सोहागवती का आशिर्वाद: दुवा या बद्दुआ
-कुलीना कुमारी
लोग कहते हैं कि हमारे जीवन में दुवाओं का बड़ा असर होता है, बड़े-बुजूर्ग व अपनों का मिलने वाला आशिर्वाद हमारे जीवन की खुशियों को बढ़ाने में सहायक होते हैं। लेकिन शादीशुदा महिला को बड़े-बुजूर्ग द्वारा दिए जाने वाला ‘सोहागती रहो’ आशिर्वाद से मुझे आपŸिा है।हिंदू धर्म में शादी के बाद से पतिवती महिला (जिनके पति जिंदा है) द्वारा बड़े-बुजूर्ग को नमण करने पर उसेे सोहागवती रहने का आशिर्वाद दिया जाता है। इसका एक अर्थ है कि महिला जब तक जीये, सोहागवती रहे अर्थात् उसका पति जिंदा रहे, जबकि इसी शब्द का दूसरा अर्थ है कि महिला पति से पहले मर जाये, तभी उसके लिए सोहागवती रहने का अर्थ फलित होगा। यह बड़े-बुजूर्ग द्वारा दिए जाने वाला कैसा आशिर्वाद या अभिशाप है जो बड़े-बुजूर्ग को नमण किए जाने के बावजूद पति से पहले या महिला के जल्द मरने की कामना किया जाता है।
विज्ञान ने काफी तरक्की की है लेकिन अभी भी किसी का जन्म व मौत ईश्वर के हाथ में है, ( फिर दुवा या बददुआ के नाम पर महिला के मरने का कामना क्यों किया जाता है।) यद्यपि विज्ञान के बदौलत मनुष्य के सुख-सुविधाओं के काफी वस्तुओं का सृजन संभव हो पाया है। गैस का चुल्हा, बल्ब, पंखा, गाड़ी, मोबाइल व कम्प्यूटर तथा और भी बहुत कुछ। इन चीजों के जरिये हम अपने आवश्यक काम कम समय में निपटा पाते हैं, इससे न केवल हमारी उम्र बढ़ी है, बल्कि अपने आकांक्षाओं के पंख को अधिक तेजी से उड़ाना संभव हो पाया है। लेकिन अभी भी जो नहीं बदला है, वो है हरेक व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन मूल्य, जीवन जीने के तरीके व जीवन की कठिनाइयों को हल करने की प्रवृŸिायां, उसके संकल्प व सपने। कुछ तथ्य बताते हैं कि जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाला व विकट परिस्थितियों में भी जीने की आकांक्षा रखने वाला व्यक्ति अधिक दिनों तक जीता है। डार्विन का प्रकृति प्रदŸा सिद्धांत के साथ-साथ कुछ देशों की जीवन प्रत्याशा की आयु अलग-अलग होने की वजह उस देश की सामाजिक, आर्थिक व मानसिक जैसे कई मुख्य तथ्यों को जिम्मेदार ठहराया गया था। इस सोच को बल प्रदान करने वाला एक अन्य तथ्य जो शायद हम सभी ने किसी न किसी को देखा होगा वह ये कि व्यक्ति का प्राण तब तक अटका रहता है, जब तक कि आंख बंद करने से पहले वह अपनी इच्छा अपने किसी खास को बता नहीं देता और उसकी इच्छा पूर्ति का उसे आश्वासन नहीं मिल जाता।
अगर स्त्री का जीवन प्रत्याशा पुरुष से अधिक है तो इसकी वजह विकट परिस्थितियों में भी उसकी जीवन जीने की ललक, अपने घर-परिवार के प्रति जिम्मेदारी निभाने की प्रवृŸिा, कर्Ÿाव्यपरायणता व उसकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है, अगर इन चीजों का अनुपात स्त्री की तुलना में पुरुष में कम है तो इसमें महिला की गलती नहीं है। (मेरे मायके में मेरी दादी जिंदा है लेकिन दादा को गुजरे कई दशक हो गए। ससुराल में सास जिंदा है लेकिन ससुर को भी गुजरे कई वरष हो गए। पुरुष के पहले गुजरने का एक कारण जीवन की कठिनाइयों को सामना करने की विफलता व और जीवन जीने की उनकी इच्छाशक्ति का अभाव हो सकता है, इसमें महिला की गलती नहीं हो सकती।)
वैसे जो पैदा लेता है, मरना उसका तय है, लेकिन उसके जीवन जीने के तरीके व आकांक्षाएं उसके आयु के घटाने या बढ़ाने का काम करता है, फिर महिला के सोहागवती रहने का दुवा क्यों किया जाता है अर्थात् महिला के पति से पहले मरने की दुवा। अगर सती प्रथा कायम रहती तब भी मुझे इस आशिर्वाद का मतलब नजर आता, जबकि ऐसा अब नहीं के बराबर है। अगर सोहागवती से अर्थ पति से मिलने वाली सुख-सुविधा व ताकत से होती तो पति बनाम शादीशुदा पुरुष के नमण करने पर चिरंजीवी या सतंजीवी का आशिर्वाद नहीं मिलता, उसे भी ‘पत्नीवती रहो’ का आशिर्वाद दिया जाता। लेकिन ऐसा होता नहीं है, एक साथ पति-पत्नी द्वारा बड़े-बुजूर्ग को नमण किए जाने पर पुरुष को दीर्घायु का आशिर्वाद मिलता है व महिला को सोहागवती के रूप में पुरुष से पहले मर जाने की बद्दुआ। ये गलत है।
यद्यपि पतिवती (जिनके पति जिंदा है) स्त्री को ये आशिर्वाद न केवल श्रेष्ट पुरुष द्वारा बल्कि बड़ी महिलाओं द्वारा भी दी जाती है। ये आशिर्वाद इस तरह जन-मानस के प्रचलन में है कि पुरुष के साथ-साथ अधिकतर स्त्रियां भी पति से पहले मरना सौभाग्य का सूचक समझती है। वैसे पुरुष का साथ पति पर निर्भर स्त्री के लिए आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है बल्कि पति के शारीरिक सुख के साथ-साथ उसे मंसाहारी भोजन प्राप्त करने का, लाल-पीले साड़ी ग्रहण करने का व हर शुभ कार्य में भागीदार करने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन अगर पति नालायक भी हो और वह अगर स्त्री से पहले मरता है तो स्त्री को न केवल पति के शारीरिक सुख से वंचित होना पड़ता है, बल्कि इसके साथ-साथ उसके लिए मनपसंद भोजन, पहना-ओढ़ना व शुभ कार्य में भागीदारी से भी वंचित होना पड़ता है।
शायद इन सब वजहांे से महिला खुद भी पतिवती रहने की दुवा देती है और रहना भी चाहती है।
पिछले दिनों एक बुजूर्ग महिला ने अपनी मां की मौत की कहानी बड़े गर्व के साथ सुनाई व पिता से पहले मां के गुजर जाने की वजह से अपनी मां को बड़ा सौभाग्यशाली बताया और जोर देकर बताया कि सभी स्त्री का सौभाग्य हमारी मां जैसा हो। उन्होंने बताया, ‘‘मेरे पिता लंबे समय से बीमार चल रहे थे, खुद से उठ-बैठ भी नहीं पाते थे, और मां दिन-रात उनकी सेवा किया करती थी। जब मेरे पिता को लगने लगा कि वे अब नहीं ठीक हो पाएंगे तो हाथ-पैर जातती मेरी मां से कहा कि आप मेरे से पहले मरिये क्योंकि मैं ऊपर जाऊंगा, उससे पहले आप जाकर मेरे रास्ते को झाड़-बुहाड़ कर के साफ रखेंगे। पिता द्वारा बार-बार इन बातों को बोले जाने पर शुरु में तो मां ने विरोध किया और कहा कि मैं स्वस्थ हूं और बीमार भी नहीं हूं, मैं आपसे पहले कैसे मर सकती हूं लेकिन इन बातों के कुछ दिनों के बाद ही मेरी मां पिता को जांतते-जांतते एक दिन अचानक मर गई। मेरे पिता मां के बाद मरे।’’ उस बुजूर्ग महिला के लिए पतिवती स्त्री शौभाग्य का सूचक हो सकता है। समाज में बुजूर्ग महिला के पिता के तरह अपनी पत्नी के पहले मरने की कामना करने वाले पुरुष की भी कमी न होंगी लेकिन बीमार पुरुष द्वारा स्वस्थ स्त्री के मौत की कामना कही से भी उचित नहीं है। इस अनुचित वृŸिा को सामाजिक मुहर बनाकर दुवा बनाम बद्दुवा के रूप में बड़े-बुजूर्ग द्वारा जो पतिवती स्त्री को दिया जाता है वो हर हाल में गलत है।
आज जब स्त्री-पुरुष दोनों को ही कानूनी रूप से अपनी आयु के हिसाब से जीवन जीने का अवसर दिया जा रहा है तो सामाजिक रूप से भी दोनों को समान आशिर्वाद दिया जाना चाहिए, पुरुष को मिलने वाला आशिर्वाद के तरह दीर्घायु व खुश रहने का।
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