Sunday, 23 September 2012


महिला की कैसी आजादी

-कुलीना कुमारी

वर्षों से महिलाओं के साथ पितृ सŸाा द्वारा अपने फायदे के लिए उसकी भूमिकाओं का निरूपण किया गया, उसके कार्यों की रूपरेखा तय की गई, पुरुषों के हित में ही उसके चरित्र की भाषा गढ़ी गई। और तो और, जन्म से लेकर अंतिम समय तक महिलाओं को जीने की सही तरीके की व्याख्या की गई है। अफसोस इस बात की है कि आजादी के इतने साल बाद भी ये प्रक्रिया जारी है। इस प्रक्रिया ने महिलाओं का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। महिलाओं को भूमिकाओं में बांधने व पितृसŸाा द्वारा खींचे सीमांकन में जीने की मजबूरी ने उसके पैर जकड़ दिए हुए हैं। महिलाओं को जीने का अधिकार घर-परिवार की सुरक्षा के नाम पर ही दिया गया है। महिलाओं की आवाजें तभी तक लोग सुनते हैं जब तक वह घर-परिवार व पितृसŸाात्मक समाज की सुरक्षा के लिए उठती है।
अर्थात महिला घरेलू हो या कामकाजी, उसे घर, परिवार, परंपरा व समाज के बनाए नियम के अनुसार ही जीना है नहीं तो उसे चरित्रहीन अथवा डायन कहकर दंडित किया जाता है। जो महिलाएं अपनी इच्छा से जीवन जीना चाहती है, लड़कों के तरह बराबरी का अधिकार चाहती है या उसका प्रयास करती है, उसके साथ समाज व समाज में व्याप्त पितृसŸाात्मक समझ के प्रतिनिधि बहुत बुरा सलूक करते हैं। दंड भी ऐसा जो महिला विरोधी सोच व सामाजिक विभत्सता  का परिचय दें। अपने अधिकार की आवाज उठाने वाली महिला को  सार्वजनिक रूप से नंगा घुमाया जाता है, पिछले दिनों असम के गोहाटी शहर में सरेआम लोगों के समक्ष एक लड़की का कपड़े उतरवाना, व छŸाीसगढ़ के रायपुर शहर के नजदीक चार हथियारबंद लड़कों द्वारा एक प्रेमी युगल को पकड़ कर सरेआम लड़की को प्रेमी के सामने ही कपड़े उतरवाकर नंगा घूमाना जैसे कई उदाहरण है।
इतना ही नहीं अपनी इच्छा से जीने वाली लड़कियों के साथ  सार्वजनिक व सामूहिक रूप से बलात्कार तक किया जाता है अथवा लड़की को चरित्रहीन बताकर व उसकी गलतियां गिनाकर जला दिया जाता हैं। महिलाओं के संग सार्वजनिक रूप से किए जाने वाले इस अपराध के मात्र इतने उद्देश्य है कि समाज की कोई भी महिलाएं अपने लिए जीने का प्रयास न करें अन्यथा उसके साथ भी ऐसा ही सलूक किया जाएगा।
अगर इसका उद्देश्य इसके बजाय कुछ और होता तो समाज के द्वारा सार्वजनिक रूप से ये अपराध किए ही क्यों जाते, अगर महिला की सचमुच गलती होती तो उसे कानून के हवाले कर दिया जाता, कानून हाथ में लेने की जरूरत नहीं होती। चाहे सवाल महिला द्वारा चुने गए जीवनसाथी को लेकर हो अथवा घर-परिवार द्वारा बीछे गए अकर्मण्य व अपराधी के साथ रहने में आपŸिा, दोनों ही स्थितियों में सजा प्रायः महिलाओं को ही मिलती है। हमारे समाज में महिला को न्यूनतम व्यक्तिगत अधिकार से भी वंचित रखा जाता है। महिलाओं के प्रति किए जाने वाले अपराध को नेशनल क्रायम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी अधिक पुख्ता करती है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011 में महिलाओं के साथ दुराचार के 24206, छेड़छाड़ एवं अश्लीलता के 42,968, सताने के 8570 और अगुवा करने एवं बंधक बनाने के 35565 मामले दर्ज हुए हैं।
इस लेखनी के माध्यम से हमारा उद्देश्य महिलाओं के साथ होने वाले अपराध को मात्र दिखाना नहीं है बल्कि इसके जरिए ऐसे अपराध होते क्यों है, उसके तह तक जाने का प्रयास करना है।
बात कन्या भ्रूण हत्या से शुरू करें तो पाते हैं कि माता-पिता सिर्फ इसलिए लड़के की चाह रखते हैं कि लड़की को वंश के अधिकारी होने का अधिकार धार्मिक आडम्बरों ने नहीं दे रखा है ऐसे लिखें कि संपŸिा का अधिकार व परिवार का गौरव बनने का अधिकार नहीं है। अधिकतर लोगों का जवाब हां में होगा और इन विचारों से अपनी सहमति  भी जताएंगे, लेकिन बात इतनी ही नहीं है। उपरोक्त तीनों अधिकार अगर मां-बाप बेटी को दे दे तो भी बेटी बेटे जैसे रुतबा हासिल नहीं कर पाती, वह है हर हाल में इज्जत व प्रतिष्ठा बनाए रखने का अधिकार जो कि एक लड़की के पास नहीं नहीं होने के कई पक्ष रखें गए हैं। जीवन के विभिन्न परिस्थितियों में लड़की के साथ होने वाले छेड़छाड़ व यौन प्रताड़ना लड़की की इज्जत में बट्टा लगाता है और इसी के साथ मां-बाप के इज्जत में भी बट्टा लगती है जिसकी वजह से माता-पिता लड़की को पैदा नहीं करना चाहते।
जो लड़कियां चाहे-अनचाहे इस दुनिया में आ भी जाती है उस लड़की के विकास के प्रति नहीं बल्कि उसकी शारीरिक सुरक्षा के प्रति माता-पिता हमेशा चौंचक व सशंकित बने रहते हैं। यह सोचकर कि शादी से पहले ही हमारी लड़की के संग कोई प्यार या नफरत का खेल न खेल ले, ऐसा होने पर लड़की अपवित्र हो जाएगी। इस संदर्भ में मेरा सोचना ये है कि लड़की अपनी इज्जत प्रतिष्ठा की सुरक्षा इसीलिए नहीं रख पाती उसे किसी लड़का से कम क्षमता है बल्कि उसकी इज्जत-प्रतिष्ठा इसीलिए दांव पर लगी रहती है कि समाज के ठेकेदारों ने लड़की की इज्जत का ठीका लिया रहता है जिसके अंतर्गत किसी महिला का स्पर्श/संबंध सिर्फ उसके पति के संग हो। अन्यथा महिला की सहमति या असहमति से भी दूसरों के द्वारा बनाया जाने वाला संबंध पुरुष को नहीं महिला को पतित बना देता है। इसे दुर्विति नहीं तो क्या कहा जाय कि किसी महिला के साथ जबरदस्ती यौन संबंध बनाने वाला, किसी के साथ जबरदस्ती मुंह काला करने वाले पुरुष का शरीर व जीवन अपवित्र नहीं होता बल्कि अपवित्र महिला हो जाती है यौन प्रताड़ित महिला का तन-मन व जीवन सब।
दूसरा मामला यह है कि किसी के द्वारा किसी अन्य की संपŸिा हड़प लेने पर, किसी विशेष स्थान पर दंगा-फसाद करने पर अथवा मारपीट व खून खराबा होने पर अगर सजा कानून में चोर, आतंकवादी व खूनी के लिए नियत है तो संपŸिा से वंचित रखकर महिला के जीवन सुरक्षा को प्रति असहमति के लिए भी महिला को ही क्यों जिम्मेवार माना जा रहा है। बलात्कार की स्थिति में एक तो महिला के तन-मन पर आघात पहुंचता है। दूसरा जिस तरह के सवाल पुलिस चौकी से लेकर कोर्ट  तक उसके सामने रखें जाते है वह बलात्कार से भी कठीन और मुश्किल दर्द के दौर से महिलाओं गुजारता है। होना तो चाहिए कि ऐसी स्थिति में महिला की मदद के लिए समाज आगे आए जबकि उल्टा होता है, महिलाओं को लेकर वैचारिक दुर्भाग्य यह भी है कि महिला के पक्ष में कानून बनाने वाली उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री महिलाओं की सुरक्षा में कानून बनाने के बाद होने वाले चुनाव हार जाती हैं।
अतः ऐसी परिस्थिति में लड़की के शरीर को अपवित्र घोषित कर व उसके जीवन को कलंकित बता उसे समाज से अलग-थलग कर दिया जाता है व समाज के न्यूनतम सुविधा से भी उसे वंचित कर दिया जाता है। पिछले दिनों की एक घटना में एक छात्रा के साथ बलात्कार होने पर ग्राम पंचायत द्वारा उसके स्कूल जाने/ अन्य बच्चों के साथ पढ़ाई करने पर रोक लगा दी।
जो लड़की अपनी मरजी से अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक शादी करती है, उसके साथ माता-पिता अथवा समाज बहुत ही बुरा सलूक करता है। न केवल ऐसी महिलाओं को सार्वजनिक रूप से अपमान का सामना करना पड़ता है बल्कि कभी ईट-पत्थरों से तो कभी पीट-पीट कर तो कभी गोली बंदूकों से तो कभी आग के हवाले कर दिया जाता है।
अगर महिला जान बचाकर भाग पाई तो अपने जीवन सुरक्षा हेतु उसे गांव को भूलाना पड़ता है। तरह-तरह के अत्याचार समाज द्वारा अपनी मर्जी से जीने वाली महिलाओं के लिए नियत किए गए हैं।
जो लड़कियां मां-बाप व समाज के कैटेगरी में फिट दिखती है, अर्थात आंख बंद कर पितृसŸाा को स्वीकारती है, परंपरा में विश्वास करती हुई स्वयं को पति व परिवार के लिए ही समर्पित समझती है, उसका भी हश्र अच्छा नहीं। ऐसी औरतें मां-बाप द्वारा चुने लड़को के साथ ब्याह कर जीवन बसर करती है किंतु ऐसी लड़कियों को भी समाज कहां चैन से जीने देता है। परदा प्रथा, दहेज, मारपीट, अप्राकृतिक यौन संबंध झेलना व पति तथा ससुराल वाले के हिसाब से जीने को मजबूर करना महिलाएं की रोजमर्रा में जहां-तहां देखी जा सकती है। एक आंकड़े के मुताबिक करीब 50 प्रतिशत महिलाएं विभिन्न तरह की हिंसाओं की शिकार होती है। समाज का मानक वह रूप जिसमें एक महिला के लिए पति के साथ ही यौन संबंध बनाने व साथ रहने की आजादी दी गई, महिलाओं के विकास की राह में रोड़े अटकाए हुए हैं, इस एक वजह के चलते ही महिलाएं हर हाल में पति को झेलती है चाहे पति अच्छा हो या बुरा। आजीवन पति बनाम पुरुषवादी सŸाा की गुलामी स्वीकारते हुए अपना जीवन ब्यर्थ बरबाद करती है। साथ ही पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम महिलाओं की श्रंखला चलती रहती है।
लोग कहते हैं कि महिलाएं वैज्ञानिक कम होती है, वह इसलिए कि उसे बचपन से ही दिमाग के दरवाजे बंद रखने के लिए कहा जाता है ताकि वह बुद्धिमान न बने, कुछ नया न सोचे और न करे,   उसकी प्रसिद्धि व पहचान न हो ताकि विकल्प के अभाव में वह पुरुष की गुलामी करने के लिए मजबूर हो। महिलाओं की यौनिकता का हवाला देकर उसके पैरों में बेड़िया डाली गई है ताकि वह बेहिचक समाज को खुली आंखों से देख न सके, उसे पहचान न सके और उसमें गुम होने के डर से पुरुष की गुलामी करने को आजीवन अभिशप्त रह सकें।
वैसे एक पुरुष के लिए यौनिकता का सामाजिक रूप से कितना महŸव है? इतना ही ना कि पेट की भूख की तरह शरीर की भी भूख होती है, किसी लड़की को देखकर भूख लगी, संबंध बन गया, भूख खतम, संबंध खतम। वैसे भी मनुष्य का जीवन इसी संबंध पर आधारित है और लड़के-लड़की का एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना प्राकृतिक है। (इस संदर्भ में पूछे जाने पर पत्नी भक्त कुछ पुरुषों का कहना है कि दोनों की सहमति से संबंध बनना तात्कालिक आवश्यकता कहा जा सकता है, अपराध नहीं और इससे किसी का चरित्र हनन नहीं होता।) तो इस प्राकृतिक संबंध का खामियाजा सामाजिक रूप से लड़की के नाम क्यों? फिर यौनिक संबंध को लेकर लड़के के समान ही लड़की का भी नजरिया क्यों न हो? एक ही समाज में रहते हुए लड़के और लड़की के लिए अलग नियम क्यों? क्यों न पितृसŸाा द्वारा महिलाओं के लिए गढ़ी इस इज्जत की परिभाषा को मानने से इंकार कर दिया जाय। महिला अपने शरीर पर किसी पुरुष व समाज की पहरेदारी क्यों करने दें। जिस दिन से महिलाएं महिला के लिए समाज द्वारा निर्धारित इज्जत की इस तथाकथित परिभाषाओं को नहीं मानेगी तो इसका हौआ बनाना भी कम हो जाएगा। (और कम हो सकता है यौन प्रताड़ना व बलात्कार का भय दिखाकर दबंग लोगों द्वारा महिलाओं पर दबाव बनाना)।
इस प्रक्रिया की एक महŸवपूर्ण कड़ी होगी-परदा प्रथा का विरोध। महिलाओं के लिए कितना परदा हो, इस संबंध में एक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्Ÿाा का कहना है कि महिलाओं के लिए भी उतना ही परदा जरूरी है जितना कपड़े की आवश्यकता पुरुषों को है। पुरुष से अधिक महिला को भी अपने शरीर छुपाने की जरूरत क्यों हो? घूंघट व चेहरे तक को छुपाने के लिए मजबूर करना महिला के प्रति एक प्रकार का दबाव बनाम अपराध है जिसका किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता। समाज महिला को अतिरिक्त परदे में रखना उचित समझता है व उसे नंगा करना गाली। लेकिन मैं बताऊं कि किसी महिला का नंगा होना गाली नहीं हो सकता, अगर ये गाली होता तो (जीवनधारा को चलायमान रखने के लिए) कोई महिला किसी लड़का या लड़की को पैदा नहीं करती। अगर पुरुषवादी समाज सरेआम किसी महिला को नंगा करता है, तो वह उस महिला को नंगा नहीं करता, वह खुद को नंगा करता है, वह अपनी मूल/मां को बेइज्जत करता है, और अपने जड़ को काटने वाला कहां फल-फूल पाएगा। तभी तो रफ्तार बेशक धीमी हो, लेकिन इस विकृत समाज में भी महिलाएं आगे बढ़ रही है।
दूसरी जो सबसे ज्यादा महŸवपूर्ण है-वह है अपने को अभिव्यक्त करना, महिला क्या सोचती है व क्या चाहती है, इसे घर-परिवार में व्यक्त करना व अपने सपने की पूर्ति के लिए प्रयास करसंपŸिा ना। अनेकानेक प्रयास मंजिल तक पहुंचने का रास्ता सहज बना देगा।
अंततः कुछ महिलाओं ने अपने प्रयास से कदम के निशां छोड़ना शुरु कर दिया है। सचमुच नए व स्वतंत्र सोच के साथ कुछ महिलाओं ने सोचना शुरु कर दिया है, परिणाम बेशक कुछ हो, इन महिलाओं का जीवन का अंतिम लक्ष्य नए सोच व नए तरीके से जीवन जीना ही है। मुझे उम्मीद है समाज की ये गिनी-चुनी महिलाएं अन्य महिलाओं के लिए ऐसी प्रेरणा का स्रोत बनेगी जो आने वाले दिनों में नया सोच व नया राह प्रशस्त करने में सहायक होगी।

3 comments:

  1. सर्वप्रथम एक सार्थक blog के लिए धन्यवाद।
    समाज की मानसिकता को भारतीय संस्कृति के अच्छे विचारोँ और सही शिक्षा से हि बदला जा सकता है।
    वर्तमान नारी की बुरी स्थिति का कारण टी.वी. और सिनेमा की अश्लीलता है। इस पर कोई रोक लगाने की सोचता तक नहीँ॥
    ........,.....,....................
    मेरी कविताएँ
    http://yuvaam.blogspot.com/p/blog-page_9024.html?m=0

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  2. jee bilkul sahi kaha aapne...mgr buri sthiti k kai karn jisme टी.वी. और सिनेमा bhee jimmewar hain

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  3. jee bilkul sahi kaha aapne...mgr buri sthiti k kai karn jisme टी.वी. और सिनेमा bhee jimmewar hain

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