लगने से अभिभावक बेटियों को स्कूल नहीं भेजना चाहेंगे या कम भेजेंगे, दूसरा अव्यवस्था से शिक्षण प्रक्रिया को ग्रहण करने में व पठन-पाठन को बेहतर तरीके से समझने में दिक्कत होगी क्योंकि परेशानियां नई चीजें को ग्रहण करने में व उसके प्रति रूचि पैदा करने में कठिनाइयां लाती है। तीसरा, शिक्षक के कम होने से व पूरा अध्ययन अध्यापन ठीक तरीके से नहीं कराए जाने से लड़की बच्चों के प्रतियोगिता में बेहतर कर दिखाने मंे दिक्कत होगी। वैसे जहां भी लड़कियों को मौका मिला है, उसने बेहतर परफॉरमेंस करके दिखाया है, शिक्षा व यूपीएस सी जैसे परिक्षा में टॉप कर वह दिखा चुकी है कि उसे मौका मिले तो सबसे आगे आ सकती है मगर इसके लिए मौका और लड़कियों के लिए बेहतर माहौल जरूरी है। मोदी द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की योजना का आरंभ बालिका सशक्तिकरण के उद्देश्य से किया गया है मगर इसका कितना लाभ मिला, यह तो भविष्य ही बताएगा। वैसे सिंगल लड़की के लिए भी कई सुविधाएं सरकार के तरफ से दी जाती है। शिक्षा लोन व विवाह के लिए भी कुछ राहत राशि संबंधी भी योजनाएं चल रही है। बालिका सशक्तिकरण के उद्देश्य से प्रधानमंत्री द्वारा ‘कन्या समृद्धि योजना’ का भी शुभारंभ किया गया है। इसमें रेट ऑफ इंटेरेस्ट अधिक मिलते हैं। मगर प्रश्न तो यह भी है कि जिस अभिभावक के पास वह न्यूनतम एमाउंट जमा करने की भी क्षमता नहीं, उन लड़कियों को इसका लाभ कैसे मिलेगा। और कोई भी योजना, जब इसकी जानकारी ना हो तो इसका लाभ कैसे लिया जा सकता है। अभी भी ग्रामीण इलाके में अशिक्षा, अंधविश्वास और महिलाओं को दोयम दर्जें की माने जाने वाली कुरीतियां हावी है और बहुत से गांवों में बिजली और कम्प्यूटर की सुविधा सरल नहीं तो कैसे इसका लाभ लड़की को मिले। योजनाएं चल रही है मगर इन कमियों की वजह से सभी लड़कियों तक यह नहीं पहुंच पा रही है। बालिका सशक्तिकरण की राह आसान नहीं।
वैसे स्वास्थ्य के स्तर पर राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम चलते हैं और किशोर स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं भी। मगर एक आंकड़े के अनुसार, विश्व की 30 प्रतिशत बच्चे कुपोषित अगर भारत में पाए जाते हैं तो भारतीय बच्चों के स्वास्थ्य का स्तर आराम से लगाया जा सकता है।
ऐसे ही चाइल्ड लेबर भी एक बड़ी समस्या है। 2011 के जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, 5-14 साल के बच्चे जो कार्यरत है, उनकी संख्या 43.53 लाख पाई गई। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में भारत, चाइल्ड लेबर के रूप में सबसे बड़ा बल है। यह आंकड़े कामकाजी बच्चों की स्थिति के साथ बहुत छोटी उमर में ही कैसे उसे झमेले में धकेला जा रहा है, उसका प्रमाण है। सरकारी तंत्र और प्रशासन मौन के रूप में अपना रोल जैसे निभा रहे हैं। रेलवे स्टेशन, रेड लाइट और अब मेट्रो स्टेशन पर भी बच्चों को भीख मांगते या विभिन्न प्रकार के सामान बेचते देखा जा सकता है। अगर इसपे नियंत्रण की मंशा होती सरकार और कानून व्यवस्था की तो ऐसा हाल नहीं होता। प्रश्न तो चाइल्ड लेबर को पकड़कर रखे जाने और उसकी शिक्षा और विकास के लिए कार्यरत तथाकथित एनजीओ पर भी है, जिन बच्चों को पकड़कर बच्चों के आश्रय स्थल में रखा जाता है, वहां भी बच्चों की स्थिति प्रायः अच्छी नहीं पायी जाती। बच्चों के लिए कार्यरत कुछ एनजीओ में ही बच्चों पर जुल्म करते हुए देखा गया और एक सर्वेक्षण के दौरान पाया कि वहां बच्चों से खाना बनवाया जा रहा था और विभिन्न तरह के कार्य करवाए जा रहे थे। रिपोर्ट से यह भी पता चला कि कितने ही बच्चे मौका मिलते ही भाग जाते हैं। ऐसा क्यों होता है, सोचना मुश्किल नहीं।
बच्चों की सुरक्षा और व्यापार भी एक बड़ी समस्या है। 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अनुमानतः 135,000 बच्चे हर साल ट्रैफिक्रिग के शिकार होते हैं। ये बच्चे बंधुआ मजदूर, घरेलू नौकर, भीख मांगने या फिर सेक्सुअली कार्य के लिए रेड लाइट एरिया में बेच दिए जाते हैं।
ऐसे ही लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी सोचनीय स्थिति है। यूनिसेफ द्वारा किए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15-19 साल की 5 प्रतिशत भारतीय लड़कियां यौन हिंसा की पीड़ित पाई गई।
ऐसे ही बाल विवाह भी भारत मंे जारी जबकि यहां भी कानूनी रूप से प्रतिबंधित है । एक आंकड़े के अुनसार, विश्व में होने वाले तमाम बाल ,विवाह में से 40 प्रतिशत भारत में होते है। राजस्थान, आंध्र प्रदेश, बिहार, उŸार प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि बाल विवाह में आगे है।
मगर कन्या सशक्तिकरण के लिए सफर यही तक नहीं और कठिनाइयां भी कम नहीं। इन तमाम दिक्कतों के अलावा लड़की का शादी के बाद दूसरे घर जाना, और लड़की की इज्जत बनाम सुरक्षा का प्रश्न घरेलू और सामाजिक स्तर पर हावी है। पराया धन कहे जाने से मां-बाप भी उसे जैसे पराया ही समझ लेते हैं और शायद अधिकतर घरों में लड़की के लिए उतना ही शिक्षा, विकास और अधिकार जरूरी समझा जाता है, जितना शादी के लिए जरूरी है। वही बेटा बच्चा को अपना समझा जाता है और उसके विस्तार और विकास की असीमित कोशिश की जाती है। फिर लड़की के लिए सुरक्षा का प्रश्न उसके दायरे सीमित कर देते हैं और उसे रेप और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं से बचाने की भावना प्रबल हो जाती है। वैसे उसके दायरे इसलिए भी सीमित कर दिए जाते हैं और उसे मां-बाप या समाज के द्वारा ही गुलाम बनाए रखने की मंशा कायम रहती है ताकि ससुराल में बिटिया बस सकें और वहां से लड़ झगड़कर या उनका जुल्म सहने से मना कर वापस ना आए। क्योंकि समाज
पुरूषवादी तो महिला को हिस्सा और हक ना मायके वाले को देने की मंशा हुई है और ना ही ससुराल वालों की।
अतः घरेलू, सामाजिक और कानूनी जब तीनों प्रकार की स्थितियां लड़कियों के अनुकूल होगी, तभी कन्या सशक्तिकरण के रास्ते अधिक तेजी से खुल पाएंगे। यद्यपि जागरूकता आई है और पहले से बेहतर स्थिति भी लड़कियों के लिए हुई है। कन्या सशक्तिकरण योजना व सरकारी सुविधा ने महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार आसानी से खोले हैं और लड़की के लिए लाभ की योजना ने मां-बाप को लड़की को आगे कर उसका लाभ उठाना सिखा रहा है और अवसर मिलने पर लड़कियां खुद को साबित भी कर रही है मगर योजनाआंे का लाभ तक ही अगर बेटी को आगे बढ़ाया जाए तो निश्चित ही अब भी लड़कियों की राहंे दुर्गम है, और इनसे आगे निकलने के रास्ते अभी और तलाशने होंगे। इसके लिए सरकारी नीतियों के साथ-साथ घरेलू और समाजिक नियमांे की पुनः समीक्षा और लड़कियों के प्रति दोयम दर्जे वाला भाव दूर करने हेतु अभी और पहल करने की जरूरत है।
2011 की जनगणना के अनुसार, 1000 लड़कों की तुलना में मात्र 940 लड़कियां है, यद्यपि यह 2001 की तुलना में 7 अधिक है। मगर लड़कों से कम लड़कियांें की संख्या हमें बताती है कि अभी भी लड़कियों के लिए माहौल अच्छा नहीं। कन्या भ्रूण हत्या प्रतिबंधित किए जाने के बाद भी इसका चालू रहना या फिर विभिन्न तरीकों के माध्यम से लड़की बच्चों के प्रति समाज में जारी अरूचि का यह संकेत है।
शिक्षा के स्तर में भी बालिका और बालक के बीच बड़ा गैप है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार, भारत के प्रायमरी और सेकेंडरी एजुकेशन के पब्लिक और प्रायवेट स्कूली मापन के हिसाब से इसका अनुपात 2011 में 98.40 था। यह आंकड़ा बताता है कि आज भी शैक्षिक स्तर पर एक ही घर में कैसे लड़का-लड़की में भेद किया जाता होगा या किया जाता है, तभी तो इन दोनों के अनुपात में इतना बड़ा फर्क है या लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में इतना कमतर है।
प्रायः यह भी देखा गया है कि अभिभावक बेटा बच्चा को प्रायवेट स्कूल में भेज देते हैं मगर बेटी को सरकारी में क्योंकि सरकारी स्कूल में एक प्रकार की मुफ्त शिक्षा मिलती है जबकि प्रायवेट स्कूल मंहगी। बेटी के लिए क्यों पैसे खर्च करें। ऐसे कितने ही परिवार पाए जाते हैं और जिन्हें बेटा’-बेटी दोनों है, उनका लड़का प्रायवेट स्कूल में पढता है बल्कि बेटी सरकारी स्कूल में। वैसे सरकारी स्कूल मे किताबें व ड्रेस तथा पढ़ाई के खर्चे के लिए विद्यार्थी को कुछ सहयोग राशि भी मिलता है, और लंच भी। मगर इसके बावजूद भी समय-समय पर सरकारी स्कूल के शैक्षिक गुणवŸाा पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता रहता है। कैसे लगाया भी ना जाए, शिक्षक बच्चे का अनुपात बहुत कम और भवन, शौचालय और साफ-सफाई की व्यवस्था भी ठीक नहीं पाई जाती, उसकी सुरक्षा पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में तो और बुरा हाल है। बहुत सारे स्कूल ऐसे पाए जाते हैं, जिसे बाऊंड्री बॉल से घेरा नहीं जाता और सिक्यूरिटी गार्ड की व्यवस्था नहीं रहती। इसीलिए सरकारी स्कूल में भी लड़की की सुरक्षा संशय में रहती है और वहां से बच्चे चोरी की घटनाएं भी सुनने को आती रहती है। सरकारी स्कूल के इस अव्यवस्था से कुछ बड़े नुकसान, एक तो सुरक्षा में प्रश्न चिन्ह लगने से अभिभावक बेटियों को स्कूल नहीं भेजना चाहेंगे या कम भेजेंगे, दूसरा अव्यवस्था से शिक्षण प्रक्रिया को ग्रहण करने में व पठन-पाठन को बेहतर तरीके से समझने में दिक्कत होगी क्योंकि परेशानियां नई चीजें को ग्रहण करने में व उसके प्रति रूचि पैदा करने में कठिनाइयां लाती है। तीसरा, शिक्षक के कम होने से व पूरा अध्ययन अध्यापन ठीक तरीके से नहीं कराए जाने से लड़की बच्चों के प्रतियोगिता में बेहतर कर दिखाने मंे दिक्कत होगी। वैसे जहां भी लड़कियों को मौका मिला है, उसने बेहतर परफॉरमेंस करके दिखाया है, शिक्षा व यूपीएस सी जैसे परिक्षा में टॉप कर वह दिखा चुकी है कि उसे मौका मिले तो सबसे आगे आ सकती है मगर इसके लिए मौका और लड़कियों के लिए बेहतर माहौल जरूरी है। मोदी द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की योजना का आरंभ बालिका सशक्तिकरण के उद्देश्य से किया गया है मगर इसका कितना लाभ मिला, यह तो भविष्य ही बताएगा। वैसे सिंगल लड़की के लिए भी कई सुविधाएं सरकार के तरफ से दी जाती है। शिक्षा लोन व विवाह के लिए भी कुछ राहत राशि संबंधी भी योजनाएं चल रही है। बालिका सशक्तिकरण के उद्देश्य से प्रधानमंत्री द्वारा ‘कन्या समृद्धि योजना’ का भी शुभारंभ किया गया है। इसमें रेट ऑफ इंटेरेस्ट अधिक मिलते हैं। मगर प्रश्न तो यह भी है कि जिस अभिभावक के पास वह न्यूनतम एमाउंट जमा करने की भी क्षमता नहीं, उन लड़कियों को इसका लाभ कैसे मिलेगा। और कोई भी योजना, जब इसकी जानकारी ना हो तो इसका लाभ कैसे लिया जा सकता है। अभी भी ग्रामीण इलाके में अशिक्षा, अंधविश्वास और महिलाओं को दोयम दर्जें की माने जाने वाली कुरीतियां हावी है और बहुत से गांवों में बिजली और कम्प्यूटर की सुविधा सरल नहीं तो कैसे इसका लाभ लड़की को मिले। योजनाएं चल रही है मगर इन कमियों की वजह से सभी लड़कियों तक यह नहीं पहुंच पा रही है। बालिका सशक्तिकरण की राह आसान नहीं।
वैसे स्वास्थ्य के स्तर पर राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम चलते हैं और किशोर स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं भी। मगर एक आंकड़े के अनुसार, विश्व की 30 प्रतिशत बच्चे कुपोषित अगर भारत में पाए जाते हैं तो भारतीय बच्चों के स्वास्थ्य का स्तर आराम से लगाया जा सकता है।
ऐसे ही चाइल्ड लेबर भी एक बड़ी समस्या है। 2011 के जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, 5-14 साल के बच्चे जो कार्यरत है, उनकी संख्या 43.53 लाख पाई गई। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में भारत, चाइल्ड लेबर के रूप में सबसे बड़ा बल है। यह आंकड़े कामकाजी बच्चों की स्थिति के साथ बहुत छोटी उमर में ही कैसे उसे झमेले में धकेला जा रहा है, उसका प्रमाण है। सरकारी तंत्र और प्रशासन मौन के रूप में अपना रोल जैसे निभा रहे हैं। रेलवे स्टेशन, रेड लाइट और अब मेट्रो स्टेशन पर भी बच्चों को भीख मांगते या विभिन्न प्रकार के सामान बेचते देखा जा सकता है। अगर इसपे नियंत्रण की मंशा होती सरकार और कानून व्यवस्था की तो ऐसा हाल नहीं होता। प्रश्न तो चाइल्ड लेबर को पकड़कर रखे जाने और उसकी शिक्षा और विकास के लिए कार्यरत तथाकथित एनजीओ पर भी है, जिन बच्चों को पकड़कर बच्चों के आश्रय स्थल में रखा जाता है, वहां भी बच्चों की स्थिति प्रायः अच्छी नहीं पायी जाती। बच्चों के लिए कार्यरत कुछ एनजीओ में ही बच्चों पर जुल्म करते हुए देखा गया और एक सर्वेक्षण के दौरान पाया कि वहां बच्चों से खाना बनवाया जा रहा था और विभिन्न तरह के कार्य करवाए जा रहे थे। रिपोर्ट से यह भी पता चला कि कितने ही बच्चे मौका मिलते ही भाग जाते हैं। ऐसा क्यों होता है, सोचना मुश्किल नहीं।
बच्चों की सुरक्षा और व्यापार भी एक बड़ी समस्या है। 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अनुमानतः 135,000 बच्चे हर साल ट्रैफिक्रिग के शिकार होते हैं। ये बच्चे बंधुआ मजदूर, घरेलू नौकर, भीख मांगने या फिर सेक्सुअली कार्य के लिए रेड लाइट एरिया में बेच दिए जाते हैं।
ऐसे ही लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी सोचनीय स्थिति है। यूनिसेफ द्वारा किए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 15-19 साल की 5 प्रतिशत भारतीय लड़कियां यौन हिंसा की पीड़ित पाई गई।
ऐसे ही बाल विवाह भी भारत मंे जारी जबकि यहां भी कानूनी रूप से प्रतिबंधित है । एक आंकड़े के अुनसार, विश्व में होने वाले तमाम बाल ,विवाह में से 40 प्रतिशत भारत में होते है। राजस्थान, आंध्र प्रदेश, बिहार, उŸार प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि बाल विवाह में आगे है।
मगर कन्या सशक्तिकरण के लिए सफर यही तक नहीं और कठिनाइयां भी कम नहीं। इन तमाम दिक्कतों के अलावा लड़की का शादी के बाद दूसरे घर जाना, और लड़की की इज्जत बनाम सुरक्षा का प्रश्न घरेलू और सामाजिक स्तर पर हावी है। पराया धन कहे जाने से मां-बाप भी उसे जैसे पराया ही समझ लेते हैं और शायद अधिकतर घरों में लड़की के लिए उतना ही शिक्षा, विकास और अधिकार जरूरी समझा जाता है, जितना शादी के लिए जरूरी है। वही बेटा बच्चा को अपना समझा जाता है और उसके विस्तार और विकास की असीमित कोशिश की जाती है। फिर लड़की के लिए सुरक्षा का प्रश्न उसके दायरे सीमित कर देते हैं और उसे रेप और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं से बचाने की भावना प्रबल हो जाती है। वैसे उसके दायरे इसलिए भी सीमित कर दिए जाते हैं और उसे मां-बाप या समाज के द्वारा ही गुलाम बनाए रखने की मंशा कायम रहती है ताकि ससुराल में बिटिया बस सकें और वहां से लड़ झगड़कर या उनका जुल्म सहने से मना कर वापस ना आए। क्योंकि समाज
पुरूषवादी तो महिला को हिस्सा और हक ना मायके वाले को देने की मंशा हुई है और ना ही ससुराल वालों की।
अतः घरेलू, सामाजिक और कानूनी जब तीनों प्रकार की स्थितियां लड़कियों के अनुकूल होगी, तभी कन्या सशक्तिकरण के रास्ते अधिक तेजी से खुल पाएंगे। यद्यपि जागरूकता आई है और पहले से बेहतर स्थिति भी लड़कियों के लिए हुई है। कन्या सशक्तिकरण योजना व सरकारी सुविधा ने महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार आसानी से खोले हैं और लड़की के लिए लाभ की योजना ने मां-बाप को लड़की को आगे कर उसका लाभ उठाना सिखा रहा है और अवसर मिलने पर लड़कियां खुद को साबित भी कर रही है मगर योजनाआंे का लाभ तक ही अगर बेटी को आगे बढ़ाया जाए तो निश्चित ही अब भी लड़कियों की राहंे दुर्गम है, और इनसे आगे निकलने के रास्ते अभी और तलाशने होंगे। इसके लिए सरकारी नीतियों के साथ-साथ घरेलू और समाजिक नियमांे की पुनः समीक्षा और लड़कियों के प्रति दोयम दर्जे वाला भाव दूर करने हेतु अभी और पहल करने की जरूरत है।
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