महिलाओं के संग दोयम दर्जे सा व्यवहार
-कुलीना कुमारी
तथाकथित सरकारी महिला सशक्तिकरण के दौर में भी महिलाओं के साथ भेदभाव जारी है। बात बेशक हो विकास की लेकिन हमारे भारतीय समाज की परिस्थिति, कानून व उसके लागू करने संबंधी प्रावधान महिलाओं के लिए उचित वातावरण नहीं बनाते। आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे की मानवीय प्राणी के रूप में देखा जाता है। जबकि पुरुष को अधिक से अधिक सक्षम बनाने के लिए सकारात्मक वातावरण उपलब्ध है।
जी-20 सातवीं अर्थव्यवस्था सम्मेलन में भी बताया गया कि भारत महिलाओं के लिए जीने लायक सबसे खराब देश है। इसमें कहा गया कि कन्या भ्रूण हत्या, कम उम्र में शादी और पराधीनता की वजह से भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय है।
सचमुच हमारे समाज में महिलाएं जन्म से पहले से ही भेदभाव की शिकार है। द लांसेट 2011 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पिछले तीन दशकों में 1.2 करोड़ कन्या भ्रूणों की हत्या हुई है। जो बच्चियां पैदा हुई है, उसके साथ भी लड़के बच्चे के समान बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता, खान-पान, शिक्षा-दीक्षा व बराबरी का प्यार देने से भी गुरेज किया जाता है।
लड़कियों को कमतर माने जाने का एक अन्य दुष्परिणाम है, बच्चियों को मानव व्यापार, जिस्मफरोशी व बंधुआ मजदूरी में धकेला जाना। यद्यपि कुछ बच्चे स्वयं घर से भागते हैं लेकिन भारत में आज भी कई ऐसा समाज है जहां लड़कियांे को कमाने व काम करने के लिए शहर भेजा जाता है जबकि लड़का घर पर मां-बाप के देखभाल के लिए रहता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2008 से 2010 के बीच एक लाख से अधिक बच्चें गायब हो गए जिसमें अधिकतर बच्चियां थी। सिर्फ कर्नाटक से इन तीन सालों के दौरान 270 लड़कियां गायब हुई हैं। सेव द चिल्ड्रेन, यू के की संस्था के हेल्थ प्रोग्राम डेवलपमेंट एडवाइजर गुलशन रहमान के भी मुताबिक भारत में लड़कियों और महिलाओं की वस्तु के रूप में बिक्री जारी है। सीबीआई रिपोर्ट के मुताबिक, अब भी देश में तीस लाख से ज्यादा यौनकर्मी मौजूद हैं, जो कि एक बड़ा सवाल है।
सोचनीय यह भी है कि जिस परिवार में लड़कियां रहती भी है, उसे अनेक बिंदु पर ये एहसास कराया जाता है कि तू लड़की है, इसीलिए सीमाओं में रहना सीख। एक ही परिवार की लड़की-लड़का के शिक्षण की गुणवŸाा में भी अंतर किया जाता है। जबकि लड़कियों को भी प्राथमिक शिक्षा देने का क्रेज बढ़ा है, इसीलिए उसे-लड़कियों को सरकारी स्कूल में लड़का-बच्चा को नीजि स्कूलों में भेजा जाता है। इसके बावजूद पिछले कई सालों से दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परिक्षाओं के दोनों ही परिणामों में लड़कियां अव्वल आ रही है लेकिन इसके बाद भी उच्च शिक्षा मंे महिलाओं की पहुंच बहुत कम है।
शिक्षण के क्षेत्र में और व्यवसायिक शिक्षा में खासकर चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं का अनुपात बराबर अथवा बराबर से थोड़ा अधिक देखने को मिलता है। जबकि अन्य उच्चशिक्षण व प्रशिक्षण में महिलाएं बहुत पीछे है। देश भर में आईआईटी में सिर्फ 10 प्रतिशत व आईआईएम में मात्र 20 प्रतिशत लड़कियां है। शिक्षण व डॉक्टरी के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या इसीलिए ठीक है क्योंकि ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिसे परिवार चलाते हुए चलाया जा सकता है। क्योंकि ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिसमें जॉब के अलावा प्रायवेट प्रैक्टिस की गुंजाइश रहती है जो कि अन्य क्षेत्र में इतना सहज नहीं। जबकि अन्य क्षेत्रों के प्रशिक्षण के लिए अधिक पैसा खर्च करना होगा, दूर भेजना होगा, साथ ही समय भी ज्यादा लगेगा जिसे परिवार वालों को मंजूर नहीं। अतः शिक्षण व प्रशिक्षण के स्तर पर भी महिलाओं को दोयम दर्जें का मनुष्य माना जाता है।
लड़कियों को दी जा रही परवरिश का एक बुरा पहलू यह है कि बचपन से ही उसे समझाया जाता है कि तुम्हें वही करना है जो तुम्हें तुम्हारे बड़े कहे, चाहे वो गलत हो या सही, तुम्हें अपना दिमाग इस्तेमाल नहीं करना है और उनके अनुसार ही तुम्हें चलना हैं। बड़े से तात्पर्य विभिन्न प्रकार के रिश्तेदार है, जिसमें मां-बाप, भाई व शादी के बाद पति व सास-ससुर के लिए संबोधित किए जाते हैं। लड़कियों को विभिन्न प्रकार के व्यवहार द्वारा यह भी बताया जाता है चाहे भाई या अन्य कोई पुरुष उम्र में तुमसे छोटा ही क्यों न हो लेकिन क्योंकि वह पुरुष है, इसीलिए उसे बड़ा ही समझो। मुझे आज भी वह प्रसंग याद है जब मेरे द्वारा देवर को नाम से संबोधित करने पर मेरी सास ने कहा था, यह बहुत गलत बात है, बड़का-जेठका के संतान को नाम से संबोधित नहीं करते। अधिकतर परिवारों में लड़कियांे को हुनर के रूप में सिखाया जाता है, प्राथमिक स्कूली शिक्षा, पाक कला, घर की साफ-सफाई व येस वूमैन की भूमिका।
एक तरफ समाज में लड़की के उन कार्याें का कोई मूल्य नहीं है जिस गुण के बिना कोई लड़का लड़की से शादी करने के लिए तैयार नहीं है।
दूसरी तरफ महिलाओं में इन गुणों के होने के बावजूद शादी की परिस्थिति में दहेज देने की प्रथा कायम है क्योंकि महिलाओं के घरेलू कार्य की निपुणता घरेलू कार्य में दिया जाने वाला सहयोग उसके आर्थिक क्षेत्र में किया जाने वाला सहयोग के रूप में नहीं देखा जाता, अपने चौबीस घंटे की डयूटी करने के लिए तैयार रहने के बावजूद उसे अपने ही घर में चाहे वह मां-बाप का घर हो या पति का, उसे आश्रित के रूप में ही देखा जाता है। मां-बाप स्वयं इस बेटीनुमा बोझ को दान-दहेज के साथ उपयुक्त व्यक्ति से शादी करा दूसरे घर में पहुंचा देते है फिर कभी न वापस आने के लिए। अन्य मेहमानों के तरह समय-समय पर दो-चार दिन के लिए आ जाय तो अलग बात है। यद्यपि कानूनन दहेज गैरकानूनी है, लेकिन यह सरेआम चलता है जबकि कानून में बेटियों को भी संपŸिा देने का प्रावधान है किंतु दहेज की वजह से मां-बाप द्वारा लड़की को संपŸिा से बेदखल कर दिया जाता है।
अफसोस उन आत्मनिर्भर लड़कियों व उसके अभिभावकों के लिए भी है जिनकी लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर इतना कमाती है कि स्वयं व अपने परिवार का अच्छी तरह भरण-पोषण कर सकें, इसके बावजूद उस लड़कियों के ऊपर इतना पुरुषवादी सोच हावी रहती है कि वह अपने मां-बाप व अभिभावकों के आज्ञा के बिना अपने लिए कुछ सोच नहीं पाती या फिर उन आत्मनिर्भर लड़कियों का भी मानसिक स्तर पराधीन सोच व परवरिश की वजह से गुलाम बना रहता है। एक ताजातरीन घटना में मैंने देखा है कि एक आत्मनिर्भर लड़की का मानसिक स्तर इतना निम्न व पराधीन है कि वह बेरोजगार पति की आंख बंद कर बात इसलिए मानती है क्योंकि वह पुरुष है और पुरुष की गलत बातों का भी विरोध नहीं करना चाहिए। जिस समाज में चाहे महिला घरेलू कार्य में निपुण है या अन्य बाहरी कार्य में आर्थिक रूप से सक्षम, उसे हर हाल में पुरुष के अनुसार चलने व गुलामी करने का प्रशिक्षण दिया जाय, उस समाज में महिला का विकास कैसे संभव है।
इससे बड़ा महिलाओं के खिलाफ क्या साजिश हो सकता है कि जहां महिलाएं हर तरह से सक्षम भी है वहां भी वह खुशी से पुरुषों की गलत मानने व उसकी गुलामी के लिए तैयार है। तभी तो जब-तब खबर आती है कि ससुराल वालों ने दहेज की मांग की है और मायके वाले ने उसे हर संभव देने का प्रयास किया है, जहां दहेज की मांग पूरा नहीं हो पाती वहां दुल्हन को मार दी जाती है।
राष्ट्रीय अपराध संाख्यिकी ब्यूरो-2010 के मुताबिक प्रति एक घ्ंाटे में दहेज के कारण एक दुल्हन की मौत हो जाती है। बात सिर्फ मौत की नहीं, घर-परिवार में रहने वाली जिंदा महिलाओं की स्थिति भी अच्छी नहीं है। बात चाहे पिता के घर की हो या पति के घर की, जो महिलाएं जरा सा भी अपने परिवार में मरजी चलाना चाहती है, उसके साथ बहुत दुर्व्यव्यवहार किया जाता है, उसे मारा-पीटा जाता है, घर से निकालने की धमकी दी जाती है या फिर घर से निकाल दिया जाता है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा योजना आयोग द्वारा दो अलग-अलग अध्ययनों से खुलासा होता है कि 40 फीसदी से 80 फीसदी के बीच महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार है।
समाज के नीचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले परिवारों में भी लड़कियों की स्थिति अच्छी नहीं है, इस समुदाय में बेशक दहेज हत्याएं कम है लेकिन कच्ची उमर में शादी व कम उमर में मां बनना जैसी समस्याओं से महिलाओं को गुजरना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 50 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले कर दी जाती है। इससे महिला का पूर्ण विकास नहीं हो पाता, व कम उमर में अधिक जिम्मेदारी उठाने व मां बनने से कई स्वास्थ्य संबंधी समस्या की शिकार भी हो जाती है। ऐसी महिलाओं को जागरूक करने के बजाय उसके स्वास्थ्य व जीवन को प्रभावित करने में सहायक है, समाज में घूम रहे यत्र-तत्र घूम रहे बिचौलिया। गरीब बीपीएल परिवार की महिलाओं के संग स्वास्थ्य लाभ के नाम पर उसके शरीर व जीवन से खेला जाता है उसका एक बड़ा उदाहरण है बिहार की 16 हजार से अधिक महिलाएं। मामला यह है कि बिचौलियों द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा राशि हड़पने के लिए ढाई वषों में 16 हजार से अधिक गरीब महिलाओं के गर्भाशय निकलवा दिए गए। सूबे में चल रही राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत बीपीएल परिवार के पांच सदस्यों के लिए अधिकतम तीस हजार रुपये की मुत इलाज की व्यवस्था है। गरीब परिवारों के इलाज के लिए सूबे में 829 निजी अस्पताल सूचीबद्ध है और यही से खेल शुरु हुआ। जिन सभी महिलाओं के गर्भाशय निकाला गया, उनकी उम्र 20 से 30 वर्ष है। अब ऐसी महिलाएं कभी भी मां नहीं बन पाएंगी।
मेरे ख्याल से स्वास्थ्य लाभ योजना का शिकार भी महिलाएं इसीलिए हुई क्योंकि इसके लिए उसे बिचौलियों से पहले उसके अपने परिवार वालों ने ही तैयार किया होगा। किसी भी पति के लिए जब उसकी पत्नी मां नहीं बनेगी तो किसी भी पुरुष के लिए ऐसी महिला को बांझ कहकर छोड़ देना अथवा दूसरी शादी करना बड़ी बात नहीं। फिर दूसरी महिला से किसी भी हद तक लाभ उठाना पुनः प्रारंभ हो जाता है।
यह महिलाओं के खिलाफ बनता वातावरण का ही दुष्परिणाम है कि जो पुरुष किसी महिला के पेट से पैदा हुआ है, और जिसका जीवन किसी महिला के साथ जीने से ही सफल है व दुनिया का अस्तित्व भी, वही पुरुष अगर महिला जाति के अस्तित्व, अस्मिता व उसके महŸव को नकारे और उसे अपने से कमतर कहते हुए शरमाए नहीं। उससे बड़ा निर्लज्ज और कौन हो सकता हैं।
अतः ये कहना अतिश्योक्ति नहीं कि परिवार, समाज व सरकारी कानून सभी महिला विरोधी है, एक और महिलाविरोधी अभियान जो कि महिला के खिलाफ जारी है, वह साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसी महिलाओं का ही महिमा मंडन करना जो पारंपरिकता में विश्वास करती है, जो महिलाएं अपने दम पर खुद को खड़ा नहीं करती बल्कि वैचारिक व व्यावहारिक स्तर पर भी अपनी मरजी से जीती है या जीने की कोशिश करती है, उन्हें चरित्रहीन, डायन व बुरा घोषित कर किसी न किसी रूप से उसका नुकसान पहंुचाने की कोशिश करना।
महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए सभी जागरूक महिलाओं व लेखिकाओं का एक पुनीत कर्Ÿाव्य है कि उन्हें जिस भी रूप में हो, महिलाओं को दोयम दर्जें के रूप में मानने से इंकार करें, खुद को सबल बनाने के साथ-साथ दूसरी महिलाओं को भी अपनी क्षमताओं के हिसाब से उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास करें।
नारी नारी का दुश्मन नहीं, पुरुशवाद का मोहरा है
समय-समय पर नारी के विकास और उसके राहों में आने वाली रुकावटों के बारे में जब भी बात की जाती है, प्रायः दबे जुबान से यह कहा जाता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है। लेकिन जब ऐसी ही बात अपने पुरूष संस्कारों से लैश होकर संसद जैसे सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थान में एक पूर्व मंत्री और सांसद डॉ. कर्ण सिंह जिन्हें यह भी जरूर पढ़ा होगा ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवताः’ इस देवता शब्द की अवधारणा अच्छाई की समझ से है-खुलेआम कहता है कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है और यह बात सुनकर भी जब अन्य पुरुषोचित समझ के साथ बैठी नारियां (सांसद व मंत्री) भी हंसती रही अथवा समर्थन में चुप रही तो महिला अधिकार के संदर्भ में विचारणीय लगता है कि ऐसा आरोप क्यों मढ़ा जाता है। ऐसा कहने वालों की समझदारी से ज्यादा सुनने पर चुप्पी साधने की मंशा क्या है?
ऐसा कहने वाले या स्वीकार करने वाले वो लोग हो सकते हैं जो स्त्री-पुरुष के संबंध व स्त्री-स्त्री के संबंध को सिर्फ ऊपरी तौर पर देखते हो। किसी भी बयान को जारी करने से पहले कारणों की पड़ताल और कारण के मूल में जाना जरूरी है।
हां ये सच है कि लड़कियों के साथ अथवा बहुओं के साथ होने वाले भेदभाव में महिलाएं (मां-सास) पीछे नहीं आगे रहती है, घटते लिंगानुपात का महŸवपूर्ण कारण मां द्वारा कन्या शिशु को दुनिया में नहीं लाने की अनिच्छा भी शामिल है। लगभग केरल और पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर भारत वर्ष में स्त्रियों को सामाजिक-आर्थिक भागीदार के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता और सांसारिक बोझ मानने के स्वरूप स्त्री भू्रण हत्या की जाती है। लेकिन जब से विभिन्न राज्य सरकारों ने स्त्री-बच्ची को जन्म देने पर एक राशि का ईनाम देना शुरू किया है तब से स्त्री भ्रूण हत्या की दर में घटौती आई है।
वैसे पुरूषवाद की विडंबना है कि उस नये रास्तों से लड़ने के रास्ते भी निकाल लिए जाते है जो विकास के लिए अवरोधक तत्त्व विकसित करता है। संभवतः विकास के बीचाक्षर ‘क’ को ‘न‘ में बदलने की भूमिका अहम हो जाती है। राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार जबसे बनी है, तब से गर्भपात की संख्या घटी है, लेकिन गर्भ में कन्या शिशु हत्या के बजाय जन्म देकर बच्ची के जन्म से जुड़े प्रोत्साहन राशि लेकर मारने की प्रथा चली है और ग्राम पंचायत भी इसमें सहयोगी बना हुआ है, जहां महिला आरक्षण है।
कई बार जबरदस्ती लेकिन कन्या भ्रूण हत्या उसकी मां की जानकारी में की जाती है। ऐसी महिलाएं समाज में आसानी से व खुलेआम कहती हुई मिल जाती है कि अगर उनकी एक या दो बेटियां है तो दूसरी या तीसरी संतान लड़का ही चाहिए। इसके अलावा दुनिया में आए बेटा-बेटी के खान-पान, शिक्षा-दीक्षा व संस्कार में भी परिवर्तन किए जाते हैं और उस कार्य में पूरी भागीदार महिला दिखाई देती है। अर्थात लड़का-लड़की दोनों के लिए जो समाज ने अलग-अलग पैमाना निर्धारित किया है, उसको उसी रूप में चलाने के लिए महिलाएं ही आगे दिखाई पड़ती है। ये तो महिलाओं के द्वारा महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण का बाहरी पक्ष हुआ।
इसका आंतरिक पक्ष बिल्कुल उलट है। एक लड़की को पुरुषवादी व्यवस्था में जन्म से पहले ही लड़की होने के प्रति सामाजिक व पारिवारिक दुर्भावना का सामना करना पड़ता है, जैसा कि माना जाता है कि घटते लिंगानुपात इसी दुर्भावना का परिणाम है। इसका जो दूसरा विद्रुप परिणाम दिखता है, वो है महिला को पुरुष के गुलाम के रूप में तैयार करना क्योंकि पुरुषवादी व्यवस्था तभी कायम रह सकती है जब महिला खुद को कमतर और पुरुष को महान समझे।
इस गुलामी की प्रक्रिया के अंतर्गत एक परंपरा सी बनी हुई है या व्यावहारिक रूप में ये ग्रहण कर चुकी है कि महिला चाहे घरेलू हो या कामकाजी, घर व बच्चों की देखभाल और बच्चों को जीने का तरीका बनाम संस्कार देने की जिम्मेदारी मां की है। इसकी एक वजह ये हो सकती है कि विवाह के बाद दूसरे परिवेश से आई लड़की भी ऐसा कार्य करते हुए अपने घर-परिवार के लोगों को देखा होगा तो यह कार्य करना उसके लिए नया नहीं आसान होगा, ऐसा माना जाता है। इसका दूसरा पहलू यह है कि शादी किसी भी महिला के लिए बंधन मानी जाती है जिसमें उसका घरेलू देखभाल, पति व बच्चें शामिल होते हैं। इस संबंध में तीसरा महŸवपूर्ण पहलू है कि स्त्री में ‘‘ऑबजर्वेशन’’ की क्षमता, कार्य के प्रति निष्ठा व सहनशीलता अधिक होती है। फिर बच्चे सबसे अधिक मां से प्रभावित होते हैं और बच्चों को शुरुआती उमर में अच्छे देखभाल की आवश्यकता होती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि घर व बच्चंे की देखभाल की जिम्मेदारी पूरे चौबीसों घंटे की होती है जो कि पुरुष नहीं कर सकता या नहीं करना चाहता, ऐसे में इन कार्यों के लिए महिला से बढ़िया कोई और विकल्प नहीं होता।
महिला को बार-बार यह बताने की कि घर में स्त्री की क्या औकात होनी चाहिए। पुरुष वर्चस्व में दबी महिलाओं के संबंध में एक बात साफ है कि वह पति पत्नी को सामाजिक सच की जानकारी देता है। वह पत्नी या घर में स्थित महिलाओं को इसी हिसाब से जीने का आदेश देता है। जो भी इस आदेश बनाम सीमा को लांघने का प्रयास करती है। उसे सामाजिक सरोकारों से वंचित कर गैर सामाजिक प्राणी बताने के मुहिम चलाए जाते है।
महिला बचपन से ही जुल्म सहतेे-सहते थक हार कर कब जुल्म सहने की अभ्यस्त हो जाती है, यह कब उसके जीवन जीने के तरीके में कब शामिल हो जाता है, उसे पता नहीं चलता। इस पारिवारिक व सामाजिक महिला विरोधी आग में घी डालने का काम करता है हमारा महिला विरोधी कानून व उस कानून को पालने की लंबी व ऊबाई प्रक्रिया।
पैतृक संपŸिा में पुरुष का हिस्सा सामान्य व आधिकारिक रूप से प्रयोग में है लेकिन संपŸिा में कानूनन लड़की का हिस्सा सर्वोच्च न्यायालय ने नियत कर दिया है लेकिन अभी तक प्रचलन में नहीं आया है। इसीलिए पैतृक संपŸिा में बेटी को हिस्सा नहीं मिलता, जहां एक-आध लड़कियां पैतृक संपŸिा में हिस्सा के लिए पहल भी करती है वा करना चाहती है, वहां कानूनी प्रक्रिया इतनी कठिन व लंबी है कि नाममात्र लड़कियां ही ये अधिकार प्राप्त कर पाती है। उपयुक्त तो ये होता कि कानून की अनुपालन की प्रक्रिया हेतु तेजी लाई जाती जबकि विधायी तौर पर इसके उलट महिला को बोझ बनाए जाने की प्रक्रिया में ही तेजी की योजना है।
पिछले दिनों ये खबर आई थी कि पति-पत्नी के बीच तलाक या अलगाव के दौरान दहेज की लिस्ट बनाना व उसे प्रमाणित करना मुश्किल होता है, अतः शादी के समय ही उसका पंजीकरण कर दी जाय। पंजीकरण इस लिहाज से अच्छा है कि दहेज की लिस्टिंग को लेकर जो कानूनी प्रक्रिया लंबी खिंचती है, वह अवधि कम हो जाएगी। लेकिन कानूनन दहेज को लेकर पंजीबद्ध संबंधी प्रयास यह बताता है कि दहेज जायज है व शादी में दहेज दी जानी चाहिए।
जब दहेज के लिए ये कहा जाता है कि दहेज देना व लेना दोनों अपराध है तो इस संबंध में क्यों पहल किया जा रहा है। दहेज से महिलाओं को कोई मजबूती नहीं मिलती, तलाक के समय बेशक इस दहेज की लिस्टिंग के आधार पर एक छोटे-बड़े अमांउंट पति के तरफ से मिल जाय लेकिन पति के साथ रहते हुए वह इसकी हिस्सेदार ना के बराबर होती है। दहेज के रूप में कैश, ज्वैलरी व कुछ दैनिक उपयोग के सामान दिए जाते हैं, कैश लड़की को नहीं लड़का को दिया जाता है और बाकी लड़की को दिए जाने वाले ज्वैलरी पर भी उसके पति व ससुराल वाले का ही हक होता है, बचा दैनिक उपयोग के सामान जिसका पूराना होने पर मूल्य नहीं के बराबर है।
ऐसे में उचित ये है कि पहल महिला के हक व मजबूती के लिए किया जाना चाहिए। वो इस तरह कि पैतृक संपŸिा में लड़की के लिए जो कानूनन हिस्सा तय किया गया है व शादी के समय या इससे पहले ही लड़की के नाम कर दिया जाय व इसका पंजीकरण कराना माता-पिता के द्वारा अनिवार्य कर दिया जाय। ऐसा होने से दो फायदा होगा, दहेज का चक्कर खतम हो जाएगा, जैसे अभी लड़के की औकात उसके माता-पिता की संपŸिा से आंकी जाती है व इसीलिए उससे दहेज नहीं मांगा जाता बल्कि उसके संपŸिा व नौकरी के आधार पर ही लड़की के अभिभावक द्वारा दहेज ऑफर किए जाते हैं, जैसे ही लड़के के तरह ही लड़की संपŸिा की अधिकारी होगी, दहेज का तांडव बंद हो जाएगा, व इसी के साथ बंद हो जाएगी दहेज से होने वाली हिंसाएं व हत्याएं।
दूसरा बेटा को लेकर वंश परंपरा चली आ रही है जिसकी वजह से भी लड़की के साथ भेदभाव किया जाता है, कन्या भ्रूण हत्या जारी है व जो जिंदा भी है, उसे गुलाम बनाने की प्रक्रिया जारी है। लड़की को भी बराबर का अधिकारी बनाने से महिला संबंधी होने वाले कई अपराध जिसमें शिशु हत्या, भेदभाव, गुलामी व दहेज समस्याएं शामिल है, इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है। यह शंका कि पिता द्वारा लड़की के नाम संपŸिा दे दिए जाने के बाद भी क्या ये संभावना नहीं होगी कि फिर भी लड़के वाले दहेज मांगे। इसका यह जवाब हो सकता है कि जो भी लड़की के हिस्से में आता था, सब दे दिया, अब कोई और हिस्सा क्यों देगा। फिर शायद ही किसी ने सुना हो कि लड़की वाले ने लड़का से दहेज मांगा हो, इसकी यही वजह है कि लड़का का पैतृक संपŸिा में हिस्सा जो भी है उसे आधिकारिक रूप से उसके नाम है, नाम होना है, इसीलिए उनसे दहेज मांगी नहीं जाती, लड़की को भी आधिकारिक रूप से हिस्सा देने से लड़की भी पति व ससुराल वाले के कहने पर दहेज नहीं मांगेगी। अभी के परिस्थिति में लड़की को संपŸिा के बजाय दहेज दिए जाने से लड़का व ससुराल वालों को दहेजनुमा लालचीपना पिशाच होंठों पर लग जाता है जो कि जब-तब उभरकर सामने आता-रहता है। शादी के बाद शुरुआत में दहेज की मांग पर दहेज कम-ज्यादा मात्रा में प्रदान की जाती रहती है और यह पिशाच आगे ही बढ़ता जाता है, समय-समय पर इसकी पूर्ति नहीं किए जाने से यह या तो लड़की का जीना मुश्किल कर देता है या फिर कभी-कभी निगल भी लेता है। संपŸिा में हिस्सा दिए जाने से ये परेशानी बच सकती हैं, फिर आर्थिक सŸाा प्राप्त कर महिला हीन भावना से भी ग्रस्त होने से बच सकती है व आर्थिक बल पर वह निर्णायक व मजबूत भूमिका परिवार व समाज में निभा सकती है। अर्थात मायके में भी महिला का घर होने से ससुराल में विकट परिस्थिति का अनुभव करने पर या वहां से निकाले जाने पर आत्महत्या करने या मरने-मारने का रास्ता चुनने के बजाय उसे अपना पहला घर मायका वापस आने का रास्ता भी रहेगा व उसके नाम से घर रहेगा तो उसका अधिकार भी रहेगा।
अभी के परिस्थिति में शादी के बाद लड़कियों को यही बताया जाता है कि अब मायका में तेरा कुछ भी नहीं, तू जो भी करना व जैसे भी रहना, ससुराल में रहना। मायका उसके पास विकल्प नहीं होता और ससुराल में भी पति के हिसाब से चलना होता है चाहे वह सही वा गलत हो उसका पालन करना उसकी जिम्मेदारी बनाम मजबूरी होती है। ऐसा ही ससुराल की संपŸिा पर भी लागू होता है, यहां भी पति के साथ रहते हुए भी उसका पति के संपŸिा में जो कि शादी के बाद भी अर्जित हो, हिस्सा नहीं होता। यद्यपि मनमोहन सिंह सरकार की कैबिनेट ने हिंदू विवाह कानून में संपŸिा संबंधी इस संशोधन को मंजूरी दी है कि तलाक के समय शादी के बाद अर्जित पति के नाम की संपŸिा में से कुछ हिस्सा पत्नी को मिलेगा। हिस्सा कितना प्रतिशत मिलेगा, ये तय नहीं है, इसे न्यायालय के ऊपर छोड़ दिया गया है। यह विधेयक विभिन्न गठबंधनों वाली कमजोर सरकार के तरह ही लचर दिखती है, व निर्णायक नहीं लगती है, इसकी एक वजह यह है कि संपŸिा में कितना हिस्सा मिलना चाहिए, यह तय नहीं है, जिससे तलाक संबंधी कानूनी प्रक्रिया के दौरान संपŸिा में हिस्से को लेकर विवाद बना रह सकता है। दूसरी ये उलझन है कि अगर लड़का शादी के बाद अपने माता-पिता के नाम से संपŸिा अर्जित करता है तो महिला को उसमें से हिस्सा मिलेगा कैसे और क्या सास-ससुर आसानी से उसे अपने नाम की संपŸिा में से हिस्सा देंगे। तीसरी यह कि वैवाहिक जीवन की सफलता पति-पत्नी दोनों के मिलने से बनती है, इसलिए गोवा के तरह विवाह के बाद से पति-पत्नी द्वारा अर्जित तमाम संपŸिा में दोनों का बराबर हिस्सा होना चाहिए। ऐसे कई प्रश्न है जो इस संशोधन विधेयक पर पुनर्विचार के लिए बल देता है।
क्या यह प्रश्न विचारणीय नहीं है कि क्यों हमारी विधायी व कानूनी व्यवस्था महिला के दोनों घर मायका व ससुराल दोनों ही जगह आर्थिक सŸाा की लिहाज से पंगु बनाकर रखता है, या रखना चाहता है। मायके की संपŸिा में हिस्सा नियत किए जाने के बावजूद शादी के बाद लड़की को पारिवारिक रूप से इस अधिकार से वंचित किया जाता है और कानून में इस अधिकार को व्यावहारिक रूप से लागू करने की इच्छा नहीं है, जबकि दहेज को पंजीवद्ध की योजना है, अभिभावक ने लड़की को हिस्सा दिया कि नहीं, इस संबंध को लेकर कोई योजना नहीं है। बालविवाह अपराध है, समझते हुए भी जब अभिभावक द्वारा लड़की का बालविवाह कराया जाता है, तो उचित ये था कि इसकी सजा अभिभावक को दिया जाना चाहिए जबकि ये सजा नबालिग लड़की जो कि उस समय निर्णायक स्थिति में नहीं होती, उसे विभिन्न सरकारी नौकरियों की सुविधाओं से वंचित कराकर लड़की को आजीवन झेलने के लिए मजबूर की जाती है। इसी तरह ससुराल के वैवाहिक जीवन में भी महिला हीन, पंगु व गुलाम बनकर जीए, इसीलिए कानूनन उसे ससुराल की संपŸिा से भी वंचित रखने का प्रयास किया जाता है।
अतः जब तक महिला को भी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व कानूनी समर्थन हर वातावरण में अभिव्यक्ति व आजादी के साथ जीने के लिए नहीं मिलेगा, वह पुरुष की गुलाम बनी रहेगी। क्योंकि यह बातावरण ऐसा है जहां महिला को जीने के लिए पुरुषवादी सŸाा स्वीकार करके रहना व हरसंभव उसके हिसाब से जीने के तौर-तरीका सीखना जरूरी है, इसीलिए हो सकता है, वह अपनी पैदा हुई बेटियों व बहुओं को भी पुरुष गुलामी के तौर-तरीके सीखाए।
यद्यपि कई परिवारों में महिलाओं ने बेटा-बेटी में विभेद करना छोड़ दिया है व लड़के के तरह ही लड़की को भी उचित शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान कर रही है। जहां ये संभव नहीं है, वहां भी कई महिलाएं आगे बढ़कर लड़कियों की मदद करना चाहती है। इस संदर्भ में मेरी एक परिचित का कहना था कि उसके पति ने बेटा को तो निजी स्कूल में डाल दिया है और उसके टयूशन के लिए भी पैसा देते हैं लेकिन मेरी बेटी सरकारी स्कूल में पढ़ती है और उसके टयूशन के लिए भी पैसे नहीं देते। मैं घर के खर्चों से पैसे बचाकर बेटी को टयूशन भेजती हूं ताकि उसे पढ़ाई में दिक्कत नहीं हो। ऐसी कई जागरूक महिलाएं अपनी बेटी, बहन या फिर सहेलियों की सार्वजनिक रूप से या छुप कर मदद करती है।
यद्यपि बाकी महिलाओं का भी पुरुषवादी व्यवहार इस बात का प्रतीक नहीं है कि नारी-नारी की दुश्मन होती है बल्कि इस बात का प्रतीक है कि पुरुषवादी सŸाा के अनुसार चलते-चलते वह पुरुष का मोहरा बन चुकी है, जिनका उद्देश्य पुरुषवादी सŸाा को फैलाना है। ऐसा करने के लिए या तो महिलाएं मजबूर है या फिर पुरुषवादी सŸाा के जुल्म का विरोध करने पर उसे इतनी व ऐसी निर्मम सजा मिल चुकी है कि अब उसमें सही बातों का भी समर्थन करने की हिम्मत नहीं है।
जब तक महिलाओं को जीने के लिए हर स्तर पर सकारात्मक वातावरण नहीं मिलेगा और उसे ये एहसास न होगा कि उसके सर पर भी बड़ों व अपनों का हाथ है, खाली हाथ नहीं बल्कि साधिकार है तब तक शायद महिलाओं को गुलाम बनाने की प्रथा चलती रहेगी और वह पुरुषवादी सŸाा की मोहरा बनती रहेगी, बात यही पर खतम नहीं है, शोषक पुरुषवादी समाज है जबकि दोष महिलाओं पर डाला जाए, सजा ये भी तो कम नहीं।
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