Monday, 11 November 2013

बचपन का महŸव


किसी भी व्यक्ति के जीवन में बचपन का बड़ा महŸव है। बचपन में ही  व्यक्ति के आचार-विचार व जीवन मूल्यों की स्थापना होती है। हमारा बचपन हमारे व्यक्तित्व की नींव की तरह है। अगर नींव मजबूत है अर्थात् बचपन अच्छा गुजरा है तो  व्यक्तित्व में सकारात्मकता अधिक दिखाई पड़ती है, व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी सही तरीके इस्तेमाल करता है, व देर-सबेर सही लेकिन अपनी सफलता व सुख-शांति के प्रति आश्वस्त रहता है। भारतीय भाषा में, हमारे व्यक्तित्व की इन विशेषताओं को संस्कार भी कहा जाता है, बड़ों के प्रति सम्मानजनक संबोधन, उचित भाषा का प्रयोग, समुचित तरीके से उठने-बैठने के सलीके आदि बचपन में ही सीखाए जाते है।
लेकिन अगर किसी का बचपन अच्छा गुजरे ही नहीं, और उसमें सुनहरे भविष्य बनाने के लिए सपने ही नहीं तो इससे न केवल व्यक्ति का भविष्य अंधकारमय बनता है, बल्कि वह दूसरों पर निर्भर होकर आजीवन जीता रहता है।
अधिकतर महिलाओं का बचपन नकारात्मक सोच के साथ व भेदभाव के बीच पलता है और यह नकारात्मकता उसे अपने अस्तित्व के प्रति भी हीनता पैदा करती है, यह हीनता न केवल उसमें परतंत्रता के साथ जीवन जीने के लिए मजबूर करता है, बल्कि इस बेड़ियों को तोड़ने के वह सपने देखना भी छोड़ देती है।
इस संदर्भ में मुझे एक हाथी और महावत की कथा याद आती है, जब हाथी छोटा था तो महावत उसके  मात्र एक पैर में रस्सी बांधकर नियंत्रण में कर लेता था, हाथी के बड़े होने पर भी महावत द्वारा हाथी के सिर्फ एक पैर में ही रस्सी बांधकर नियंत्रण करना आसान रहा क्योंकि हाथी उसका अभ्यस्त हो चुका था।
मनुष्य के बचपन में जैसा बीज बोया जाता है, बड़े होने पर भी उसका असर दिखता है। मनुष्य जिस परिवेश के बीच पलता है, या पाला जाता है, जैसी उससे उम्मीदें की जाती हैं या जिस तरह उसका सपना होता है, बड़े होने पर वे परिलक्षित होते हैं।
मुझे याद है, अपने बचपन की वे बातें जो मुझे सोच के स्तर पर मेरी अन्य सहेलियों से मुझे अलग करता था। मैं लड़की होने के कारण किसी हीन भावना से ग्रस्त न थी और न खुद को किसी लड़के से कमतर नहीं मानती थी, साथ ही मैं लड़का व लड़की दोनों को आगे बढ़ने के समान अवसर दिए जाने के पक्षधर थी व दोनों समान है, इस विषय पर विरोध करने वाले से बहस भी करती थी। फिर मैंने आत्मनिर्भर बनने के सपने बचपन में ही देखे थे, मुझे लगता है कि मेरे बचपन के वह सकारात्मक व समानता के सोच व इच्छाशक्ति का ही परिणाम है कि आज मैं आत्मनिर्भर हूं व मेरे समूह की अन्य सहेलियां हाऊस वाइफ बन कर जी रही है और आज भी अपने को महिला होने के कारण कोस रही है।
मुझे लगता है कि हमारे समाज में जो भी महिलाएं आत्मनिर्भर है, व घर में निर्णायक भूमिका निभाती है, उनमें से अधिकतर महिलाओं ने इस प्रकार के प्रयास बचपन से ही शुरु कर दिए होंगे और उनके अभिभावक व अपनों ने इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्हें बचपन से ही प्रेरित किया होगा।
आज अगर समाज में बहुसंख्य पुरुष आर्थिक निर्भर व निर्णायक भूमिका घर-परिवार में निभाता है तो इसके बीज बचपन से ही बोए जाते हैं व इसके लिए उसे प्रेरित किया जाता है। मां-बाप लड़के को अपना वंश व बूढापे का सहारा मानते हैं तथा गुणवŸाायुक्त खान-पान, बेहतर शिक्षा, व घर तथा बाहर अपनी बात रखने का अवसर प्रदान करते हैं, इसके विपरीत बेटियों को बोझ व पराया धन कहते नहीं अघाते। और बचपन से ही लड़कियों का परवरिश इस प्रकार किया जाता है कि पुरुष राज करें और महिला घर की देखभाल और घरवालों की सेवा।
बेटियों के साथ भेदभाव करने में सिर्फ पिता बनाम पुरुष ही दोषी नहीं है, कई मामलों में देखा गया है कि मां व अन्य स्त्रियां भी इस दोष के भागीदार है। पिछले दिनों एक परिचित ने अपने कजन भाई-भाभी से मिलवाया और परोक्ष में अपने कजन भाई के बारे में बताया कि इसकी चार बहन है, इसने अपनी मां के कहने पर सबसे छोटी बहन को पोखर में डूबा रहा था लेकिन गांव वालों के देखे जाने पर वह बच गई। यद्यपि उसकी छोटी बहन की अभी तक शादी नहीं हुई लेकिन वह जॉब में हैं व आज वही घर-परिवार का खर्च चला रही है। इतने वरष के बाद भी जब उसकी अन्य रिश्तेदार महिला पर इस घटना का असर है तो जिस लड़की के साथ बचपन में ऐसी घटना घटी होंगी, वे क्या भूली होंगी, ये कैसा विभत्स सोच व मजबूरी है जिससे अपने ही दुश्मन बन जाते हैं।
हमने कुछ ऐसे स्त्री-पुरुष को भी देखा है जो मां-बाप द्वारा किए गए बचपन के दुर्व्यवहार के लिए आज तक मां-बाप को ताना देते है। अपने ही भाई-बहनों के बीच किए जाने वाले बचपन के भेदभाव को अनुचित ठहराते हैं व उनकी न्याय प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। बचपन में झेले गए उन यंत्रणा के पल से वे आज भी अपने को चोटिल महसूस करते हैं व मां-बाप के प्रति अविश्वास से उन्हंे दूसरों के साथ मधुर रिश्ता बनाने में कठिनाइयां होती है।
इसी संबंध में कुछ ने अपनी अच्छी परवरिश के लिए मां की भूमिका को सराहा और बताया कि उसकी शिक्षा-दिक्षा व बेहतर परवरिश मां की वजह से संभव हुआ व मां व बच्चों के प्रति पिता द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार से आज भी क्षुब्ध है व पिता को दोषी मानते हैं। जबकि कुछ अन्य ने मां से बेहतर पिता की भूमिका को सराहा।
लोग बड़े हो जाते हैं लेकिन बचपन सभी के लिए खास होता है व बचपन में बिताए अच्छे या बुरे पल का प्रभाव व्यक्तित्व में विशेषताएं या विकृतियां पैदा कर सकती हैं। इसलिए हम बड़े को चाहिए कि हम अपने बचपन में वापस नहीं जा सकते लेकिन अपने बच्चे को बचपन में अच्छा माहौल प्रदान करें व उसे आत्मनिर्भर व जीवन की नई ऊंचाइयां छूने के लिए प्रेरित करें ताकि बड़े होकर वह सफल व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बना सकें।

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