Thursday, 12 April 2012

महिला दिवस का औचित्य -कुलीना कुमारी





पुरुषवादी सŸाा और सामाजिक संबंध अब तक महिलाओं को अपने हिसाब व मरजी से जीने की इजाजत नहीं दी है। शायद इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दौरान जब महिला पर कार्यरत व्यक्ति, संगठन अथवा सरकार द्वारा महिला समाज को अधिक प्रोत्साहित किया जाता है तो वे इस उत्सव या कार्यक्रम में भाग लेने हेतु आ जाते हैं। या फिर ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रोत्साहन स्वरूप इस दौरान ऐसी लहरें पैदा होती है कि ये समाज अपने घर की स्त्रियों को इस उत्सव में भाग लेने हेतु जाने से मना कर सार्वजनिक रूप से अपने घर की स्त्रियों के दुश्मन नहीं कहलाना चाहते।
पूरे विश्व में 8 मार्च को या इसके आसपास के दिनों में विभिन्न संगठनों द्वारा महिला दिवस मनाया जाता है। इस दौरान कई प्रकार के कार्यक्रम या महिलाओं से संबंधित विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप होते हैं।
महिला दिवस मनाए जाने के औचित्य पर एक नजर डालें तो हमें पता चलता है कि सर्वप्रथम 8 मार्च 1857 को न्यूयार्क में कपड़ा मिल में काम करने वाली महिलाओं ने कार्यस्थल पर बेहतर स्थिति और बेहतर वेतन की मांग को लेकर संघर्ष शुरू किया था। 1908 में पुनः 15000 महिलाओं ने कुछ और मांगों के साथ वोट देने के अधिकार की भी मांग की थी। फिर पहले विश्वयुद्ध के दौरान इसी दिन 1913 में पूरे यूरोप की बहुसंख्य महिलाओं ने शांति मार्च किया था। इसके बाद  से 8 मार्च  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाना शुरु हुआ।
महिला दिवस हम महिलाओं के लिए इसलिए भी अच्छा है कि पूरे साल का एक दिन ही सही हमें अपनी मरजी से जीने की आजादी मिलती है। शायद यह एक दिन ही ऐसा होता है जिसमें पुरुष सदस्य हमारे साथ नहीं होते और इसलिए हमारे तेज, धीरे, या अलग प्रकार के चलने, देखने, सोचने या बोलने पर डांट नहीं मिलती।
यह दिवस हमें अपने बारे में सोचने-विचारने या मूल्यांकन करने का अवसर प्रदान करता है। इसके साथ ही यह अपने अलावा अन्य महŸवपूर्ण महिलाओं की उपलब्धियों की तरफ देखने का तथा जिन क्षेत्रों में महिलाओं की हालत ठीक नहीं है या अपने प्राकृतिक गुणों के कारण वह पुरुष के बराबर सफलता अर्जित नहीं कर पा रही है, उन मुद्दों पर भी यह पुनर्विचार का समय है।
अगर हम अपने देश की ही कुछ उपलब्धियों की गणना करें तो हम पाते हैं कि शिक्षण में महिलाओं का अच्छा प्रतिनिधित्व है, बैंकिंग सेक्टर में भी महिलाओं की पकड़ है। डॉक्टरी पेशा में भी महिलाओं की अच्छी संख्या है। महिला व्यापारिक क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी है, ये अलग बात है कि अभी इनकी संख्या कम है। खेल में भी महिलाओं ने अच्छा प्रदर्शन कर देश का नाम रौशन किया है। नृत्य व संगीत में तो महिलाओं की पकड़ सदियों से है। सिनेमा तथा नाटक में भी महिलाएं अच्छा प्रदर्शन कर रही है। वैसे सामाजिक कार्यकर्Ÿाा के रूप में आज कई महिलाएं अपना पहचान बना चुकी है। वही लेखन के क्षेत्र में अच्छी-खासी महिलाओं की संख्या है। राजनीति में भी महिलाएं अपनी पकड़ बना रही है। पंचायती राज व्यवस्था ने इस क्षेत्र में उभरने का अधिक अवसर प्रदान किया है।
कुछ क्षेत्र जैसे विज्ञान और इंजीनियरिंग में महिलाओं का प्रवेश तो हो चुका है लेकिन अभी इन्हें अपना स्थान बनाना बाकी है। इसके अलावा भी कई ऐसी जगह है जहां महिलाएं खुल के आगे नहीं आयी है।
  अतः हमें लगता है कि नेतृत्व के बड़े स्तर पर बतौर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को स्थान मिला है तो दो मुख्य राज्य जैसे उŸार प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती तथा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने-अपने राज्य के प्रधान है। इसके बाद 34 यूनियन कैबिनेट मंत्रियों की सूची में तीन महिलाएं अर्थात् रेल मंत्री ममता बनर्जी, सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी, आवास एवं शहरी उपशमन मंत्री कुमारी शैलजा को स्थान मिला है।
वही स्वतंत्र प्रभार सहित 44 राज्यमंत्रियों की सूची में सिर्फ 5 महिला राज्यमंत्री है जिनके नाम है कृष्णा तीरथ (महिला एवं बाल विकास), डी. पूरंदेश्वरी (मानव संसाधन विभाग), पनबाका लक्ष्मी (वस्त्र), परणीत कौर(विदेश मंत्रालय), अगाथा संगमा (ग्रामीण विकास)। अर्थात् मंत्रीमंडल में बतौर महिला करीब 10 प्रतिशत को मंत्री बनाया गया है। जबकि सच ये है कि सŸाारूढ दल ने सन् 2004 में सŸाा संभालते ही महिला आरक्षण पर संसद से सड़क तक चिल्लाती रही व खुद अपने मंत्रिमंडल में 33 प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया हैं।
लेकिन हम महिलाओं के लिए ये शुभ संकेत है कि हमारे देश की राजधानी की महिला मुख्यमंत्री ने सात सदस्यी मंत्रीमंडल में मुख्यमंत्री सहित दो महिलाएं है जिसे 30 प्रतिशत के करीब आरक्षण माना जा सकता है वही उŸार प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री के सरकार में 52 सदस्यी मंत्रीमंडल है जिसमें सिर्फ दो महिलाएं है जिसे 4 प्रतिशत से भी कम आंका जा सकता है।
कुलमिलाकर हम ये कहना चाहते है कि जिस राजनीतिक परिदृश्य की एक महिला सोनिया गांधी प्रधान है, वहां भी उन्होंने 10 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को विभाग विशेष में नेतृत्व करने की क्षमता नहीं प्रदान की है, साथ ही मायावती ने अपने राज में भी सिर्फ 4 प्रतिशत महिलाओं को ही क्षेत्र विशेष में नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता प्रदान की है। यद्यपि हमारे देश की राजधानी की महिला मुख्यमंत्री को खुद के महिला होने का व महिलाओं के प्रति जिम्मेवारी का अधिक एहसास नजर आया है जिसके फलस्वरूप दिल्ली में महिलाओं का प्रतिनिधित्व व स्थिति में कुछ सुधार नजर आ रहा है।
बात चाहे दिल्ली मेट्रों में महिलाओं के लिए अलग बॉगी बनाने की हो, महिला पुलिस थाने को लेकर योजना हो, बस में महिला कर्मचारी की नियुक्ति की शुरुआत हो, ये सब चीजें हम महिलाओं की विकास के मद्देनजर सराहनीय है।
कहने का तात्पर्य हमारा यह भी है कि कुछ क्षेत्र विशेष में सिर्फ गिने-चुने महिलाओं के आ जाने से हमें संतोष नहीं कर लेना चाहिए। हमारा उद्देश्य तो यह होना चाहिए कि पंचायती राज के तरह हमें अन्य क्षेत्रों में भी 50 प्रतिशत की भागीदारी मिले। साथ ही सोनिया गांधी या मायावती जैसी सशक्त महिला की ही जयजयकार की हमारी मंशा नहीं होनी चाहिए। अगर इनके सशक्त होने के बाद भी महिला प्रतिनिधित्व नहीं बढ़ा है, वर्षो से लटका आरक्षण बिल पास नहीं हो पाया है तो इसे हम उनकी अनिच्छा माने या फिर किसी प्रकार का डर, इस पर भी विचार किए जाने की जरूरत हमें महसूस हो रही है।
शायद विशेष कुछ कारणों के कारण ही सŸाासीन प्रधान महिला होने के बावजूद उनके राज्य या प्रदेश में भी महिलाओं के साथ होने वाला अपराध में कमी होती नजर नहीं आ रही है।
बात चाहे कन्या भ्रूण हत्या की हो या दहेज और घरेलू हिंसा जैसी समस्याओं का, ये सभी अभी तक कायम है।
इसलिए अगर हम पुनः महिला उत्सव बनाम महिला दिवस के मनाने पर विचार करें तो उचित हमें यही लगता है कि अगर हम बहुत जल्दी समाज, राज्य अथवा देश की राजनीति नहीं बदल सकती तो कम से कम हम अपने परिवार में स्वयं के साथ अथवा परिवार के किसी भी महिला सदस्य के साथ होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने का कसम लें।
आज हम महिला को पुरुष के खिलाफ ही लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं है बल्कि उसके अपने मन में ही छिपे अपने प्रति हीनता से भी लड़ने की जरूरत है। महिलाआंे को जरूरत है उस कुविचार को भी दूर भगाने की जो अपनी बहन, बेटी या फिर बहु को दोयम दर्जे की प्राणी मानता है और उसके साथ पुरुषवादी सŸाा के स्वरूप हिंसा करने से परहेज नहीं करती।
हम महिला इस महिला दिवस पर ये कसम खाएं कि अपने परिवार में अपनी बेटी को बेटे के बराबर ही प्यार, सुरक्षा व अधिकार प्रदान करेंगे। उसे भी वह शिक्षा प्रदान करेंगे जिससे वह मानसिक-शारीरिक दोनों स्तर पर सक्षम हो व विशेष परिस्थिति में वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। इसके अलावा हम अपनी बच्ची को इस लायक भी बनाए जिससे वह अपना भार भी खुद वहन करने के लायक बन सके ताकि सुविधाओं की शर्त पर पति की जुल्म सहने को वह मजबूर न हो।
मुझे लगता है कि अगर हम सभी महिला सिर्फ अपनी-अपनी जिम्मेदारी संभाल लें तो पुरुषवादी सŸाा को बदलने में देर न लगेगी। और बहुत जल्दी परिवार से समाज व दूर-दूर तक इसकी आवाजें पहुंचेगी और जागृति की ये लहर राजनीतिक सŸाा में भी हलचल जरूर पैदा करेगी। और देर बेशक हो, हमें सामाजिक व राजनीतिक अधिकार भी जरूर मिलेगा।

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