हमारे भारत देश को गणतंत्र घोषित हुए 61 वर्ष पूरे हो चुके हैं और इसी के साथ पूरे हो चुके हैं हमारे संविधान के लागू होने के भी। हम महिलाएं शुक्रगुजार है हमारे संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेदकर के जिन्होंने संविधान में महिलाओं को बराबरी देने की कोशिश की। उन्होंने इसके माध्यम से बताया कि महिलाएं भी पुरूषों के तरह समान है और उसे भी समाज में समानता के साथ जीने का पूरा अधिकार है।
संविधान लागू होने के बाद से अब तक महिलाओं ने कई दौर का सामना किया। संविधान में लिखित समानता के अधिकार वास्तविक रूप से प्राप्त करने हेतु महिलाओं में एक जोश सा भरा व इसके लिए उन्होंने कई प्रकार की कोशिश की। फलस्वरूप इस दौरान कई प्रकार के सामाजिक परिवर्तन हुए। जिसमें महŸवपूर्ण भूमिका कुछ जागरूक महिलाओं व महिलासेवी संस्थाओं द्वारा महिलाओं की स्थापना व पदप्रतिष्ठा प्राप्त करने हेतु किया जा रहा हैं, इसमें पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन प्रमुख है।
महिलासेवी संस्थाओं में जागोरी, सी.एस.आर., एक्शन इंडिया व सेवा जैसी संस्थाओं का योगदान सराहनीय हैं।
इसी का परिणाम है कि आज महिलाएं छोटे-बड़े विभिन्न स्तरों पर विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत है। ये अलग बात है कि इनकी संख्या गिनती के है और शायद ये अन्य तमाम महिलाओं के लिए उदाहरण मात्र या शुरुआत भर है।
फिर भी मुझे लगता है कि 60 साल पहले तक अगर महिलाओं के जान लेने की कोशिश के समय भी वे चिल्लाती नहीं थी और आज अगर हम किसी के द्वारा पीटे जाते है तो पड़ोसियांे को भनक लग जाती है तो इतना बड़ा अंतर भी हम महिलाओं के लिए सफलता का कम सूचक नहीं है।
लेकिन हम महिलाओं को इसी से संतोष नहीं कर लेना चाहिए। बराबरी का तात्पर्य है भला करने वालों को मान देना लेकिन बुरा करने वालों को मुॅंहतोड़ जवाब देना। इक्का-दुक्का को छोड़कर अभी तक हम महिलाओं ने बुराई करने वालों का मुॅंहतोड़ जवाब देना नहीं सीखा है। अब इस दिशा में हम महिलाओं को कदम आगे बढ़ाना है और इसके लिए महिला समर्थक पुरुष के अलावा स्वयं महिलाओं में एका होना आवश्यक है।
क्यों और क्या कारण है कि आज भी लड़कियों को भ्रूण में मार दी जाती है?
लड़कियां जो दुनिया में आती भी है उन्हें क्यों जन्म के बाद से ही अनेक प्रकार के भेद-भाव का सामना करना शुरू हो जाता है?
क्यों अभिभावक द्वारा शादी के नाम पर बेटी के ससुराल वालों को तो दहेज दिया जाता है, लेकिन बेटी को संपŸिा का अधिकार नहीं दिया जाता।
क्यों आज भी लड़कों द्वारा ससुराल वालों को परेशान करना शान समझा जाता है और लड़कियों का ससुराल में परेशान होना कर्त्तव्य में शामिल।
क्यों आज भी बेटे पिता को देखकर गलत करना सीखते हैं और बेटी पिता के डर से अपने हक का न्यूनतम इस्तेमाल भी नहीं कर पाती।
लड़का-लड़की के बीच ये तमाम फर्क जो अभी तक किए जा रहे हैं, हमें इन दूरी को मिटाना है।
वैसे गणतंत्रता के 61वर्षों में लड़का-लड़की के बीच इस दूरी को कम करने हेतु कई कानूनी प्रयास किए गए हैं जिसमें जन्म पूर्व लिंग की जांच, दहेज, बाल विवाह, सती प्रथा तथा घरेलू हिंसा को दंडनीय अपराध मानना शामिल है। इसके अतिरिक्त महिलाओं की मजबूती के लिए एक पुरुष का सिर्फ एक स्त्री से विवाह को जायज बनाना या बिना तलाक लिए दूसरी स्त्री से विवाह को सही नहीं ठहराना भी कानून में शामिल किए गए। वही महिलाएं अपनी स्वैच्छा व आजादी के साथ सुरक्षा पूर्वक जी सके, इसके लिए पुरुषों द्वारा किए गए छेड़छाड़ व यौन शोषण को बड़ा अपराध घोषित कर इसके लिए सख्त से सख्त सजा का प्रावधान भी बनाया गया।
इसके अलावा महिलाओं के राजनीतिक व सामाजिक सशक्तिकरण हेतु पंचायत स्तर पर मिलने वाला पचास प्रतिशत तक आरक्षण भी प्रमुख है। वैसे लोकसभा व राज्यसभा के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के विधान सभा व विधान परिषद में भी महिलाओं को आरक्षण मिले, इसके लिए अभी तक बहस जारी है।
सवाल यहां है कि इतने सारे प्रयास किए जाने कि बाद भी क्यों महिलाएं अभी भी मजबूत नहीं है या इन्हें अभी भी इतनी सारी क्यों समस्याएं है? इसका कारण या तो महिलाओं में अभी तक पूरी तरह जागरूकता नहीं आयी है, उन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है या फिर महिलाओं के लिए लिखित कानून तो बन गया है लेकिन परिवार व समाज में इसे व्यावहारिक रूप से लागू नहीं किया गया है।
असलियत महिला कानून का व्यावहारिक रूप से प्रयोग नहीं किया जाना ही लगता है क्योंकि किसी भी बच्चे के लिए माता-पिता ही आदर्श होते हैं और विशेषकर बच्चियां अभिभावक को प्रसन्न रखना अधिक उचित समझती है। जब लड़की का परिवार में ही जन्म व जन्म के बाद से विभेद शुरू हो जाता है तो बड़े होने पर अगर उसके प्रति कुछ गलत हो जाता है तो शायद वे इसे गलत नहीं समझती या फिर अपने प्रति होने वाले जुल्म को चुपचाप सहने की आदत के कारण प्रतिकार नहीं कर पाती। या फिर अभिभावक द्वारा उसका ऐसा विकास ही नहीं किया जाता कि किसी जुल्मी से वह अपना बचाव कर सकें या उसे मुॅहतोड़ जवाब दे सकें।
अतः लड़कियों को माता-पिता द्वारा दिए गए कमजोर संस्कार उसके मजबूती के राह में अभी भी रोड़े बने हुए हैं जिसके बल से अभी भी पुरुषवादी व्यवस्था फल-फूल रही है। इस बल को अधिक मजबूती प्रदान कर रहा है पुरुषवादी समाज और इस व्यवस्था में पले हमारे न्याय के प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले जज। एक तरफ महिलाओं के साथ होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा अपराध घोषित किया गया है तो दूसरी तरफ इसके काट भी जारी है। अधिकतर दूसरों पर निर्भर रहने वाली महिलाएं कानूनी दांव-पेंच समझती नहीं, इसलिए अपने बचाव हेतु इसके चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहती, अगर पड़ भी जाय तो जीत मिलना आसान नहीं, इसलिए धड़ल्ले से महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा व दहेज उत्पीड़न जारी है।
और तो और कानून में ही एक तरफ सिर्फ एक पति-पत्नी का साथ जायज बनाया तो दूसरी तरफ पुरुषों द्वारा अनेक पत्नी बनाम कई स्त्रियों का सुख प्राप्त होता रहे, उसकी सुविधाओं हेतु ‘लीव इन रिलेशनसिप’ के नाम से अन्य कानून बना दी गई। इसी ‘लिव इन रिलेशनसिप’ का हवाला देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा दिए एक फैसले में पत्नी के साथ प्रेमिका बनाम दूसरी स्त्री को साथ रखना जायज बना दिया।
कहने का तात्पर्य है कि अगर ‘लिव इन रिलेशनशिप’ महिला के हित में भी होता तो अब तक कोई ऐसा मामला क्यों नहीं आया जिसमें कोई स्त्री अपने पति के अलावा किसी अन्य पुरुष को साथ रखना जायज बताती, अगर ऐसा होता तो क्या हमारी न्याय व्यवस्था भी इसे उचित ठहराता। हर्गिज नहीं।
एक अनुमान के अनुसार, हरेक वर्ष हर दस में से पांच से अधिक महिलाएं किसी न किसी जुल्म की शिकार होती है लेकिन सिर्फ कुछ महिलाएं ही इससे बचने के रास्ते तलाश कर पाती है।
वही देश के राजधानी तक में हर वर्ष यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामले महिला सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह लगाए हुए हैं। चाहे रूचिका हत्याकांड हो या फिर हाल-फिलहाल में घटित उŸार प्रदेश में सŸााधारी पार्टी बसपा के विधायक के अत्याचार की शिकार बहुचर्चित शीलू का मामला। जब-तब घटते ऐसे मामले हमें एहसास दिलाते हैं कि जिनके पास सŸाा व पैसा है, उनके द्वारा किसी भी तरह गुनाह करके बचना मुश्किल नहीं है।
अब तो महिलाओं के लिए ऑनर किलिंग भी बड़ा मुद्दा बन गया है। यह पुरुषवादी व्यवस्था को बनाए रखने के उद्देश्य से माता-पिता व अभिभावक द्वारा किया जाने एक जघन्य अपराध है। यह एक ऐसा मुद्दा बन गया कि माता-पिता व बच्चंे के रिश्ते पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। जबकि सबसे बड़ा सम्मान किसी भी बच्चंे के लिए मां-बाप का प्यार है और मां-बाप के लिए उनके बच्चें। लेकिन पुरुषवादी वर्चस्व के बतौर ऑनर किलिंग के बढ़ते मामले इस रिश्ते को घृणित बना रहे हैं।
इससे अधिक अफसोस की बात ये है कि महिलाओं के प्रति अपराध को बढ़ाने में सहायक हो रहा है स्वयं हमारा सरकारी तंत्र। भ्रष्टाचार में लिप्त हमारे सरकारी कर्ता-धर्ता वो सभी कार्य करने को तैयार है जो नैतिक रूप से गलत है। पुलिस थाना हो या न्यायालय दोनों के ऊपर भ्रष्टाचार के कीचड़ पड़ चुके हैं। फलस्वरूप वे निष्पक्ष होकर न्याय नहीं कर पा रहे जिसका बहुत बड़ा खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। और तो और सरकारी तंत्र का एक महŸवपूर्ण भाग है, सरकारी अस्पताल। वह अस्पताल जिसे ईश्वर के बाद सबसे बड़ा दर्जा प्राप्त है। वहां भी अगर पोस्टमार्टम के फेरबदल हेतु 200 से 3500 रु. तक में तैयार हो जाय तो फिर भ्रष्टाचार के बारे में कहना ही क्या? ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ के अनुसार, हम आज भ्रष्टचार के मामले में 87वें स्थान पर है। समय रहते अगर इस भ्रष्टाचार को न रोका गया तो लोगों को सच्चाई, नैतिकता व न्याय पर से भरोसा उठ जाएगा। ऐसा न हो, इसके लिए इस पर समय रहते लगाम कसना जरूरी है।
अतः चिंता की बात ये है कि जो हिम्मती महिलाएं सामाजिक चौखट को लांघ कर आरोपियों को सजा दिलाने हेतु कानून पर भरोसा करती है, उन्हें भी न्याय मिलेगा या नहीं। इसका भी पूर्णतः भरोसा नहीं होता। क्योंकि पुलिस व न्यायकर्मी ईमानदार नहीं रहे दूसरा न्याय प्रणाली का बहुत धीमे काम करना। इस समय करीब 20 लाख लोगों पर 27 जज है। ऐसे में जहां जजों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है, उस पर जजों के करीब आधे पद खाली पड़े हुए है। अतः विशेषकर हमारे देश में न्यायिक प्रणाली में बहुत सुधार की जरूरत है। अभी ये बहुत लंबी चलने वाली और अधिक खर्चीली है।ं न्यायिक प्रणाली के इन कमियोें के कारण महिलाओं को न्याय प्राप्त करने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इन वजहों से अधिकतर महिलाओं द्वारा जुल्म को चुपचाप सहने के सिवा कोई चारा नहीं होता।
निष्कर्षतः आजादी मिली और देश को गणतांत्रिक तौर पर स्वीकृति संयुक्त राष्ट्र से मिला, लेकिन गणतंत्र की वास्तविकता यह है कि देश की आधी आबादी अभी तक दूसरे दर्जे के नागरिक की हैसियत से संघर्ष कर रही
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